May 31, 2019

बामसेफ एक परिचय - साहब कांशी राम

बामसेफ का निर्माण पिछड़े वर्गों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, अन्य पिछड़े वर्ग) एवं अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षित कर्मचारियों द्वारा उस दलित शोषित समाज को जिसमें वे पैदा हुए हैं दासता से मुक्ति दिलाने के लिए किया गया है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संगठन की संरचना एवं यंत्र रचना को भी परिकल्पित और निर्मित किया गया है।

इस लक्ष्य की ओर बामसेफ शिक्षित कर्मचारियों का एवं उस दलित, शोषित समाज के लिए जिसमें वे पैदा हुए हैं एक प्रथम प्रयास जान पड़ता है। बामसेफ हमारी तीव्र अभिलाषा, श्रमसाध्य विवेचन, परखे हुए प्रयोग एवं उत्सर्जित धारा की उपज है| प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बामसेफ लगभग एक दशाब्दी के लम्बे प्रयास का परिणाम है। जिसका पूरा और व्यवहार उल्लेख पुस्तक के रूप में बहुत ही शीघ्र आप के सामने आ जाएगा। पुस्तक लगभग 25 पृष्ठों की होगी। विगत वर्ष के दौरान ही मैं पुस्तक को निकालना आवश्यक समझ रहा था परन्तु व्यापक पैमाने पर क्षेत्र-कार्य और संगठनात्मक प्रयासों में व्यस्त रहने के कारण मैं उसे पूरा नहीं कर सका अन्यथा ऐसी पुस्तक निकालने का परिपक्व और उपयुक्त अवसर 14 अक्टूबर 1981 को चंडीगढ़ में आयोजित बामसेफ का त्रुतिय राष्ट्रिय अधिवेशन था.. 

मैने उक्त क्षति को पूरा करने के लिये उस विस्तृत उल्लेख का लि आप पूरी पुस्तक के रूप में देखेंगे यह संक्षिप्त रूप शीघ्रलेखित कराया है। आशा है कि इससे विस्तृत रूप में नही तो ऐसे अवसर पर जब पूरे भारत के प्रतिनिधि गण चण्डीगढ़ में एकत्र हो रहे हैं, बामसेफ की संक्षिप्त वास्तविक जानकारी अवश्य प्राप्त होगी।

14 अक्टूबर, 1981
चण्डीगढ़

- साहब कांशी राम

पुस्तक संकलन - अनंतराव अकेला (+919319294963) (साहब कांशीराम के ऐतिहासिक भाषण और यह किताब मंगवाने के लिए संपर्क करे)

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May 30, 2019

बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा संविधान सभा में दिया गया अंतिम भाषण

संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की तीन चेतावनियाँ आज भी प्रतिध्वनित क्यों होती हैं? 25 नवंबर, 1949 के दिन उन्होंने अराजकता के व्याकरण को छोड़ने, नायकों की पूजा से बचने, और सिर्फ़ राजनीतिक लोकतंत्र की दिशा में काम करने के बजाए, सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में भी काम करने की बात कही। प्रस्तुत हैं उनके भाषण के अंश :

26 जनवरी 1950 को, भारत एक स्वतंत्र देश होगा। उसकी स्वतंत्रता का क्या होगा? क्या वह अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखेगा या फिर वह इससे खो जाएगी? यह पहला विचार है जो मेरे दिमाग़ में आता है। ऐसा नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। मुद्दा यह है कि वह एक बार अपनी स्वतंत्रता खो चुका है। क्या वह इसे दूसरी बार भी खो देगा? यह ऐसा विचार है जो मुझे भविष्य के लिए सबसे अधिक चिंतित करता है।

भारत ने एक बार पहले भी अपनी स्वतंत्रता खोई है, इस तथ्य से ज़्यादा मुझे यह तथ्य अधिक चिंतित करता है कि वह स्वतंत्रता उसने अपने कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण खोई है।

मुहम्मद-बिन-कासिम द्वारा सिंध पर आक्रमण के समय राजा दाहिर के सैन्य कमांडरों ने मुहम्मद-बिन-कासिम के एजेंटों से रिश्वत ले ली और अपने स्वयं के राजा के पक्ष में लड़ने से मना कर दिया। वह जयचंद ही था जिसने भारत पर आक्रमण करने और पृथ्वी राज चौहान से लड़ने के लिए मुहम्मद गौरी को भारत में आमंत्रित किया और उससे, उसकी और सोलंकी राजाओं की सहायता का वादा किया। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तो अन्य मराठा राजवंश और राजपूत राजा मुगल सम्राटों के साथ मिलकर लड़ाई लड़ रहे थे। जब ब्रिटिश, सिख शासकों को नष्ट करने की कोशिश कर रहे थे, उस समय उनके प्रमुख कमांडर गुलाब सिंह चुप थे और सिख राज्य को बचाने में मदद नहीं कर रहे थे। सन् 1857 में जब भारतीय जनता के बड़े तबके ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई घोषित की, तो सिख तमाशबीनों की तरह खड़े होकर चुपचाप देखते रहे।

क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह ऐसा विचार है जो मुझे चिंतित करता है। यह चिंता इस तथ्य के बोध से और अधिक गहरी है कि जाति और पंथ के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त, हमारा साथ बहुत से राजनीतिक दलों व उनके विविध एवं विरोधी राजनैतिक पंथों के साथ भी जुड़ने जा रहा है। क्या भारतीय अपने देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे देश के ऊपर पंथ स्थापित करेंगे? मुझे नहीं पता। लेकिन यह बहुत निश्चित है कि यदि दलों ने देश से ऊपर पंथ स्थापित किया, तो हमारी स्वतंत्रता को दूसरी बार संकट में डाल दिया जाएगा और संभवत: यह हमेशा के लिए खो जाएगी। इस परिस्थिति में हम सभी को दृढ़ता से हमारे रक्त की आख़िरी बूँद के साथ हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए।

26 जनवरी 1950 को, भारत इस अर्थ में एक लोकतांत्रिक देश होगा कि उस दिन से भारत में जनता की सरकार, जनता के द्वारा और जनता के लिए होगी। वही विचार मेरे मन में आता है कि उसके लोकतांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह इसे बनाए रखने में सक्षम होगा या फिर वह इससे खो जाएगा? यह दूसरा विचार है जो मेरे दिमाग में आता है और मुझे पहले की तरह चिंतित करता है।

लोकतांत्रिक प्रणाली :

ऐसा नहीं है कि भारत को नहीं पता था कि लोकतंत्र क्या है। एक समय ऐसा भी था जब भारत गणराज्यों से भरा था, और यहाँ तक कि जहाँ भी राजतंत्र थे, वे या तो निर्वाचित थे या सीमित थे। वे कभी पूर्ण नहीं थे। और ऐसा भी नहीं है कि भारत संसद या संसदीय प्रक्रिया को नहीं जानता था।
"बौद्ध भिक्षु संघों का एक अध्ययन यह खुलासा करता है कि वहाँ न केवल संसद थीं (संघों के लिए संसद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था) बल्कि संघ आधुनिक समय में ज्ञात संसदीय प्रक्रिया के सभी नियम जानते और मानते थे। उनके पास बैठक व्यवस्था, प्रस्तावना, विश्लेषण एवं समाधान, कोरम, अनुदेश, वोटों की गिनती, बैलेट द्वारा मतदान, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि के बारे में नियम थे। हालांकि संसदीय प्रक्रिया के इन नियमों को बुद्ध द्वारा संघ की अनेक अलग-अलग बैठकों में लागू किया गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि संघों ने उन्हें अपने समय में देश में काम करने वाले राजनीतिक विधानसभाओं के नियमों से उधार लिया होगा।"
भारत ने इस लोकतांत्रिक प्रणाली को खो दिया। क्या वह इसे दूसरी बार भी खो देगा? मुझे नहीं पता। लेकिन भारत जैसे देश में यह काफी संभव है। जहाँ लंबे समय से इस्तेमाल की जाने वाली लोकतांत्रिक प्रणाली को नया माना जाए, वहाँ लोकतंत्र को तानाशाही में बदल जाने का खतरा होता है।

तीन चेतावनियां :

यदि हम लोकतंत्र को केवल एक रूप में बनाए रखने के बजाए उसे एक तथ्यात्मक रूप देना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिए?

मेरे फैसले में सबसे पहले हमें सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीकों को मजबूती से पकड़कर इन्हें पूरा करना चाहिए। इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को छोड़ देना चाहिए। और इसका मतलब यह है कि हमें सामाजिक अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह की विधि को छोड़ देना चाहिए। जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ा गया था, तो असंवैधानिक तरीकों के लिए पर्याप्त औचित्य था। लेकिन जहाँ संवैधानिक तरीके खुले हैं, इन असंवैधानिक तरीकों के लिए कोई औचित्य नहीं हो सकता है। ये विधियाँ अराजकता के व्याकरण के अलावा कुछ भी नहीं हैं और जितनी जल्दी वे छोड़ दी जाती हैं, उतना ही हमारे लिए बेहतर है।

दूसरी चीज़ हमें ‘जॉन स्टुअर्ट मिल’ के उस कथन को अवश्य याद रखना चाहिए जो उन्होंने लोकतंत्र के रखरखाव में दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों को सावधानी बरतने के लिए दिया है कि,
“किसी भी महान व्यक्ति के पैरों पर अपनी आज़ादी न रखें, और न ही उस पर इतना विश्वास करें जो उसे आपके संस्थानों को नष्ट करने में सक्षम बनाता है।” 
उन महान पुरुषों के लिए आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है, जिन्होंने देश के लिए अपने अपने पूरे जीवनकाल भर सेवाएँ दी हैं। लेकिन कृतज्ञता की भी सीमाएं हैं। जैसा कि ‘आयरिश पैट्रियट डैनियल ओ कोनेल’ ने कहा है “कोई भी व्यक्ति अपने सम्मान के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई भी स्त्री उसकी पवित्रता के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।” यह सावधानी किसी भी अन्य देश के मामले की तुलना में भारत के मामले में कहीं अधिक आवश्यक है। भारत में भक्ति, भक्ति मार्ग या नायक-पूजा दुनिया में किसी भी अन्य देश की तुलना में राजनीति में अप्रत्याशित एवं अद्वितीय भूमिका निभाती है। 
धर्म में भक्ति आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकता है लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा गिरावट और तानाशाही के लिए एक निश्चित मार्ग है।
तीसरी चीज़ हमें केवल राजनीतिक लोकतंत्र के साथ संतुष्ट नहीं होना है। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को भी एक सामाजिक लोकतंत्र बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक सही ढंग से सक्रिय और सक्षम नहीं हो सकता जब तक कि इसमें सामाजिक लोकतंत्र का आधार न हो।

सामाजिक लोकतंत्र :

सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? यह जीवन का एक साधन है जो जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और आपसी बंधुत्व को पहचानता है। स्वतंत्रता, समानता और आपसी बंधुत्व के इन सिद्धांतों को अलग-अलग चीज़ों के रूप में नहीं माना जा सकता। वे एक संघ के रूप में कार्य करते हैं कि एक को दूसरे से अलग कर देना अर्थात् लोकतंत्र के उद्देश्य को हराना है।
स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता है, समानता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है और न ही इन दोनों को आपसी बंधुत्व से अलग किया जा सकता है। समानता के बिना स्वतंत्रता, कई लोगों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता को जन्म देगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्ति की पहल को मार देगी। आपसी बंधुत्व के बिना भी स्वतंत्रता कई लोगों पर कुछ की सर्वोच्चता को जन्म देगी। आपसी बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता प्राकृतिक चीज़ें नहीं बन पाएँगी और तब उन्हें लागू करने के लिए किसी ताकत की आवश्यकता पड़ेगी।

हमें इस तथ्य को स्वीकार करते हुए आरम्भ करना चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीज़ों का पूर्ण अभाव है इनमें से एक है – समानता। भारत की सामाजिक पृष्ठभूमि में वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत के आधार पर एक समाज है जिसमें एक तरफ कुछ ऐसे लोग हैं जिनके पास बहुत अधिक धन है और दूसरी तरफ काफी ऐसे लोग भी हैं जो बहुत गरीबी में जी रहे हैं।

26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक जीवन में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक मत के सिद्धांत और एक मत-एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे जबकि हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम, हमारे सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के कारण, एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धांत से इनकार करते रहेंगे। कब तक हम विरोधाभासों के इस जीवन को जीना जारी रखेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता से इन्कार करते रहेंगे? यदि हम इसे लंबे समय तक अस्वीकार करते हैं, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ऐसा करेंगे। हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द संभवतः दूर करना चाहिए अन्यथा असमानता से पीड़ित लोग उस राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को ही ख़त्म कर देंगे जो संसद को श्रमसाध्य रूप से निर्मित करना है।

दूसरी बात जिसे हम चाहते हैं, वह है – आपसी बंधुत्व के सिद्धांत की मान्यता। बंधुत्व का क्या अर्थ है? बंधुत्व का अर्थ है सभी भारतीयों के भीतर भाईचारे की भावना। यह वह सिद्धांत है जो सामाजिक जीवन को एकता और मज़बूती प्रदान करता है। यह हासिल करना एक मुश्किल काम है। यह कितना मुश्किल है, इसे ‘जेम्स ब्रीसे’ द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के बारे में अमेरिकी कॉमनवेल्थ पर अपने वॉल्यूम में दी गई संबंधित कहानी से महसूस किया जा सकता है। मैं खुद ब्रीसे के शब्दों में इस कहानी को बताने का प्रयास करता हूँ :

“कुछ साल पहले अमेरिकन प्रोटेस्टेंट एपिस्कोपल चर्च को अपने ग्रंथों में संशोधन के लिए उसके त्रैवार्षिक सम्मेलन में अधिकृत कर लिया गया था। उस समय शॉर्ट वर्ड प्रार्थना को सभी लोगों की प्रार्थना के रूप में माना जाता था। प्रार्थना शुरू हुई, और एक प्रख्यात न्यू इंग्लैंड ज्ञानी ने ‘ओ भगवान, हमारे राष्ट्र को आशीर्वाद दो’ शब्दों से प्रार्थना शुरू की। इसे उस दिन दोपहर को स्वीकार किया गया, इस पल के पश्चात, इस बात को पुनर्विचार के लिए अगले दिन आगे बढ़ाया गया, जब आम जनों द्वारा राष्ट्र शब्द के लिए इतनी सारी आपत्तियां उठाई गईं, जैसे कि इस शब्द से राष्ट्रीय एकता की पहचान को निश्चित किया जा रहा है, और बाद में इसके बजाय इन शब्दों को अपनाया गया, “हे भगवान, इन संयुक्त राज्यों को आशीर्वाद दें।”

उस समय अमेरिका में बहुत कम एकजुटता थी। जब यह घटना हुई तब अमेरिका के लोग यह नहीं सोचते थे कि वे एक राष्ट्र हैं। अगर संयुक्त राज्य के लोग यह महसूस नहीं कर सके कि वे एक राष्ट्र हैं, तो भारतीयों के लिए यह सोचना कितना मुश्किल है कि वे एक राष्ट्र हैं?

एक बड़ी भ्रांति :

मुझे याद है कि जब भारतीय राजनैतिक बुद्धिजीवियों ने “भारत के लोगों” की अभिव्यक्ति का विरोध किया था। उन्होंने “भारतीय राष्ट्र” की अभिव्यक्ति पसंद की थी। 
मेरा पक्ष है कि ऐसा मानने में कि हम एक राष्ट्र हैं, हम एक महान भ्रम को संजो रहे हैं। हज़ारों जातियों में विभाजित लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं?
इस बात को जितनी जल्दी हम समझते हैं कि हम दुनिया के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मायनों में अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं, हमारे लिए बेहतर है। और केवल तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता का महत्व समझेंगे और लक्ष्य को साकार करने के तरीकों के बारे में गंभीरता से सोचेंगे। इस लक्ष्य की प्राप्ति बहुत मुश्किल हो रही है – संयुक्त राज्य अमेरिका में जितनी अधिक कठिन रही उससे भी अधिक मुश्किल। संयुक्त राज्य में कोई जाति समस्या नहीं है। भारत में जातियाँ हैं और जातियां राष्ट्र विरोधी हैं। पहली बात, क्योंकि वे सामाजिक जीवन में विभाजन लाती हैं। वे राष्ट्रविरोधी इसीलिए भी हैं क्योंकि वे जाति और जाति के बीच ईर्ष्या और प्रतिपक्ष पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सभी कठिनाइयों को दूर करना होगा। आपसी बंधुत्व तभी कायम हो सकता है, जब कोई राष्ट्र हो। बंधुत्व के बिना, समानता और स्वतंत्रता रंगों की परतों से अधिक गहरी नहीं होगी।
ये उन कार्यों के बारे में मेरे प्रतिबिंब हैं जो हमारे सामने हैं। ये कुछ लोगों के लिए बहुत सुखद नहीं भी हो सकते हैं लेकिन यह कहने में कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि इस देश में राजनीतिक शक्तियाँ काफ़ी समय के लिए एकाधिकृत रही हैं और कई लोग केवल बोझ ढोने के जानवर हैं, लेकिन साथ ही शिकार के जानवर भी हैं। इस एकाधिकार ने उन्हें केवल भलाई की सम्भावनाओं से वंचित नहीं किया है, बल्कि इसने उन्हें जीवन के महत्व से भी दूर किया है। ये निचले और शोषित वर्ग शोषित होते-होते थक गए हैं। वे स्वयं को शासित करने के लिए अधीर हैं। इन निचले व शोषित वर्गों में आत्म अनुभूति के लिए इस उत्तेजना को किसी वर्ग संघर्ष अथवा जाति युद्ध में परिवर्तित नहीं होने देना चाहिए। यह सदन के एक विभाजन का नेतृत्व करेगा और तब यह वास्तव में आपदा का दिन होगा। जैसा कि ‘अब्राहम लिंकन’ ने कहा है कि “अपने आप में विभाजित एक सदन बहुत लंबे समय तक खड़ा नहीं रह सकता।” इसलिए जितनी जल्दी उनकी आत्म अनुभूति की आकांक्षाओं को जगह दी जाएगी उतना ही कुछ के लिए बेहतर है, देश के लिए बेहतर है, आज़ादी के रखरखाव के लिए बेहतर है और इस लोकतांत्रिक ढांचे की निरंतरता के लिए बेहतर है। यह केवल जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और आपसी बंधुत्व की स्थापना के द्वारा ही किया जा सकता है। यही कारण है कि मैंने उन पर इतना ज़ोर दिया है।

मैं सदन को और आगे नहीं बढ़ाना चाहता हूँ। निःसंदेह स्वतंत्रता एक अत्यंत खुशी की बात है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हमारे ऊपर बड़ी जिम्मेदारियाँ भी डाली हैं। आजादी से पहले तक, हमने कुछ भी गलत होने का कारण ब्रिटिश शासन को बताया है यदि इसके बाद चीज़ें गलत होती हैं, तो हमें स्वयं को छोड़कर कोई भी दोषी नहीं होगा। और चीज़ों के गलत होने का खतरा बहुत अधिक है। समय तेजी से बदल रहा है। हम सहित अन्य लोग नई विचारधाराओं से जुड़ रहे हैं। वे लोगों द्वारा शासित सरकार से थक रहे हैं और वे लोगों के लिए सरकार बनाने को तैयार हैं और उदासीन भी हैं कि क्या यह लोगों की लोगों के द्वारा सरकार है? यदि हम संविधान को संरक्षित करना चाहते हैं, जिसमें हमने लोगों की, लोगों के लिए, और लोगों के द्वारा सरकार के सिद्धांत को स्थापित करने की माँग की है, तो हमें अपने रास्ते में आने वाली उन बुराइयों की पहचान करने में सुस्ती न दिखाने का संकल्प लेना होगा जो लोगों की, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा सरकार के सिद्धांत को प्रेरित होने से रोकती हैं और उन बुराइयों को खत्म करने के लिए हमें कमज़ोर न पड़ने का संकल्प भी लेना होगा। यह देश सेवा करने का एकमात्र तरीका है। मुझे इससे बेहतर और कोई तरीका नहीं पता है।

Youtube Video: 

Source : https://issuu.com/sulabhindia/docs/10-16_apr-2017_english


May 29, 2019

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - परिव्राजको की प्रतिक्रिया

उन पांचों परिव्राजकों ने तुरंत यह समझ लिया कि यह वास्तव में एक नया धम्म है। जीवन की समस्या के प्रति इस नए दृष्टिकोण से वे इतने अधिक प्रभावित हुए कि वे सभी यह कहने में एकमत थे, 
''संसार के इतिहास में इससे पहले किसी भी धर्म के संस्थापक ने कभी यह शिक्षा नहीं दी कि मानवीय दुख को पहचानना और स्वीकार करना धम्म का यथार्थ आधार है।'' 
“संसार के इतिहास में इससे पहले कभी किसी धर्म के संस्थापक ने यह शिक्षा नहीं दी कि संसार के इस दुख को दूर करना ही धम्म का वास्तविक उद्देश्य है।''
  • “संसार के इतिहास में इससे पहले कभी किसी ने मुक्ति की रूपरेखा नहीं सुज़ाई थी जो इतनी सरल हो, जो अलौकिकता और अपौरुषेय शक्तियों की अधीनता से मुक्त हो, जो इतनी स्वतंत्र ही नहीं बल्कि किसी 'आत्मा' या 'परमात्मा' में विश्वास तथा मरणांतर जीवन में विश्वास की विरोधी भी हो।
  • संसार के इतिहास में इससे पहले किसी ने भी कभी ऐसे धम्म की रूप रेखा प्रस्तुत ही नहीं की, जिसका किसी रहस्य और (ईश्वरीय) प्रभुत्व से कोई सम्बंध नहीं हो, जिसके आदेश व्यक्ति की सामाजिक आवश्यकताओं के अध्ययन की देन हों और किसी ईश्वर की आज्ञाएं न हों।
  • “संसार के इतिहास में इससे पहले किसी ने भी कभी मुक्ति की ऐसी परिकल्पना नहीं की कि सुख का उपहार व्यक्ति द्वारा इसी जीवन में और इस धरती पर स्वयं अपने ही धम्माचरण और प्रयास द्वारा प्राप्त किया जा सकता है!'' 
  • नए धम्म पर बुद्ध का धम्मोपदेश सुनने के बाद उन परिव्राजकों ने उपर्युक्त उदगार व्यक्त किए।
  • उन्हें लगा कि बुद्ध के रूप में उन्हें एक ऐसे जीवन-सुधारक मिल गए थे, जिनका रोम-रोम नैतिकता की भावना से ओत-प्रोत था और जो अपने युग की बौद्धिक संस्कृति से सुपरिचित थे। जिनमें ऐसी मौलिकता एवं साहस था कि विरोधी विचारों की जानकारी के साथ वह इसी जीवन में मुक्ति के एक ऐसे मार्ग का प्रतिपादन कर सकते थे, जिससे मन का आंतरिक परिवर्तन निज-सभ्यता और निज-संयम द्वारा प्राप्त किया जा सकता था।
  • बुद्ध के लिए उनके मन में ऐसी असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई कि उन्होंने उनके समक्ष तुरंत व समर्पण कर दिया और निवेदन किया कि वह उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लें। 
बुद्ध ने कोण्ड्ज्ज, अस्सजि, वप्प, महानाम तथा भदिय को 'एहि भिक्ख्वे'  (भिक्खुओ आओ) कहकर भिक्खु संघ में दीक्षित कर लिया। वे 'पज्ज-वग्गिय' (पंचवर्गीय) भिक्खु नाम से प्रसिद्ध हुए।

संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - धम्मचक्क पवत्त्तन


"क्या व्यक्तिगत निर्मलता ही संसार में सच्चाई की आधारशिला नहीं है?" उनका उतर था, "हां, यह ऐसा ही है जैसा कि आप कहते हैं।"

  • और बुद्ध ने फिर पूछा, ''क्या इर्ष्या, राग, अविद्या, हिंसा, चोरी, व्यभिचार और असत्य व्यक्तिगत निर्मलता को दुर्बल नहीं बनाते हैं? क्या व्यक्तिगत निर्मलता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि अपेक्षित चारित्रिक बल को उत्पन्न किया जाए ताकि इन बुराइयों पर नियंत्रण रखा जा सके? यदि किसी मनुष्य में व्यक्तिगत निर्मलता ही नहीं है, तो वह जन-कल्याण में कैसे सहायक हो सकता है?" उन्होंने उत्तर दिया, "हां, यह ऐसा ही है, जैसा कि आप कहते हैं।
  • "और तब लोग क्यों दूसरों को अपना गुलाम बनाने और उनको अपने अधीन रखने में संकोच नहीं करते हैं? क्यों लोग दूसरों के जीवन को दुखी बनाने में संकोच नहीं करते हैं? क्या यह इसलिए नहीं है क्योंकि लोग दूसरों के प्रति अपने आचरण में शुद्ध नहीं होते?" उन्होंने "हा" कहकर उत्तर दिया।
  • "तो क्या आष्टांगिक मार्ग सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक आजीविका, सम्यक कमात, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि का अभ्यास-संक्षेप में सधम्म के मार्ग का यदि प्रत्येक व्यक्ति अनुसरण करे, तो क्या वह मनुष्य अपने अन्यायपूर्ण और अमानवीय व्यवहार का त्याग नहीं कर सकता?" उनका उत्तर था, "हां, यह ऐसा ही है।"
  • सद्गुणों का उल्लेख करते हुए उन्होंने पूछा, "क्या अभावग्रस्तों तथा दरिद्रों का दुख दूर करने के लिए और सामान्य जन-कल्याण करने के लिए दान आवश्यक नहीं है? क्या जहां दरिद्रता और कष्ट हैं, वहां सहायता प्रदान करने के लिए करुणा की आवश्यकता नहीं है? क्या निस्वार्थ-भाव से काम करने के लिए नेक्खम (नैष्काम्य) की आवश्यकता नहीं है? क्या व्यक्तिगत नाम न होने पर भी सतत प्रयत्न में लगे रहने के लिए उपेक्खा (उपेक्षा) की आवश्यकता नहीं है?"
  • "क्या मनुष्य के लिए प्रेम आवश्यक नहीं है?" उनका उत्तर था, "हा''।
  • मैं और आगे कहता हूं, "प्रेम करना पर्याप्त नहीं है, जिस की आवश्यकता है, वह मेत्ता (मेत्री) है; प्रेम की अपेक्षा यह अधिक व्यापक है। इसका अर्थ है न केवल साथ के लोगों के प्रति मेला (मैत्री), बल्कि समस्त प्राणी मात्र के प्रति मेत्ता (मैत्री)। यह मानव तक ही सीमित नहीं है। क्या ऐसी मेत्ता (मैत्री) अपेक्षित (जरूरी) नहीं है? इसके अलावा दूसरी कौन सी चीज़ है, जो सभी मानवों को वह सुख प्रदान कर सके, जो सुख व्यक्ति स्वयं चाहता है, ताकि चित पक्षपातरहित रहे, सभी के लिए समान रहे, उसमें सभी के प्रति प्रेम रहे और किसी के प्रति भी घृणा नहीं रहे?"
  • उन सब ने कहा, ''हा''।
  • “लेकिन इन सद्गुणों के आचरण के साथ-साथ पज्जा (प्रज्ञा) अर्थात पुर्ण ज्ञान भी होना चाहिए।
  • "क्या पज्जा(प्रज्ञा) आवश्यक नहीं है? परिव्राजक मौन रहे। उन्हें अपने प्रश्न का उतर देने के लिए प्रेरित करने के लिए तथागत ने आगे कहा, अच्छे मनुष्य के गुण है-कोई बुराइ न करे, बुरी बात न सोचे, बुरे तरीके से अपनी जीविका न कमाए और न ही मुन्ह से कोई ऐसी बात निकाले जिससे किसी को ठेस पहुंचे। परिव्राजक बोले, ''हां, यह ऐसा ही है।''
  • बुद्ध ने पूछा, "लेकिन क्या अच्छे कर्मों को बिना सोचे-समझे आंख बंद करके करना ठीक है? मैं कहता हूं 'नहीं' यह पर्याप्त नहीं है।'' बुद्ध ने परिव्राजको से कहा, "यदि यह प्यार होता, तो हम एक छोटे बच्चे के बारे में घोषित कर सकते थे कि वह हमेशा अच्छा करता है। क्योंकि अभी तक एक छोटा बच्चा यह भी नहीं जानता कि शरीर क्या होता है। वह लात चलाते रह्ने के अतिरिक्त और शरीर से कर ही क्या सकता है। वह यह भी नहीं जानता कि वाणी क्या है। वह चिल्लाने के अतिरिक्त और क्या बुरी बात कर सकता है? वह यह भी नहीं जानता कि विचार क्या होता है। वह केवल प्रसन्नता के मारे कलकारी ही मार सकता है। वह यह भी नहीं जानता जीविकावर्जन क्या होता है। वह अपनी मां के स्तन से दुध पीने के अतिरिक्त क्या बुरे तरीके से जीवन चला सकता है?
  • "इसलिए सदूगण के पथ की जांच पज्जा (प्रज्ञा) से होनी चाहिये, जो समज़ और बुद्धि का दुसरा नाम है.
  • एक और कारण से भी पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता इतनी महत्वपूर्ण और इतनी आवश्यक है। दान अवश्य होना चाहिए। किंतु बिना पज्जा (प्रज्ञा) के दान भी संप्रातिपूर्ण प्रभाव पैदा कर सकता है। करुणा होनी ही चाहिए। किंतु बिना पज्जा (प्रज्ञा) के करुणा भी बुराई की समर्थक बन सकती है। पारमिता की प्रत्येक क्रिया पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता की कसौटी पर खरी उतरनी चाहिए। निर्मल बुद्धि का ही दूसरा नाम पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता है।
  • "मेरी स्थापना है कि इस बात का ज्ञान और बोध होना चाहिए कि अकुशल आचरण क्या है और इसकी उत्पत्ति कैसे होती है,; इसी प्रकार इस बात का भी ज्ञान और बोध होना चाहिए कि कुशल कर्म तथा अकुशल कर्म क्या है? इस प्रकार के ज्ञान के बिना वास्तविक अच्छाई (कुशल कर्म) नहीं हो सकती, चाहे क्रिया अच्छी ही क्यों न हो। इसीलिए मैं कहता हु कि पज्जा (प्रज्ञा) एक आवश्यक सद्गुण है।'"
  • तब बुद्ध ने परिव्राजकों को इस प्रकार की चेतावनी देते हुए अपना धम्मोपदेश समाप्त किया।
  • ''हो सकता है कि तुम मेरे धम्म को निराशावादी धम्म कहो, क्योंकि यह मानव-जाति का ध्यान दुख के अस्तित्व की ओर दिलाता है। मेरा तुमसे बस यही कहना है कि मेरे धम्म के बारे में ऐसी धारणा का होना गलत होगा।
  • ''निस्संदेह मेरा धम्म दुख के अस्तित्व को स्वीकार करता है, किंतु यह न भूलो कि यह इतना ही जोर उस दुख के दूर करने पर भी देता है।
  • “मेर धम्म में आशा और उद्देश्य दोनों ही निहित हैं।"
  • "इसका उद्देश्य है अविद्या का नाश, जिससे मेरा अभिप्राय है दुख के अस्तित्व के सम्बंध में अग्यान (अविध्या) का होना।
  • ''इसमें आशा विद्यमान है क्योंकि यह मानवीय दूख के नाश का मार्ग बताता है।"

  • "तुम इससे सहमत हो कि नही?" परिव्राजको ने कहा, "हा, हम सहमत है.."
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - सील का मार्ग


इसके पश्चात बुद्ध ने उन परिव्राजकों को सील-पथ के बारे में समझाया।उन्होंने उन्हें बताया कि सील-पथ का अर्थ है इन सद्गुणों का अभ्यास करना,
(1) दान (2) सील (शील) (3) नेक्खम्म (नैष्क्रयम) (4) पज्जा (प्रज्ञा), 5) विरिय (विर्य) (6) खन्ति (क्षान्ति) (7) सच्च (सत्य) (8) अधिठान (अधिष्ठान) (७) मेत्ता (मैत्री) और (10) उपेक्खा (उपेक्षा)।

  • उन परिव्राजकों ने बुद्ध से इन सद्गुणों का सही अर्थ समझाने के लिए कहा। तब बुद्ध ने उन्हें संतुष्ट करने के लिए समझाया - 
  • दान का अर्थ है बदले में किसी भी प्रकार की आशा किए बिना दूसरों की भलाई के निमित्त अपनी संपत्ति को ही नहीं, अपने रक्त, अपने शरीर के अंगों और यहां तक कि अपने प्राण तक को दूसरों को अर्पित कर देना ।
  • “सील (शील) का अर्थ है नैतिक स्वभाव, अकुशल कर्म न करने की मनोवृत्ति और कुशल कर्म करने की मनोवृत्ति; बुराई (अकुशल कर्म) करने में लज्जा करना। दंड के भय से अकुशल कर्म से बचे रहना सील है। सील का अर्थ है अकुशल कर्म से भय खाना।
  • नेक्खम (नैष्कर्म्य) का अर्थ है सांसारिक काम-भोगों का त्याग।
  • ‘‘पज्जा (प्रज्ञा) का अर्थ है निर्मल बुद्धि ।
  • “विरिय (वीर्य) का अर्थ है सम्यक प्रयत्न । जो कुछ एक बार करने का निश्चय कर लिया अथवा जो कुछ करने का संकल्प कर लिया, उसे अपनी पूरी सामर्थ्य से करने का प्रयास करना और बिना उसे पूरा किए पीछे मुड़कर नहीं देखना।
  • खन्ति (क्षान्ति) का अर्थ है सहन सीलता। घृणा के बदले में घृणा न करना, इसका यही सार है। क्योंकि घृणा से घृणा कभी भी शांत नहीं होती। यह केवल सहन शीलता से ही शांत होती है।
  • "सच्च (सत्य) का अर्थ है सत्यवादी होना। आदमी को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। उसे सत्य और केवल सत्य ही बोलना चाहिए।
  • "अधिट्ठान (अधिष्ठान) का अर्थ है अपने उद्देश्य तक पहुंचने का द्रढ-संकल्प।
  • “मेत्ता (मैत्री) का अर्थ है सभी प्राणियों के प्रति भ्रातृत्व-भावना रखना, न केवल मित्रों के प्रति ही, बल्कि शत्रुओं तक के प्रति भी; न केवल मनुष्यों बल्कि सभी प्राणियों के प्रति भी।
  • “उपेक्खा (उपेक्षा) का अर्थ है अनासक्ति, जो उदासीनता से भिन्न है। यह चित्त की वह अवस्था है, जिसमें प्रिय-अप्रिय कुछ नहीं है। फल कुछ भी हो उससे निरपेक्ष रहना और लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना ही उपेक्खा है।
  • "मनुष्य को इन सद्गुणों का अपनी पूरे सामर्थ्य के साथ अभ्यास करना चाहिए। इसीलिए उन्हें 'पारमिता' (गुणों की पराकाष्ठा) कहा गया है।
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"
 

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - अष्टांगिक मार्ग या सम्यक मार्ग


इसके आगे बुद्ध ने उन परिव्राजकों को अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया। बुद्ध ने कहा कि इस मार्ग के आठ अंग हैं। बुद्ध ने सम्मा दिट्ठि (=सम्यक द्रष्टि) की व्याख्या से अपना धम्मोपदेश आरंभ किया, जो अष्टांगिक मार्ग का प्रथम और प्रधान अंग है । सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का महत्त्व समझाने के लिए बुद्ध ने परिव्राजकों से कहा -
  • “हे परिव्राजको! तुम्हें इस का बोध होना चाहिए कि यह संसार एक कारागार है और मनुष्य इस कारागार में एक कारावासी (बंदी) है।
  • “यह कारागार अंधकार से भरा हुआ है। इसमें इतना अधिक अंधकार है कि कैदी को यहां कुछ भी दिखाई नहीं देता है। कैदी को यह तक दिखाई नहीं देता कि वह कारावासी (कैदी) है।
  • “वास्तव में बहुत अधिक लंबे समय तक इस अंधेरे में रहने के कारण मनुष्य न केवल अंधा हो गया है, बल्कि उसे इस बात में भी बहुत संदेह हो गया है कि प्रकाश नाम की ऐसी कोई अनोखी चीज़ भी कहीं अस्तित्व में हो सकती है।
  • “मन ही एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य को प्रकाश की प्राप्ति हो सकती है।
  • लेकिन इस उद्देश्य के लिए इन कारावासियों का मन एक उपयुक्त साधन नहीं है ।
  • “इनका मन थोड़ा-सा प्रकाश ही आने देता है, जो बस केवल इतना ही पर्याप्त है जिससे देखने वाले यह देख सकें कि अंधकार नाम की भी कोई वस्तु है।“
  • “इस प्रकार यह स्वभाव से ही दोषपूर्ण समझ है।“
  • "लेकिन हे परिव्राजको! यह जान लो कि कैदी की स्थिति ऐसी निराशाजनक नहीं है जैसी यह प्रतीत होती है।
  • क्योंकि मनुष्य में एक चीज है जिसे संकल्प शक्ति ( मनोबल ) कहा जाता है। जब मनुष्य के सम्मुख कोई उपयुक्त प्रयोजन का उदय हो जाता है, तो मनोबल को जागृत और क्रियाशील किया जा सकता है ।
  • “किस दिशा में इस मनोबल को लगाया जाए, यह देखने के लिए पर्याप्त प्रकाश मिलने पर मनुष्य उस मनोबल का मार्ग दर्शन कर सकता है और इस प्रकार बंधन मुक्त हो सकता है।
  • “इस प्रकार यद्यपि मनुष्य बंधन में है, तो भी वह स्वतंत्र हो सकता है। वह किसी भी क्षण ऐसा पहला कदम उठा सकता है, जो अंततः उसे स्वतंत्रता प्रदान करेगा।
  • “ऐसा इसलिए है, क्योंकि हम जिस किसी भी दिशा में अपने मन को ले जाना चाहें, हमारे लिए उसे उस दिशा में ले जाना संभव है। यह मन ही है , जो हमें जीवन - रूपी कारागार का कैदी बनाता है और यह मन ही है जो हमें ऐसा बनाए रखता है ।
  • “लेकिन मन ने जो कुछ बनाया है, उसे मन ही नष्ट कर सकता है। यदि इसने मनुष्य को दास बनाया है तो ठीक दिशा दिखाने पर यह मनुष्य को स्वतंत्र भी कर सकता है।
  • “यह है जो सम्यक द्रष्टि कर सकती है । ' '
  • तब परिव्राजकों ने प्रश्न किया, “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अंतिम उद्देश्य क्या है?” बुद्ध ने उत्तर दिया, “ अविद्या का विनाश ही सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का उद्देश्य है। यह मिथ्या-द्रष्टि की विरोधिनी है ।
  • "और अविद्या का अर्थ है चार सत्यों तथा दुख के अस्तित्व एवं दुख के निरोध के उपाय को न समझ पाना।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है, कर्म-कांड के क्रिया-कलाप की प्रभावोत्पादकता में विश्वास न रखना और शास्त्रों की पवित्रता की मिथ्या-धारणा से मुक्त होना ।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है, अंधविश्वास तथा अलौकिकता का त्याग करना।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है ऐसी सभी मिथ्या धारणाओं का त्याग करना, जो कल्पना मात्र हैं और जो यथार्थता अथवा अनुभव पर आधारित नहीं हैं।
  • "सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) के लिए स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार आवश्यक होते है।
  • " हर मनुष्य के कुछ उद्देश्य, आकांक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं होती हैं। सम्मासंकप्पो (सम्यक संकल्प) यह शिक्षा देता है कि ऐसे उद्देश्य, आकांक्षाएं तथा महत्त्वाकांक्षा उच्च स्तर की एवं सराहनीय हों और निम्न स्तर की एवं अयोग्य न हों।
  • "सम्मावाचा (सम्यक वाणी) में शिक्षा देती है कि (1 ) मनुष्य केवल वही बोले जो सत्य है।(2) मनुष्य असत्य न बोले, (3) मनुष्य दूसरों की बुराई न करे, (4) मनुष्य पर - निंदा से दुर् रहे, ( 5) मनुष्य किसी के लिए भी क्रोध और गाली - गलौज वाली भाषा का प्रयोग न करे, (6) मनुष्य सभी के साथ दया से भरी तथा विनम्र वाणी का व्यवहार करे, (7) किसी मनुष्य को व्यर्थ की, मूर्खतापूर्ण बातों में नहीं पड़ना चाहिए बल्कि उसकी वाणी बुद्धिसंगत और सार्थक होनी चाहिए।
  • जैसा मैंने समझाया है , सम्मावाचा (सम्यक वाणी) का व्यवहार किसी भय अथवा पक्षपात के कारण नहीं होना चाहिए । इसका इससे कुछ भी सम्बंध नहीं होना चाहिए कि कोई ‘श्रेष्ठ मनुष्य’ उसके कार्य के बारे में क्या सोचता है अथवा सम्यक वाणी के व्यवहार के कारण क्या हानि हो सकती है।
  • “सम्मावाचा (सम्यक वाणी) का मापदंड न किसी ‘ऊपर के मनुष्य' की आज्ञा है और न किसी मनुष्य के व्यक्तिगत लाभ के लिए है।
  • “सम्माकम्मन्तो (सम्यक कर्मात) सही व्यवहार की शिक्षा देता है। यह सिखाता है कि हमारे हर कार्य का आधार दूसरों की भावनाओं और अधिकारों का आदर होना चाहिए।
  • “सम्माकम्मन्तो (सम्यक कर्मांत) का मापदंड क्या है? सम्यक कर्मात का मापदंड है आचरण की धारा जो अस्तित्व के आधारभूत नियम के साथ समन्वित होनी चाहिए ।
  • “जब किसी मनुष्य के कार्य इन नियमों से समन्वय रखते हों, तो उन्हें सम्यक कर्म के अनुरूप ही समझना चाहिए।
  • “प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका कमानी ही होती है। लेकिन अपनी जीविका कमाने के कुछ तरीके हैं और उन तरीकों में कुछ बुरे हैं और कुछ अच्छे। बुरे तरीके वे हैं, जो किसी को चोट पहुंचाते हैं अथवा किसी के साथ अन्याय करते हैं। अच्छे तरीके वे हैं जिनसे मनुष्य बिना किसी को हानि पहुंचाए अथवा बिना किसी के साथ अन्याय किए अपनी जीविका कमाता है। यही सम्माआजीवो (सम्यक आजीविका) है।
  • “सम्मावायामी (सम्यक व्यायाम - ठीक प्रयास) अविद्या को नष्ट करने का प्रथम प्रयास है जो उस द्वार तक पहुंचाकर उसे खोलता है, जहां से उस दुखद कारागार से बाहर निकला जा सकता।
  • "सम्मावायामो (सम्यक व्यायाम) के चार उद्देश्य हैं।
  1. “एक है अष्टांगिक मार्ग विरोधी चित्त - प्रवृत्तियों को रोकना।
  1. “दूसरा हैं ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों को दबा देना, जो पहले से उत्पन्न हो गई हों।
  1. “तीसरा है ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों को उत्पन्न करना जो अष्टांगिक मार्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हों।
  1. "चौथा है ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों का और अधिक विकास करना और पहले से उत्पन्न चित - प्रवृत्तियों में वृद्धि करना।"
  • सम्मासति (सम्यक स्मृति) जागरूकता और विचारशीलता का आहान करती है। इसका यह मन की सतत जागरूकता बुरी भावनाओं (विचारों) के विरुद्ध चित्त द्वारा निगरानी करना सम्यक स्म्रुति का दूसरा नाम है ।
  • “हे परिव्राजको ! सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि), सम्मासंकप्पो (सम्यक संकल्प), सम्मावाचा (= सम्यक वाणी), सम्माकम्मन्तो (= सम्यक कर्मांत), सम्माआजीवो (= सम्यक आजीविका ), सम्मावायामो (= सम्यक व्यायाम), सम्मासति (= सम्यक स्मृति) और सम्मासमाधि (= सम्यक समाधि) प्राप्त करने की चेष्टा करने वाले व्यक्ति के मार्ग में ‘पञ्च - नीवरण’ पांच बंधन अथवा बाधाएं आती हैं । 
  • “ये पांच बाधाएं हैं लोभ, द्वेष, आलस्य, विचिकित्सा (संशय) तथा अनिश्चय। इसलिए इन बाधाओं पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि वे वास्तव में बंधन हैं और इन पर विजय पाने का माध्यम समाधि ही है। लेकिन परिव्राजको ! यह समझ लो कि ‘ सम्मासमाधि ( सम्यक समाधि ) वही नहीं जो समाधि है। यह उससे बिलकुल भिन्न है।
  •  “समाधि तो चित्त की एकाग्रता मात्र है । इसमें संदेह नहीं कि यह ध्यान की अवस्था में ले जाती है , जो स्वयं प्रेरित होती है और पांचों संयोजनों या बंधनों को निलंबित रखती है । 
  • “लेकिन ध्यान की ये अवस्थाएं अस्थायी हैं। परिणामस्वरूप संयोजनों का निलंबन भी अस्थायी है। आवश्यकता है चित्त को स्थायी रूप से एकाग्र करने की । चित्त की ऐसी स्थायी एकाग्रता सम्यक समाधि द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । 
  • “अकेली समाधि एक नकारात्मक स्थिति है , क्योंकि यह केवल संयोजनों को अस्थायी तौर पर निलंबित करती है। इसमें मन के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं है। सम्यक समाधि सकारात्मक है। एकाग्रता के समय यह मन को एकाग्र करने के लिए प्रशिक्षित करती है। और कुशल कर्म के लिए प्रेरित करती है। यह संयोजनोत्पन्न अकुशल कर्मों (अकुशल कार्य और अकुशल विचार) की ओर मन के आकर्षित होने की प्रवृत्ति को ही नष्ट कर देती है। 
  • “सम्मासमाधि ( सम्यक समाधि ) मन को सदा कुशल कर्म के बारे में सोचने के लिए अभ्यस्त करती है। सम्यक समाधि मन को कुशल कर्म करने के लिए अपेक्षित शक्ति देती है।”
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

May 28, 2019

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - निर्मलता का पथ


परिव्राजकों ने बुद्ध से अपने धम्म की व्याख्या करने का निवेदन किया।
  • बुद्ध ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। 
  • उन्होंने सब से पहले उन्हें निर्मलता का पथ ही समझाया।
  •  उन्होंने परिव्राजकों से कहा, “निर्मलता का पथ यह सिखाता है कि जो मनुष्य अच्छा बनना चाहता है उसके लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन के आदर्शों का कोई मापदंड स्वीकार करे । 
  • “मेरे निर्मलता के पथ के अनुसार अच्छे जीवन आदर्श के पांच मान्य मापदंड हैं (i) किसी को हताहत व हिंसा न करना, (ii) चोरी न करना अर्थात दूसरे की चीज़ को अपनी न बना लेना, (iii) व्यभिचार न करना, (iv) झूठ न बोलना और (v) नशीली वस्तुओं का सेवन न करना।

  • “ मेरा कहना है कि हर मनुष्य के लिए इन पांच सीलों को स्वीकार करना | परमावश्यक है क्योंकि हर मनुष्य के लिए जीवन का कोई मापदंड होना चाहिए, जिससे वह अपने कुशल-अकुशल कर्म (अच्छाई - बुराई ) को माप सके और ये सिद्धांत मेरी शिक्षाओं के अनुसार जीवन की अच्छाई - बुराई के मापदंड हैं । 
  • “ संसार में हर जगह पतित ( गिरे हुए ) लोग होते हैं । लेकिन पतित दो तरह के होते हैं — एक पतित तो वे होते हैं जिनके जीवन का कोई मापदंड होता है , दूसरे पतित वे होते हैं जिनके जीवन का कोई मापदंड ही नहीं होता। 
  • “जिस पतित के जीवन का कोई मापदंड नहीं होता वह यह नहीं जानता कि वह ‘पतित’ है । परिणामस्वरूप वह हमेशा ‘ पतित ' ही रहता है। दूसरी ओर जिस पतित के जीवन का कोई मापदंड होता है वह अपनी पतितावस्था से ऊपर उठने का प्रयत्न करता है। ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यही है कि वह जानता है कि वह पतित है, गिरा हुआ है । 
  • “मनुष्य के जीवन को नियमित करने के लिए मापदंड के होने और न होने में यही अंतर है। मनुष्य का स्तर से नीचे गिर जाना इतनी बड़ी बात नहीं है जितनी कि किसी स्तर का अभाव होना । 
  • “हे परिव्राजको! तुम पूछ सकते हो कि इन पांच सीलों (आदर्शो) का जीवन के मापदंड के रूप में स्वीकार किया जाना क्यों अच्छा है। 
  • “इस प्रश्न का उत्तर तुम्हें स्वयं ही मिल जाएगा यदि तुम अपने से ही यह प्रश्न पूछो, “ क्या यह पांच सील (आदर्श) व्यक्ति के लिए कल्याणकारी है ?" साथ ही तुम यह भी पूछो, “ क्या ये पांच सील (आदर्श) सामाजिक कल्याण को प्रोत्साहित करते हैं ? " 
  • “यदि इन दोनों प्रश्नों का तुम्हारा उत्तर सकारात्मक है, तो इसका अर्थ है कि मेरे निर्मलता के पथ के ये पांच सील (आदर्श) जीवन के सच्चे मापदंड के रूप में मानने योग्य हैं । ”
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश

ज्ञान प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ने  सारनाथ मे , अपने उन पांच साथियो को उपदेश देने का निर्णय किया,  जो तपस्या करते समय निरज्जना नदी के तट पर उनके साथ थे, और जो सिद्धार्थ गौतम द्वारा तपस्या और काय-कलेश का पथ त्याग देने पर क्रोधित होकर उन्हे छोड्कर चले गए थे.. 
  • कुशल क्षेम को बाते करने के बाद बुद्ध से परिव्राजकों ने प्रश्न किया कि क्या अब भी तपश्चर्या तथा कार्य-क्लेश में उनका विश्वास था।  बुद्ध का उत्तर नकारात्मक था। 
  • बुद्ध ने कहा, दो सिरे की बाते थी, एक काम भोग का जीवन और दूसरा कार्य-क्लेश का जीवन। 
  • एक का कहना है, खाओ पीयो मौज उड़ाओ क्योंकि कल तो मर ही जाना है। दूसरे का कहना है , सभी वासनाओं ( इच्छाओं ) का मूलोच्छेद कर दो क्योंकि वे पुनर्जन्म का कारण हैं। उन्होंने दोनों को मनुष्य के योग्य नहीं माना। 
  • वे मध्यम - मार्ग ( मज्झिम पटिपदा ) को मानने वाले थे, जो कि न तो काम-भोग का मार्ग है और न कार्य- क्लेश का मार्ग है ।
  • बुद्ध ने परिव्राजकों से कहा," मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो कि जब तक तुम्हारे मन में सांसारिक अथवा अलौकिक भोगों की कामना बनी रहेगी , क्या तुम्हारा समस्त कार्य - क्लेश व्यर्थ नहीं होगा ? उन्होंने उत्तर दिया, "जैसा आप कहते हैं वैसा ही है ।" 
  • "काय - क्लेश का शोक - संतप्त जीवन गुजारने से आप काम- तृष्णा की अग्नि से कैसे मुक्त हो सकते हैं ?" उन्होंने उत्तर दिया , "जैसा आप कहते हैं वैसा ही है।"
  • "जब आप अपने आप पर विजय पा लेंगे तभी आप कामतृष्णा की अग्नि से मुक्त होंगे, तब आप में सांसारिक काम -भोग की कामना न रहेगी और तब आपकी स्वाभाविक इच्छाएं आपको दूषित नहीं करेंगी। आपको अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के अनुसार ही खाना - पीना ग्रहण करना चाहिए। "
  • "सभी तरह की विषयासक्ति कमजोर बनाती है । विषयों में आसक्त प्राणी वासनाओं का गुलाम होता है । सभी काम - भोगों की इच्छा करना अपमानजनक और अभद्र है । लेकिन मैं तुम्हें कहता हूं कि शरीर की स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति करना बुराई नहीं है । शरीर को स्वस्थ बनाए रखना एक कर्तव्य है। अन्यथा आप अपने मनोबल को दृढ़ और स्वच्छ नहीं बनाए रख सकेंगे और पज्जा ( प्रज्ञा ) रूपी प्रदीप भी प्रज्वलित नहीं कर सकेंगे।"

  • "हे परिव्राजको ! ये दो अंत की बातें हैं जिससे प्राणी को सदा बचना चाहिए - एक ओर उन चीजों में संलग्न रहने की आदत से जिनका आकर्षण वासनाओं एवं मुख्यतः विषयासक्ति पर निर्भर करता है - यह संतुष्टि प्राप्त करने का निम्नकोटि का तथा विधर्मी मार्ग है ; अयोग्य है , हानिकारक है तथा दूसरी ओर आदत के अनुसार इसका अभ्यास , तपश्चर्या अथवा काय - क्लेश जो दुखदायी है , अयोग्य है तथा हानिकर है ।
  • "इन दोनों सिरे की बातों से अलग एक मध्यम मार्ग है । यह समझ लो कि यही मार्ग है, जिसकी में देसना देता हूं ।"
  • पांचों परिव्राजकों ने उनकी बात ध्यान से सुनी । यह न जानते हुए कि बुद्ध के मध्यम मार्ग का क्या उत्तर दें , उन्होंने प्रश्न किया , " जब हम आपको छोड़कर चले आए थे तो उसके बाद आप क्या करते रहे ?" तब बुद्ध ने उन्हें बताया कि किस प्रकार वह बोधगया पहुंचे, कैसे उस पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बैठे और किस प्रकार लगातार चार सप्ताह के ध्यान के बाद उन्हें वह सम्बोधि प्राप्त हुई जिससे वह नए मार्ग का आविष्कार कर सके । 
  • यह सुनकर परिव्राजक उस नए मार्ग के बारे में जानने के लिए अत्यंत अधीर हो उठे । उन्होंने बुद्ध से निवेदन किया कि वे उन्हें विस्तार से बताएं । 
  • बुद्ध ने स्वीकार किया ।
  • बुद्ध ने बात आरंभ करते हुए बताया कि, उनका मार्ग जो सद्धम्म है, उसे आत्मा और परमात्मा से कुछ लेना - देना नहीं है। उनके सद्धम्म को इस बात से कोई सरोकार नहीं कि मरने के बाद जीवन का क्या होता है। उनके सद्धम्म को कर्म - कांड के क्रिया-कलापों से भी कुछ लेना-देना नहीं है। 
  • बुद्ध के धम्म का केंद्र बिंदु मनुष्य है और इस पृथ्वी पर अपने जीवन काल में एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ सम्बंध का होना है ।

  • बुद्ध ने कहा, यह उनका प्रथम आधारतत्त्व ( अभिधारणा ) है ।
  • उनका दूसरा आधारतत्त्व था कि प्राणी दुख, कष्ट और दरिद्रता में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। संसार दुख से भरा है और धम्म का उद्देश्य मात्र यही है कि संसार के इस दुख को कैसे दूर किया जाए। इसके अतिरिक्त सद्धम्म और कुछ नहीं है।
  • दुख के अस्तित्व की स्वीकृति और दुख को दूर करने का मार्ग दिखाना ही उनके धम्म का आधार है । 
  • धम्म के लिए एकमात्र यही सही आधार और औचित्य हो सकता है । जो धर्म इस बात को स्वीकार नहीं करता, वह धर्म ही नहीं है । 
  • “ हे परिव्राजको ! वास्तव में जो भी समण ( धम्मोपदेशक ) यह नहीं समझते कि संसार में दुख है और उस दुख को दूर करना ही धम्म की प्रमुख समस्या है, मेरे विचार में उन्हें समण ही नहीं मानना चाहिए । न ही वे समझने वाले हैं और न ही यह जान पाए हैं कि इस जीवन में धम्म का सही अर्थ क्या है ।"
  • तब परिव्राजकों ने पूछा, “यदि आपके धम्म का आधार दुख का अस्तित्व और उसे दूर करना है, तब हमें बताइए कि आप का धम्म दुख का नाश कैसे करता है।"
  • तब बुद्ध ने उन्हें समझाया कि उनके धम्म के अनुसार यदि हर मनुष्य ( i ) पवित्रता के पथ पर चले, ( ii ) धम्म परायणता के पथ पर चले, ( iii ) सील-मार्ग पर चले, तो इससे सभी दुखों का अंत हो जाएगा। 
  • और उन्होंने आगे कहा कि उन्होंने ऐसे धम्म का आविष्कार कर लिया है।
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

मेरे लिए टाटा बिरला पैदा करना बाएं हाथ का खेल है!! - साहब कांशी राम

"अगर मेरे समाज का हर शख़्स महीने में एक व्रत रखकर मुझे 10 रुपए दे तो मैं हर महीने एक टाटा बिरला पैदा कर दूंगा।" -- साहब कांशी राम।

BANGA(PAMMI LALOMAJARA): एक बार एक पत्रकार ने जब साहब को ये सवाल किया कि पार्टियां चलानी और चुनाव लड़ना बहुत ही ज़्यादा मुश्किल काम है। क्यों6कि ना तो आप की पार्टी में कोई भी टाटा बिरला है जो पैसे से आपकी मदद करे और ना ही कोई साधन जिसके साथ आप आगे बढ़ सकें।

साहब का पत्रकार को बड़ा दलील पूर्ण जवाब था कि, "मैं सीमित साधनों के साथ आगे बढ़ने में माहिर हूँ। दूसरा सबसे पहले साईकल मैंने ही चलाया था तांकि वर्करों में ये संदेश ना जाए कि कांशी राम खुद गाड़ियों और जहाजों में घूमता है और हमें साईकल पर घूमने को कहता है। तीसरा इस वक्त मेरे समाज की आबादी 80 करोड़ से भी ऊपर हो चुकी है। 
अगर मेरे समाज का हर व्यक्ति महीने में एक बार व्रत रखकर(बुरे से बुरा खाना जिसकी कीमित महज 10 रुपये हो) वही 10 रुपये मुझे दे तो मेरे पास 800 करोड़ रुपया जमा हो जाएगा, जिससे मैं एक महीने में एक टाटा बिरला पैदा कर सकता हूँ।और अगर 12 महीने में 12 वार व्रत रखें तो मैं 1 साल में 12 टाटा बिरला पैदा कर दूंगा। मेरे लिए टाटा बिरला पैदा करना बाएं हाथ का खेल है, बशर्ते की मेरा समाज इकठा हो जाए। 
वैसे भी व्रत रखने से किसी के प्राण थोड़ा निकल जाते हैं,बल्कि पेट का सिस्टम सही हो जाता है।"

(किताब "मैं कांशी राम बोलदा हां" में से)

May 27, 2019

त्यागमुर्ति माता रमाबाई आंबेड्कर

परमपूज्य बोधिसत्व भारत रत्न बाबासाहेब अम्बेडकर जी को महापुरुष,युग प्रवर्तक बनाने वाली,परमपूज्यनीय त्याग समर्पण महान शख्सियत की प्रतीक महिलाओं के संघर्षो की मिशाल महानायिका राष्ट्रमाता रमाई अंबेडकर जी के परिनिर्वाण दिवस पर शत्-शत् नमन एंव विनम्र श्रद्धांजलि !!

परमपूज्यनीय त्याग समर्पण महान शख्सियत की प्रतीक महिलाओं के संघर्षो की मिशाल माता रमाई अंबेडकर जी के परिनिर्वाण दिवस पर उनके संघर्षो,त्याग को शत्-शत् नमन एंव विनम्र श्रद्धांजलि !!

आवो जाने ऐसी नारी शक्ति को जिनके त्याग समर्पण समाज के प्रति निष्ठा की बदौलत बहुजन समाज, सर्व समाज की नारी शक्ति को भारत वर्ष में सम्मान से जीने का अधिकार मिला वो है परमपूज्यनीय त्याग भावना की मूर्ति माता रमाई अंबेडकर जी.. 

परमपूज्य बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाई का ही साथ था ! साथियों आज हमारी महिलाओ (चाहे वे किसी भी धर्म या जाति समुदाय से हो) को माता रमाबाई अंबेडकर जी पर गर्व होना चाहिए कि किन परिस्थितियों में उन्होंने बाबा साहेब का मनोबल बढ़ाये रखा और उनके हर फैसले में उनका साथ देती रही। खुद अपना जीवन घोर कष्ट में बिताया और बाबा साहेब की मदद करती रही !

प्रत्येक महापुरुष की सफलता के पीछे उसकी जीवनसंगिनी का बहुत बड़ा हाथ होता है जीवनसंगिनी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो शायद,वह व्यक्ति,महापुरुष ही नहीं बन पाता ! आई साहेब रमाबाई अंबेडकर इसी तरह के त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थी !

माता रमाबाई अंबेडकर जी का जीवन परिचय: 

साथियों माता रमाई जी का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता भिकु धुत्रे (वलंगकर) व माता रुक्मिणी इनके साथ रमाबाई दाभोल के पास वंणदगांव में नदी किनारे महारपुरा बस्ती में रहती थी। उन्हे ३ बहन व एक भाई - शंकर था। रमाबाई की बडी बहन दापोली में रहती थी, रमाई के बचपन का नाम रामी था..  रामी के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था. रामी की दो बहने और एक भाई था, भाई का नाम शंकर था.. बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई में रहने लगे थे !

बाबा साहेब अम्बेडकर जी प्रेम से माता रमाबाई को "रमो" कहकर पुकारा करते थे, दिसंबर 1940 में बाबा साहेब अम्बेडकर जी ने "थॉट्स ऑफ पाकिस्तान" पुस्तक लिखी यह पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी "रमो" को ही भेंट की !

भेंट के शब्द इस प्रकार थे, 
"मै यह पुस्तक "रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, त्याग समर्पण की भावना, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं !"
उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाई ने बाबा साहेब जी का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ दिया और बाबासाहब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था ! बाबा साहेब भी ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे, जिन्हें रमाई जैसी बहुत ही नेक जीवन साथी मिली !

माता रमाई अपने पति के प्रयत्न से कुछ लिखना पढ़ना भी सीख गई थी. साधारणतः महापुरुषों के जीवन में यह एक सुखद बात होती रही है कि उन्हें जीवन साथी बहुत ही साधारण और अच्छे मिलते रहे! माता रमाबाई कर्मठता की मूर्ति थीं! वह अपने पति के जनहितकारी कार्यों में यथायोग्य उनका साथ देती थी !

माता रमाई ने 5 संतानों को जन्म दिया नाम थे: यशवंतराव, गंगाधर, रमेश, इंदू और राज रत्न.. 

गरीबी किसी को ना सताए ! धन अभाव के कारण जब भोजन ही भरपेट नहीं मिलता था ! तब दवा-दारू के लिए पैसे कहाँ से आते इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि यशवंतराव के अलावा सभी बच्चे अकाल ही काल कलवित हो गए !

दूसरे पुत्र गंगाधर के निधन की दर्द भरी कहानी डॉक्टर अंबेडकर ने इस प्रकार बतलाई थी, 
दूसरा लड़का गंगाधर हुआ,जो देखने में बहुत सुंदर था ! वह अचानक बीमार हो गया दवा दारू के लिए पैसा ना था ! उसकी बीमारी से तो एक बार मेरा मन भी डावांडोल हो गया कि मैं सरकारी नौकरी लूं,फिर मुझे विचार आया कि अगर मैंने नौकरी कर ली तो उन करोड़ो अछूतों का क्या होगा जो गंगाधर से ज्यादा बीमार है ठीक प्रकार से इलाज ना होने के कारण वह नन्ना सा बच्चा ढाई साल की आयु में चल बसा ! गमी में लोग आए बच्चे के मृत शरीर को ढकने के लिए नया कपड़ा लाने के लिए पैसे मांगे लेकिन मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं कफन खरीद सकूँ ! अंत में मेरी प्यारी पत्नी रामू ने अपनी साड़ी में से एक टुकड़ा फाड़ कर दिया उसी में ढंक कर उसे श्मशान पर लोग लेकर गए हैं और दफना आये, ऐसी थी मेरी आर्थिक स्थिति!!
पांचवा बच्चा राज रत्न बहुत प्यारा था.. रमाई ने उसकी देखरेख में कोई कमी नहीं आने दी ! अचानक जुलाई 1926 में उसे डबल निमोनिया हो गया , काफी इलाज करने पर भी 19 जुलाई 1926 को दोनों को बिलखते छोड़ वह भी चल बसा.. माता रमाबाई को इससे बहुत सदमा पहुंचा और वह बीमार रहने लगे.. धीरे-धीर पुत्र शोक कम हुआ तो बाबा साहब भीमराव अंबेडकर महाड सत्याग्रह में जुट गये ! महाड में विरोधियों ने षडयंत्र कर उन्हें मार डालने की योजना बनाई यह सुनकर माता रमाई ने महाड़ सत्याग्रह में अपने पति के साथ रहने की अभिलाषा व्यक्त की !

जहाँ इतनी गरीबी का जीवन जी रही थी! वहीं आत्मसम्मान भी उनमें में कूट-कूट कर भरा था ! एक दिन बाबासाहेब आंबेडकर जी कॉलेज में पढ़ाने के लिए जाते समय रमाबाई को खर्च के लिए पैसा देना भूल गए ! रात को जब वापस लौटे तो देखा कि कमरे में दिया नहीं जल रहा है कमरे में अंधेरा देख बाबासाहेब ने पूछा रामू आज दिया क्यों नहीं जलाया" जाते समय आप पैसा देना भूल गए थे, रमाबाई ने धीरे से कहा ! बाबा साहब ने पुनः कहा पड़ोस में किसी से मिट्टी का तेल और दियासलाई की तीली मांगकर कमरे में कम से कम दिया तो जला देती ! माता रमाबाई ने उत्तर दिया किसी से मांग कर गुजारा करना मैं अच्छा नहीं मानती!अगर ऐसा होता तो आप भी सरकारी नौकरी करके हम सबको सुखी बना सकते थे !

साथियों मां रमाई कहा मेरा भी दृढ़ निश्चय कुछ और है मैं पड़ोसियों से मांग कर जीने की बजाय भूखी रहना ज्यादा पसंद करती हूं ! मेरा भी स्वाभिमानपूर्ण जीवन है ! बाबासाहेब अंबेडकर जी ने अपनी लेखनी से दर्जनों ग्रंथों की रचना की ! अपने कठिन परिश्रम और दृढ़ संकल्प से समृद्धि संपन्न महापुरूष बने !

बंबई के दादर मोहल्ले में उन्होंने राजगृह नामक विशाल भवन का निर्माण करवाया, अब माता रमाबाई परेल से राजगृह आ गई ! लेकिन चिंता और शोक से उनका जो शरीर जर्जर हो गया था वह कभी ठीक न हो सका !

27 मई 1935 को उन पर शोक और दुःख का पर्वत ही टूट पड़ा ! उस दिन नृशंस मृत्यु ने उनसे उनकी पत्नी रमाबाई को छीन लिया। बीस हजार से अधिक लोग माता रमाबाई के परिनिर्वाण में शामिल हुए थे !

जालिमों से लड़ती भीम की रमाई थी,
 मजलूमों को बढ़ के जो आँचल उढ़ाई थी;
 एक तरफ फूले सावित्री थे साथ लड़े,
 भीम साथ वैसे मेरी रमाई थी!!









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माता रमाबाई आंबेडकर कि जिवनी पढ्ने के लिए निचे कि लिंक पर क्लिक करे.. रमाबाई आंबेड्कर

May 20, 2019

धम्म और धर्म का भेद

धर्म एक अनिश्चित शब्द है जिसका कोई स्थिर अर्थ नही है, किन्तु इसके अर्थ अनेक है.. इसका कारण है धर्म बहुत सी अवस्थाओं से होकर गुजरा है। हर अवस्था मे हम उस मान्यता विशेष को धर्म ही कहते रहे है। निसन्देह हर एक समय कि मान्यता अपने से पूर्व की मान्यताओ से भिन्न रही है। धर्म की कल्पना भी कभी स्थिर नही रही है यह. हर समय बदलती चली आयी है..

एक समय था जब बिजली वर्षा और बाढ की घटनाये आम आदमी की समझ से सर्वथा परे की बात थी, इन सब पर काबू पाने के लिये जो भी कुछ टोना टुटका किया जाता था, उस समय धर्म और जादू एक ही चीज के दो नाम थे। धर्म के विकाश मे दूसरा समय आया,  इस समय धर्म का मतलब था आदमी के विश्वास, धार्मिक कर्मकाण्ड, रीति रिवाज, प्रार्थनाये और बलियो वाले यज्ञ.. 

लेकिन धर्म का स्वरुप व्युत्पन्न है। धर्म का केन्द्रबिन्दु इस विश्वास पर निर्भर करता है कि कोई शक्ति विशेष है जिनके कारण ये सभी घटनाये घटती है और जो आदमी की समझ से परे की बात है। अब इस अवस्था मे पहुँच कर जादू का प्रभाव जाता रहा। आरंभ मे यह शक्ति शैतान के रुप मे थी किन्तु बाद मे यह माना जाने लगा कि शिव( कल्याण) रुप हो सकती है । तरह- तरह के विश्वास, कर्मकाण्ड. शिव स्वरुप शक्ति को प्रसन्न करने के लिये एवं क्रोध रुपी शक्ति को सन्तुष्ट रखने के लिये आवश्यक थे आगे चलकर वही शक्ति ईश्वर, परमात्मा या दुनिया को बनाने वाली कहलाई।

तब धर्म की मान्यता ने तीसरी शक्ल ग्रहण की तब यह माने जाने लगा कि इस एक ही शक्ति ने आदमी और दुनिया बनाया है, यानि दोनो को पैदा किया है। इसके बाद धर्म की मान्यता मे एक बात और भी शामिल हो गयी कि हर आदमी के शरीर मे एक आत्मा है और आदमी जो भी भला और बुरा काम करता है, उस आत्मा को ईश्वर के प्रति उत्तरदायी रहना पडता है.. यही धर्म की मान्यता के विकास का इतिहास है। अब धर्म का यही अर्थ हो गया है या धर्म से यही भावार्थ ग्रहण किया जाता है कि ईश्वर मे विश्वास, आत्मा मे विश्वास, ईस्वर की पूजा, आत्मा मे सुधार, प्रार्थना आदि करके ईस्वर को प्रसन्न रखना।

तथागत गौतम बुद्ध जिसे धम्म कहते है वह धर्म से सर्वथा भिन्न है.. कहा जाता है कि धर्म या रिलिजन व्यक्तिगत चीज है और आदमी को अपने तक सिमित रखना चाहिये। इसे सार्वजनिक जीवन मे बिल्कुल दखल नही देना चाहिये जबकि धम्म एक सामाजिक वस्तु है धम्म का मतलब है सदाचरण। जिसका मतलब है जीवन के सभी क्षेत्रों मे एक आदमी का दुसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार। इससे स्पष्ट होता है कि यदि कही एक आदमी अकेला ही हो तो उसे किसी धम्म की आवश्यकता नही लेकिन कही दो आदमी एक साथ रहते हो तो वो चाहे या ना चाहे धम्म के लिये जगह बनानी ही होगी। दोनो मे से कोई एक बचकर नही जा सकता। दूसरे शब्दो मे धम्म के बिना समाज का काम नही चल सकता।

तथागत के अनुशार धम्म के दो प्रधान तत्व है प्रज्ञा और करुणा। प्रज्ञा का मतलब है बुद्धि (निर्मल बुद्धि).. बुद्ध ने प्रज्ञा को सर्वप्रथम इसलिये माना है क्योंकि वे नही चाहते थे कि मिथ्या विश्वासों के लिये कही कोई गुन्जाईश बची रहे.. दूसरा करुणा जिसका मतलब है दया, मैत्री, प्रेम इसके बिना न समाज रह सकता है न समाज की उन्नति हो सकती है  तथागत की धम्म देशना का यही उद्देश्य है कि जो धम्म के अनुसार आचरण करेगा वह अपने दु:ख का नाश करेगा.. 

जबकि धर्म का सरोकार ईश्वर और सृष्टि से है और धम्म का इन सब वातो से कोई सरोकार नही..  उनका कहना है कि ईश्वर कहाँ है ,सन्सार असीम है आत्मा और शरीर एक है, इन प्रश्नो के उत्तर मे जाने से किसी को कोई लाभ होने वाला नही है.. इनका धम्म से कोई भी सम्बन्ध नही है, इनसे आदमी का आचरण सुधारने मे कुछ भी सहायता नही मिलती, इनसे विराग नही बढता, इनसे राग द्वेष से मुक्ति लाभ नही मिलता, इससे विद्या ( ज्ञान) प्राप्त नही होता।

तथागत ने बताया कि दु:ख क्या है ,दु:ख का मूल कारण क्या है, दु:ख को रोकने का मार्ग क्या है, इनसे लोगो को लाभ है, इनसे आदमी को अपना आचरण सुधारने मे सहायता मिलती है, राग द्वेष से मुक्ति मिलती है, इसे शान्ति मिलती है विद्या प्राप्त होती है और ये निर्वाण ( मोक्ष ) की ओर अग्रसर होते है।

नैतिकता का धर्म और रेलिजिन मे कोई स्थान नही है। नैतिकता धर्म का मूलाधार नही है यह एक रेल के उस डिब्बे के समान है कि जब चाहे इन्जन मे जोड दिया जाये और जब चाहे पृथक कर दिया जाये अर्थात धर्म मे नैतिकता का स्थान आकस्मिक है ताकि व्यवस्था और शान्ति मे उपयोगी सिद्ध हो सके।
जबकि धम्म मे नैतिकता का स्थान है दुसरे शब्दो मे धम्म ही नैतिकता है अथवा नैतिकता ही धम्म है । यद्यपि धम्म मे ईश्वर के लिये कोई स्थान नही है तो भी धम्म मे नैतिकता का वही स्थान है जो धर्म मे ईश्वर का। धम्म मे जो नैतिकता है उसका सीधा मूल श्रोत आदमी को आदमी से मैत्री करने की जो आवश्यकता है वही है.. अपने भले के लिये अथवा दुसरे के भले के लिये यह आवश्यक है कि वह धम्म का आचरण कर मैत्री करे।

हर कोई जानता है कि मानव समाज का जो विकाश हुआ है वह जीवन सन्घर्ष के कारण हुआ क्योकि आरम्भिक युग मे भोजन ,सामग्री बडी सिमित मात्रा मे थी जिससे भयानक सन्घर्ष रहा और योग्यतम/ श्रेष्ठतम ही बचा रहा। मानव की मूल अवस्था ऎसी ही रही। किन्तु क्या योग्यतम( सबसे अधिक शक्ति सम्पन्न) ही श्रेष्ठतम माना जाना चाहिये, क्या जो निर्बलतम है उसे भी सरक्षण देकर यदि बचाया जाये तो क्या यह आगे चलकर समाज के हित की दृष्टि से अच्छा सिद्ध नही होगा ?


अप्प दिपो भव..
भवतु सब्ब मङ्गलम्..

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