July 27, 2018

बाबासाहब ने कार्ल मार्क्स का मार्ग क्यों नहीं अपनाया ?

मार्क्सवाद अथवा कम्युनिस्म का लक्ष्य केवल आर्थिक समानता है। मैं आर्थिक उन्नति का विरोधी नहीं हु। मेरा मत है की मनुष्य-मात्र की आर्थिक उन्नति होनी चाहिए। निर्धनता के कष्टों को मैं जानता हु। अपने पिता के निर्धनता के कारन मैंने जितना कष्ट सहन किया है, उतना बहुत कम लोगों ने सहा होगा इसलिए गरीबों का जीवन जितना कष्टमय होता है, इसे मैं भलीभांति जानता हु। किन्तु मेरा विश्वास है की आर्थिक उन्नति के साथ मानसिक उन्नति भी होनी चाहिए, जिसके लिए धर्म की आवश्यकता है। कार्लमार्क्स के सिद्धांत में धर्म का कोई महत्व नहीं है। उनका धर्म केवल यह है कि उन्हें प्रातः काल मक्खन लगे टोस्ट और दोपहर स्वादिष्ट भोजन, सोने के लिए बढिया बिस्तर और देखने के लिए सिनेमा मिले। मैं कम्युनिस्टों के निरेभौतिक और जड़ तत्वज्ञान का हामी नहीं हूं। इस संबंध में मेरे अपने विचार हैं। मेरे अपने विचार से पशुओं और मनुष्यों में अंतर है। पशुओं को चारे के सिवाय किसी और चीज की जरूरत नहीं होती किंतु मानव शरीर के साथ मन भी है। मन का विकास जरूरी है। मन को पवित्र और सुसंस्कृत रखने के लिए धर्म की आवश्यकता है। जिस प्रकार शरीर का निरोग होना जरूरी है, उसी प्रकार शरीर को सुदृढ और नियंत्रित रखने के लिए मन सुसंस्कृत होना आवश्यक है अन्यथा यह कहना ही व्यर्थ होगा कि मनुष्य उन्नति कर रहा है।




अब क्या हमें मार्क्स को अपना के मक्खन लगे टोस्ट, स्वादिष्ट भोजन, अच्छा बिस्तर और सिनेमा (रोटी, कपड़ा और मकान) ही चाहिए ?

जब बाबासाहब हमें सब कुछ देकर गए है, उनकी वजह से आज हम शिक्षित हो पाए है, आज हमें रहने के लिए मकान, खाने के लिए रोटी और रोजगार, नौकरी मिले है। बोलने का भी जो अधिकार है, फिर वह चाहे स्टेज पे जा के भाषण देने का अधिकार हो या नारे लगाने का, यह सिर्फ और सिर्फ बाबासाहेब ने दिलवाया है। तो फिर अभी भी क्यों हम उनके विचारों को पूर्णतः नहीं अपनाते ? क्या सिर्फ रोटी, कपड़ा, मकान और जमीन ही हमारी आवश्यकता है ? अरे जिस कानून से हम जमीन की मांग करते है वो कानून भी हमें बाबासाहेब ने दिया है। अगर आप बाबासाहेब को नहीं समझे तो फिर कृपया बाबासाहेब के नाम का गलत प्रयोग न करें। हमारे लिए मार्क्सवादी विचारधारा नहीं अपितु आंबेडकरी विचारधारा ही मूलतः और संपूर्ण आवश्यक है। सिर्फ आंबेडकरी विचारों से ही हमारा उद्धार हो सकता है। रास्ता भटके हुए समाज के युवा, कर्मशीलो और ऑफिसरों को जल्द ही जल्द बाबासाहेब को समझना चाहिए और समाज को मार्क्सवादी विचारों से होनेवाले नुकसान से बचाना चाहिए। जल्द ही घरवापसी कर लो हम आपके साथ है।

(स्त्रोत: धर्मान्तरण क्यों ? - डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर)

सन्दर्भ पुस्तके पढने व् डाऊनलोड करने के लिए निचे नाम पर क्लिक करे : 
बुद्ध और कार्ल मार्क्स - बाबासाहब डॉ आंबेडकर
धर्मान्तरण क्यों? - बाबासाहब डॉ आम्बेडकर

क्या है धम्म-चक्क-प्रवर्तन दिवस?

बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद तथागत ने जब कष्टो और शोक में डूबी हुई मानवता के दुःखो के बारे में सोचा तो उनका हृदय करुणा से भर गया । उन्हों ने निश्चय किया कि जिस धम्म के मार्ग का उन्होंने आविष्कार किया है उसे वो सभी मनुष्यों तक पहुंचाएंगे । इस निर्णय के साथ वे वाराणसी(सारनाथ) पहुंचे । सारनाथ के नजदीक मृगदाय वन में आषाढ़ी पूर्णिमा को अपने पुराने पांच साथी परिव्राजकों को धम्मचक्र प्रवर्तन सूत्र का उपदेश दीया। जिसमे चार आर्य सत्य और आर्य अष्टांगिक मार्ग का ज्ञान दिया । उन्होंने पांचो को भिक्खु की दीक्षा दी ।पंचवर्गीय भिक्खुओ की दीक्षा से भिक्खु संघ का जन्म हुआ । 

आज के दिन बनी इस ऐतिहासिक घटना को धम्मचक्र प्रवर्तन दिन के रूप में मनाया जाता है । बाबा साहब लिखते है कि बुद्ध का धम्म एक क्रांति थी । तथागत विश्व के पहले समाज सुधारक थे ।  मैं मानता हूं की ईस क्रांति का आज के दिन उदय हुआ है ।



क्रांति और प्रतिक्रांति ग्रंथ में बाबा साहब लिखते है की, तीन चीजो के विरुद्ध बुद्ध ने महान अभियान छेड़ा था ।
-उन्होंने वेदों की सत्ता को अस्वीकार किया
-उन्होंने धर्म के रूप में बलि(पशु और मानव )की निंदा की
- उन्होंने जाति-प्रथा की निंदा की ।



जाति प्रथा उस समय वर्तमान रूप में विद्यमान नहीं थी। अंतरजातीय भोजन और अंतरजातीय विवाह पर निषेध नहीं था।आज कि तरह कठोरता नही थी।किंतु असमानता का सिद्धांत जो कि जातिप्रथा का आधार है, उस समय सुस्थापित हो गया था और इसी सिद्धांत के विरुद्ध बुद्ध ने एक निश्चयात्मक और कठोर संघर्ष छेड़ा।

अन्य वर्गों पर अपना वर्चस्व बनाऐ रखने के लिए ब्राह्मणों के मिथ्याभिमान के वह कितने कट्टर विरोधी थे और उनके विरोध के आधार कितने विश्वासोत्पादक थे,उसका परिचय उनके बहुत से संवादों से प्राप्त होता है.. जाति के विरोध के मामले में बुद्ध ने जो शिक्षा दी, उसी को व्यवहार में भी लाए। उन्हों ने वही किया, जिसे आर्यो के समाज ने करने से इनकार कर दिया था । आर्यो के समाज मे शुद्र अथवा नीच जाति का मनुष्य कभी ब्राह्मण नहीं बन शकता था। किंतु बुद्ध ने जाति प्रथा के विरुद्ध केवल प्रचार ही नहीं किया,अर्पितु शुद्र तथा नीच जाति के लोगो को भिक्खु का दर्जा दिलाया, जिनका बौद्धमत में वही दर्जा है, जो ब्राह्मणवाद में ब्राह्मण का है ।

जिस प्रकार बुद्ध ने शुद्रो और नीच जाति के मनुष्यों को भिक्खुओ का सर्वोच्च दर्जा दिलाकर उनकी स्थिति को उन्नत किया, उसी प्रकार उन्हों ने स्त्रीओ की स्थिति को भी ऊंचा उठाया। आर्यो के समाज मे स्त्रीओ और शुद्रो को समान स्थिति प्रदान की गई थी । दोनों को सन्यास लेने का कोई अधिकार नहीं था ,जबकि सन्यास ही निर्वाण के लिए एक मात्र मार्ग था । स्त्रियां और शुद्र निर्वाण से परे थे । बुद्ध ने स्त्रीओ के विषय मे इस नियम को वैसे ही भंग किया, जिस प्रकार उन्होंने शुद्रो के मामले में किया था । जिस प्रकार एक शुद्र भिक्खु बन शकता था, उसी प्रकार एक स्त्री सन्यासिनी बन बन शकती थी। यह आर्यों के समाज की दृष्टि में उसे सर्वोच्च दर्जा प्रदान करना था।

बुद्ध ने आर्यो के समाज के नेताओ के विरुद्ध जिस अन्य प्रश्न पर लड़ाई लड़ी, वह अध्यापक और अध्यापन के शीलाचार का प्रश्न था । आर्यो के समाज के नेताओ की यह धारणा थी कि ज्ञान और शिक्षा का विशेषाधिकार ब्राह्मणों, क्षत्रियो और वैश्यों को प्राप्त है, शुद्रो को शिक्षा का अधिकार प्राप्त नहीं है। उनका आग्रह था कि अगर उन्हों ने स्त्रियों अथवा ऐसे पुरुषों को पढ़ाया जो द्विज नहीं है, तो इससे सामाजिक व्यवस्था के लिए भय उत्पन हो जाएगा। बुद्ध ने आर्यो के इस सिद्धांत की निंदा की ।

इस तरह बुद्ध की शिक्षा का आधार समानता ही है, जो समतामूलक समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है।धम्मचक्रप्रवर्तन दिन की मंगलकामनाओ के साथ, जय भीम नमो बुद्धाय.. 

- अनित्य बौद्ध (अपूर्ण)

बुद्ध, फुले, शाहू, पेरियार, आम्बेडकर का सच्चा वारिस...



बड़ा ताकतवर था वो शक्श,
जो आम्बेडकर को फिरसे
जिंदा कर गया!!

बुद्ध, फुले, शाहू,
पेरियार, आम्बेडकर का
सच्चा वारिस था वो,
जो उनके अधूरे मिशन को,
एक नए शिखर तक
पहुंचा गया!!

मिशन की खातिर
अपना सबकुछ
कुरबान वो कर गया!!

बड़ा धूनी था वो शक्स,
जो सेहरे के बदले
अपनी माँ से
कफन मांग गया!!

साइकिल पर निकला था
"साहब" वो अकेला,
जहाज़ में बैठने की हमारी
औक़ात वो बना गया;

बहुजन आंदोलन की अलख,
फिरसे वो जगा गया;
ताकत हमारे वोट की,
हमको वो समझा गया;

मांगनेवाले से उठाकर,
देनेवाला बना गया!!
जहाजो में उड़ने वाले
दुश्मनो को भी,
वो रास्ते पर चलने को
मजबूर कर गया!!

बहुत महान था वो शक्श,
जो हमे मिशन सीखा गया!!
जो "बहुजन नायक" कहा गया!!

फक्र है हमे की
उसके कैडर है हम
जो आम आदमी से
"मान्यवर साहब" बन गया!!

भीम रमा सावित्री फुले का
बेटा वो "कांशी"
त्याग की एक
नई मिसाल बना गया!!


- कुंदन बौद्ध

July 17, 2018

मै इसलिए खुश हूँ क्योंकि - साहब कांशीराम

घटना 1992 की है. साहेब चंडीगढ़ माता राम धीमान के घर रुके हुए थे. धीमान वह इंसान थे जिसे साहेब साथ लेकर सुबह के चार चार बजे तक सुखना झील के किनारे बैठकर सियासत के नक़्शे बनाते रहते थे. 

उस रात भी रात के करीब 11-12 बजे होंगे.साहेब बैठे बैठे अचानक हँस पड़े. धीमान ने पूछने की कोशिश की कि- साहेब जी अकेले अकेले क्यूँ हँस रहे हो? हंसने का कुछ कारण हमें भी बता दो. साहेब ने कहा- यदि हंसने का कारण जानना है तो चलो, सुखना झील चलते हैं. वहां झील के किनारे बैठकर बताऊँगा कि आज मुझे हंसी क्यूँ आ रही है. 

धीमान ने कहा- साहेब जी सिक्यूरिटी?
साहेब का हुक्म हुआ- सिक्यूरिटी यहीं रहेगी, सिर्फ हम दोनों ही चलेंगे. 

साहेब और धीमान सुखना झील के किनारे आ बैठे और साहेब ने मुस्कुराते हुए कहा, "आज मैं इसलिए खुश हूँ क्यूंकि मैं उत्तर प्रदेश में जो जूता मरम्मत करने का काम करता था उसे टिकट दी और वह भी जीत गया. जो मिटटी के बर्तन बनता था वह भी जीत गया. जो साइकिल को पंक्चर लगाता था वह भी एम् एल ए बन गया. मैंने चरवाहे को भी टिकट दी और वह भी जीत गया.

अब मैं यह सोचकर खुश हो रहा हूँ कि कल जब यह लोग कोट पेंट पहनकर नईं सरकारी गाड़ियों में बैठकर हाथों में डायरी पकड़ कर विधान सभा जाकर सौगंध लेंगें तब अजीब सा नज़ारा होगा... मानो जैसे यह लोग नर्कभरी ज़िन्दगी से निकलकर स्वर्ग में आ गए हों. वास्तव में यह वो मूलनिवासी लोग हैं जिनका कभी विधान सभा के सामने से गुज़रना तो दूर की बात, विधान सभा का नाम भी नहीं सुना होगा.

यह वो लोग हैं जो सदियों से मनुवादी लोगों की झिड़कीयाँ खाते आये हैं. और शायद अब वक़्त आ गया है कि ये लोग किसी मनुवादी अफसर की ऐसी की तैसी कर सकते हैं. इनमें से बहुत से लोगों ने अभी मंत्री बनना है. मेरा थोड़ा सा सपना पूरा हुआ है. लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है क्यूँकि ये तो अभी नाम मात्र का ट्रेलर भर है. फिल्म तो अभी बाकी है." इतना कहते ही साहेब की आँखों में आंसू आ गए.


जब मंत्री मंडल बनने का वक़्त आया तब जिन्हें कभी पेट भर रोटी नसीब नहीं हुई, साहेब ने उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार में फ़ूड सप्लाई मंत्री बनाने की सिफारिश की. और जिसके पास कभी साइकिल भी नहीं था उसे सरकार में ट्रांसपोर्ट मंत्री बनाने की सिफारिश की. और जिसके पास ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा भी नहीं था, खेतीबाड़ी मंत्री बना दिया. और जो झोंपड़ी में रहता था उसे आवास मंत्री बनाने की सिफारिश की. इसके साथ ही, इनके मंत्री बनते ही, साहेब ने इन सभी मंत्रियों को सख्त हिदायत भी दी कि, "अगर मुझे यह पता चला कि कोई मंत्री दो से अधिक सरकारी गाड़ियाँ अपने काफिले में साथ लिए फिरता है तो मैं उसे मंत्री के ओहदे से छुट्टी करके पैदल ही घर भेज दूंगा."

यहाँ इतिहासिक बात यह दर्ज करने वाली है कि, जितनी देर उत्तर प्रदेश में बसपा की समाजवादी पार्टी के साथ सांझी सरकार रही साहब ने कभी भी किसी लाल बत्ती वाली कार में सफ़र नहीं किया. वह जब भी उत्तर प्रदेश में किसी राजनीतिक दौरे पर या सरकारी कार्यक्रम में भाग लेने गए तब सिर्फ आम साधारण गाड़ी में ही गए.

- "मै कांशीराम बोल रहा हूँ"  किताब के अंश

July 13, 2018

युद्ध नही अब बुद्ध चाहिए!!



युद्ध नहीं अब बुद्ध चाहिए,
मानव का मन शुद्ध चाहिए।


सत्य, अहिंसा, विश्व बंधुता चाहिए,
करुणा और मैत्री का प्रसार चाहिए।
पंचशील अष्टांग मार्ग का,
पुनः जग में हो विस्तार।

समता, ममता और क्षमता से,
ऐसा वीर प्रबुद्ध चाहिए।
युद्ध नहीं अब बुद्ध चाहिए,
मानव का मन शुद्ध चाहिए।


कपट, कुटिलता, कामवासना घेर रही है मानव को,
कामाचार व दुराचार ने जन्म दिया है दानव को।
न्याय नियम का पालन हो अब,
सत्कर्मों की बुद्धि चाहिए।

युद्ध नहीं अब बुद्ध चाहिए,
मानव का मन शुद्ध चाहिए।

मंगलमय हो सब घर आँगन,
सब द्वार बजे शहनाइया।
शष्य श्यामल हो सब धरती,
मानवता ले अंगड़ाई।

मिटे दीनता हटे हीनता,
सारा जग समृद्ध चाहिए।
युद्ध नहीं हमको अब बुद्ध चाहिए,
मानव का मन शुद्ध चाहिए..


- अज्ञात

July 10, 2018

सातवीं बौद्ध संगीति भारत में !! - राजेश चन्द्रा

एक छोटी-सी घटना महान संगीति का कारण बनी। भगवान का धम्म हेतुवादी है, अहेतुक कुछ नहीं है। संगीति का भी हेतु बना, एक छोटी-सी घटना। घटना भी नकारात्मक है लेकिन परिणाम सकारात्मक है। भगवान के महापरिनिर्वाण का समाचार दुःख की एक महालहर की तरह चारो तरफ फैला था। जो कोई भी यह समाचार सुनता अपार दुःख से भर जाता, लेकिन सुभद्र नाम का एक व्यक्ति यह समाचार सुनते ही मारे खुशी के झूमने-सा लगा और बड़े प्रफुल्लित स्वर में कहने लगा- अच्छा हुआ कि बुड्ढा मर कर गया, हर समय 'यह करो-यह न करो' किया करता था, अब हमारा अनुशासन करने वाला कोई न रहा, अब हम स्वतंत्र हैं, अब जो मन में आए वह करो... यह स्वर महाकाश्यप के कान में पड़े। यह घटना ई.पू.544 की है जब कुशीनगर में भगवान महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए।

सुभद्र के शब्द सुनकर महाकाश्यप का मन हाहाकार कर उठा- अरे, अभी भगवान का महापरिनिर्वाण हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ और ऐसी लोकप्रतिक्रिया! कुछ काल के बाद तो लोग भूल ही जाएंगे कि भगवान इस धरती पर थे भी, भगवान का धम्म क्षीण हो जाएगा। धम्म के चिरस्थायित्व के लिए कुछ करना होगा..

बस इस संकल्प से प्रेरित हो कर महाकाश्यप ने संगीति का आह्वान किया ताकि भगवान के वचनों को संरक्षित किया जा सके क्योंकि परिनिर्वाण के समय भगवान के ही वचन थे-  धम्म ही धम्म का उत्तराधिकारी होगा.. सुभद्र को पता भी नहीं होगा कि उसके अपवचनों ने भगवान के सद्वचनों को संरक्षित करने का हेतु बना दिया है। सकारात्मक व्यक्ति नकारात्मक से भी सकारात्मकता को जन्म दे लेता है।

प्रथम संगीति : 

महाकाश्यप के आह्वान पर भगवान के परिनिर्वाण के तीन माह उपरांत पहली संगीति का आयोजन राजगृह(राजगीर) की सप्तपर्णी गुफ़ा में हुआ जिसमें पांच सौ अरहत एकत्रित हुए। संगीति में पहला ही प्रश्न खड़ा हो गया कि भगवान के वचनों को संरक्षित करने की शुरुआत कहाँ से की जाए क्योंकि उस संगीति में सम्मिलित हर व्यक्ति भगवान को व्यक्तिगत रूप से जानता था, हर किसी के पास भगवान से जुड़ा अपना प्रसंग, अपना संस्मरण था। हर व्यक्ति अपना अनुभव बताने को तत्पर था। तब महाकाश्यप को भगवान के वचनों ने ही मार्ग सुझाया- विनयानामबुद्धसासनस्सआयु- विनय ही बुद्ध शासन की आयु है अर्थात जब तक विनय रहेगा तब तक बुद्ध शासन रहेगा। तय हुआ कि सर्वप्रथम विनय का संगायन होगा। इस प्रकार सर्वप्रथम विनयपिटक का संगायन हुआ। अरहत उपालि ने विनय का संगायन एवं सत्यापन किया। फिर सुत्त पिटक का संगायन अरहत आनन्द के द्वारा हुआ।

प्रथम संगीति में अभिधम्म का प्रथक अस्तित्व नहीं आया था। अभिधम्म सुत्त में ही अन्तर्निहित था। यह संगीति सात माह चली। सम्राट अजातशत्रु ने इस संगीति का पोषण किया।

दूसरी संगीति :

पहली संगीति के सौ साल के बाद दूसरी संगीति का आयोजन हुआ, ई. पू.444 में, वैशाली में, सम्राट कालाशोक के शासनकाल में, बालुकाराम विहार में। इसकी अध्यक्षता अरहत सब्बकामी ने की जिनकी आयु उस समय 120 साल थी और उपाध्यक्ष आचार्य रेवत थे। अरहत सब्बकामी ने पहली संगीति में धम्मसेवा की थी। अरहत आचार्य रेवत भी इस संगीति के वरिष्ठ प्रतिनिधि थे। यह संगीति एक तरह से सिर्फ विनय संगीति थी क्योंकि वैशाली के वज्जिपुत्तक संघ द्वारा विनय की मनमानी व्याख्या करके धन-सम्पत्ति इकट्ठा की जाने लगी थी, उपासकों की श्रद्धा का शोषण किया जाने लगा था। तब काकण्डपुत्त यश के प्रयत्नों से वरिष्ठ धम्मज्ञ अरहतों की परिषद आमंत्रित की गयी और विनय को पुनर्स्थापित किया गया। इस संगीति में सात सौ भिक्खु सम्मिलित हुए इसलिए इसे सप्तशतिका संगीति भी कहते हैं।

संंगीति में होता क्या है? भगवान के वचनों की एक-एक पंक्ति को पूरी परिषद के द्वारा संगायन किया जाता है। काल की लम्बी अवधि में यदि अर्थ, व्यंजन, उच्चारण में कोई दोष आ गया है तो उसे संशोधित किया जाता है। संशोधन को वरिष्ठ अरहत के द्वारा सत्यापित किया जाता है, संघ का अनुमोदन प्राप्त किया जाता है।

पहली संगीति में हिस्सा लेने वाले सारे के सारे भिक्खु अरहत थे। दूसरी संगीति के वरिष्ठ भिक्खु भी अरहत थे। यह भी एक मानक है कि संगीति संगायन हमेशा किसी अरहत की अध्यक्षता में होता है। अरहत की अध्यक्षता में भगवान बुद्ध के वचनों का महीनों तक संगायन एक महान आध्यात्मिक घटना भी है। पुण्य पारमिता से परिपक्व श्रद्धालु उपासक-उपासिकाओं को धम्म सेवा, भोजन दान, चीवर दान, औषधि दान, अष्टपरिष्कार दान का पुण्य अवसर मिलता है। इस घटना की आध्यात्मिक आभा सैकड़ों वर्षों तक परिवेश में व्याप्त रहती है। भगवान के वचन हैं- जहाँ श्रमण रमण करते हैं वही भूमि रमणीय है।

तीसरी संगीति :

संगीति के इतिहास में तीसरी संगीति स्वर्णिम घटना है। ई. पू.326 में पाटलिपुत्र में आयोजित इस संगीति का पोषण महान सम्राट अशोक के द्वारा किया गया। इसकी अध्यक्षता सम्राट अशोक के गुरू अरहत मोगलिपुत्त तिस्स के द्वारा की गयी। यह संगीति नौ माह तक चली। इसमें एक हजार भिक्खुओं ने प्रतिभाग किया। भगवान के महापरिनिर्वाण को लगभग सवा दो सौ साल बीत चुके थे। बुद्ध धम्म के नाम पर अनेक मिथ्या मतों का उदय हो गया था। यश-कीर्ति-धन के लोभ में अनेक दुःशील लोग संघ में प्रविष्ट हो गये थे, वे संघ को अन्दर से दूषित कर रहे थे। संगीति अध्यक्ष मोगलिपुत्त तिस्स ने मिथ्या मतों का खण्डन करते हुए 'कथावत्थु' नामक ग्रन्थ का संकलन किया और इसी संगीति में अभिधम्म पिटक स्वतंत्र अस्तित्व में आया। संगीति के समापन पर सम्राट अशोक द्वारा अरहत भिक्खुओं के नेतृत्व में नौ परिषदें पूरी दुनिया में बुद्धवाणी के प्रचार के लिए रवाना की गयीं तथा श्रीलंका को स्वयं अपने पुत्र-पुत्री अरहत महेन्द्र और थेरि संघमित्रा को भेजा। इस संगीति के बाद बुद्ध धम्म सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया में फैल गया। एक तरह से भारत की विश्व पर यह धम्म विजय थी।

चौथी संगीति :

इतिहास में चौथी संगीति के रूप में दो संगीतियां दर्ज़ हैं। एक ई. पू. 29 में सम्राट वट्टगामिनी के काल में श्रीलंका में और दूसरी सम्राट कनिष्क के काल में ईस्वी 80 में कश्मीर के कुण्डलवन में। यद्यपि कि श्रीलंका की संगीति की अधिक मान्यता है क्योंकि इसमें थेरवादी भिक्खुओं ने हिस्सा लिया।

तीसरी संगीति तक बुद्ध वचन श्रुत परम्परा से संरक्षित रहे। श्रुत परम्परा अर्थात मौखिक परम्परा। सुत्तधर वरिष्ठ भिक्खु अपने शिष्यों को सुत्तों का सस्वर पाठ कराते हैं। समस्त संघ उसकी समवेत स्वर में पुनरावृत्ति करता है। पूर्णिमा-अमावस्या-कृष्णपक्ष अष्टमी- शुक्लपक्ष अष्टमी महीने के इन चार दिनों में विशेष परिषदों में भिक्खु संघ सुत्त संगायन का विशेष अनुष्ठान करता था जिसे पातिमोक्ख परिषद भी कहा जाता था। बौद्ध देशों में यह परम्परा आज भी जीवित है। इस श्रुत परम्परा के द्वारा बौद्ध आचार्यों ने सिर्फ शब्दों को ही संरक्षित और हस्तान्तरित नहीं किया बल्कि वह मौलिक ध्वनि, स्वर, उच्चारण का उतार-चढ़ाव-ठहराव भी संरक्षित व हस्तान्तरित किया जिस स्वर में पहली संगीति में पांच सौ अरहतों ने भगवान की वाणी का संगायन किया था। यह संगायन वातावरण में आध्यात्मिक तरंगों को जन्म देता है। इन तरंगों के बड़े चमत्कारिक विवरण भी इतिहास में दर्ज हैं जिन का उल्लेख करने से विषयान्तर हो जाएगा। 

तीसरी संगीति तक बुद्ध वचन श्रुत परम्परा से संरक्षित थे और वही ध्वनि-स्वर-उच्चारण परम्परागत रूप से सदियों से आज तक कायम है.. भारत में नहीं दिखता लेकिन बौद्ध देशों में इसे आज तक संजोया गया है।

सम्राट अशोक ने बुद्ध वाणी का सारी दुनिया में प्रसार कर बड़ा दूरदर्शी कदम उठाया कि यदि कभी भारत में यह परम्परा बाधित भी हो तो शेष दुनिया में बुद्ध वाणी बची रहे। और सच में कालान्तर में ऐसा ही हुआ भी। भारत से यह परम्परा लुप्त जैसी हो गयी लेकिन बौद्ध देशों में बुद्ध वचन अपने मौलिक रूप में आज भी यथावत जीवन्त हैं।

श्रीलंका की चौथी संगीति में त्रिपिटक के मौखिक संगायन के साथ एक अनूठा काम और हुआ कि त्रिपिटक को भोजपत्रों पर लिपिबद्ध किया गया ताकि बुद्ध वाणी हमेशा के लिए अपने विशुद्ध रूप में संरक्षित रह सके। धम्म के शुद्ध स्वरूप को संरक्षित रखने के लिए जितनी सजगता बौद्धों ने बरती शायद ही दुनिया के किसी अन्य सम्प्रदाय ने ऐसा किया होगा। लगभग सभी सम्प्रदायों के धर्मग्रंथों में क्षेपकों के आरोप हैं लेकिन त्रिपिटक इन आरोपों से लगभग मुक्त हैं। त्रिपिटक को शुद्ध व त्रुटिरहित रखने में बौद्धों ने बड़ा तप किया। सम्राट वट्टगामिनी के काल में ई. पू. 29 में श्रीलंका में आयोजित चौथी संगीति में पांच सौ विद्वान थेरों ने प्रतिभाग किया जिसकी अध्यक्षता महाथेर रक्खित ने की। संगायन के उपरान्त सम्पूर्ण त्रिपिटक को लिपिबद्ध करके बुद्ध वचनों को हमेशा के लिए शुद्ध स्वरूप प्रदान किया गया।

पांचवी संगीति :

सम्राट अशोक की दूरदर्शिता काम आयी। बारहवीं शताब्दी के बाद से भारत से बुद्ध धम्म लुप्त-सा होने लगा लेकिन शेष बौद्ध देशों में यह अपनी सम्पूर्ण प्रभा के साथ दमकता-चमकता रहा।

सम्पूर्ण बौद्ध इतिहास का अवलोकन करें तो पाते हैं कि बुद्ध का धम्म नष्ट कभी नहीं हुआ। यदि आलंकारिक रूप से कहें तो बुद्ध धम्म सूर्य है। जब वह एक स्थान पर अस्त होता दिखता है तब ठीक उसी समय धरती के किसी दूसरे भूभाग में उसका उदय हो रहा होता है। जब भारत से बुद्ध सूर्य अस्त होता दिख रहा था ठीक उसी समय श्रीलंका, नेपाल, बर्मा, कम्बोडिया, लाओस आदि देशों में यह अपनी पूरी प्रभा के साथ चमक रहा था। 

इन देशों में भारत के प्रति आभार और आदर का भाव है। बौद्ध देशों के श्रद्धालुजन भारत की ओर पैर करके सोते नहीं हैं, सुबह उठ कर भारत की ओर मुख करके हाथ जोड़कर वन्दना करते हैं। संगीति की परम्परा भारत से लुप्त-सी हो गयी लेकिन अपने गुरू देश के प्रति आभार भावना से भरे बौद्ध देशों ने इस परम्परा को पूरी शुद्धता के साथ यथावत जीवित रखा।

19वीं शताब्दी तक भारत सहित लगभग पूरा एशिया ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हो चुका था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद न के कारण भी एशिया के देशों की सांस्कृतिक धाराओं में अवरोध उत्पन्न हुए। ऐसे समय में बर्मा ने अपना आध्यात्मिक दायित्व निभाया और पांचवी संगीति आयोजित करने का संकल्प लिया। इस संकल्प की पूर्ति में संरक्षण का पुण्य लाभ बर्मा के सम्राट मिं डों मिं को मिला। भगवान की वाणी को अक्षुण्ण रखने में जिन शासकों ने संरक्षण प्रदान किया वे इतिहास में अमर हो गये।

सन् 1871 में ब्रम्हदेश अर्थात बर्मा में सम्राट मिं डों मिं के काल में पांचवी संगीति का आयोजन हुआ, मांडले शहर में। इस संगीति में दो हजार चार सौ भिक्खुओं ने प्रतिभाग किया जिसकी अध्यक्षता क्रम से पूज्य महाथेर जागराभिवंस, पूज्य महाथेर नरिंदभिधज तथा पूज्य महाथेर सुमंगल सामी द्वारा की गयी। संगीति के विवरणों को सदियों से बाकायदा लिपिबद्ध करके संरक्षित किया गया है ताकि प्रमाण व प्रेरणा अगली पीढ़ियों को सौंपा जा सके। 

पांचवी संगीति में सम्राट मिं डों मिं ने सबसे बड़ा पुण्यार्जन यह किया कि उन्होंने समस्त बुद्ध सुत्तों को, सम्पूर्ण त्रिपिटक को, संगमरमर की पट्टिकाओं पर उकेरवा दिया और पूज्य संघ के द्वारा संगायन करते हुए उन पावन शिलाओं का लोकार्पण किया गया। शिला पट्टिकाओं पर अंकित हो जाने से बुद्ध वचनों को परिशुद्ध अवस्था में संरक्षित रखने का महान कार्य हुआ। आज त्रिपिटक का सर्वाधिक प्रमाणिक संस्करण श्रीलंका एवं बर्मा का ही माना जाता है।

छठी संगीति :

एक बात रेखांकित किये जाने लायक है कि संगीति जब भी होती है तो अध्यक्षता किसी मान्य अरहत के द्वारा ही होती है। पुण्यशाली है वह काल जब संगीति होती है और पुण्यवान हैं वो लोग जो इस महान घटना के साक्षी व सहभागी बनते हैं, अरहत के दर्शन करते हैं। श्रोतापन्न, सकृतगामी, अनागामी, अरहत अवस्था प्राप्त एवं मार्गगामियों की सेवा करने व उन्हें दान का पावन अवसर मिलता है। संगीति आयोजन एक आध्यात्मिक घटना है। इतिहास में छठी संगीति के आयोजन का श्रेय भी ब्रम्हदेश अर्थात बर्मा को जाता है। छठी संगीति कई मायनों में अनूठी है।

पूर्व की पांच संगीतियां राजकीय संरक्षण में हुईं अर्थात उनका पोषण राजाओं द्वारा किया गया। छठी संगीति पहली बार एक लोकतांत्रिक सरकार के संरक्षण में हुई जिसके प्रधानमंत्री ऊ नू थे। सन् 1954 में शुरू हुई संगीति दो साल के उपरान्त सन् 1956 में मई माह में बुद्ध पूर्णिमा के दिन सम्पन्न हुई। उस समय तक भी बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन ही था इस कारण पहली बार पश्चिमी देशों के लोग भी इस महान घटना के साक्षी बने। इसमें बर्मा के अतिरिक्त श्रीलंका, थाईलैंड, कंपूचिया, भारत के भिक्खुगण मिलाकर दो हजार पांच सौ मान्य भिक्खु सम्मिलित हुए जिसकी अध्यक्षता श्रद्धेय अभिधज महारट्ठगुरू भदन्त रेवत ने की। इस संगीति में सम्पूर्ण त्रिपिटक, इसकी अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि को मान्य आचार्यों द्वारा पुनः जांचा-परखा गया।

कदाचित बुद्ध धम्म दुनिया की अकेली धार्मिक परम्परा है जो स्वयं को आधुनिकता के साथ अद्यतन, अपडेट, करती है, इसी कारण यह कभी कालवाहि अर्थात आउटडेट नहीं होती। संगीति में मात्र बुद्ध वचनों की शुद्धता भर ही जांची-परखी नहीं जाती बल्कि बुद्ध धम्म के नाम पर नवसृजित साहित्य की भी विवेचना होती है। बुद्ध वचनों से उनका मिलान किया जाता है, जहाँ साम्य होता उस पर मुहर लगाते हैं, उसका अनुमोदन करते हैं और जहाँ विसंगति होती है उसे निरस्त करते हैं। यह सारा साहित्य अभिधम्म का अंग बनता है। विनय और सुत्त यथावत रहते हैं।

छठी संगीति में, जो कि दो साल तक चली, बर्मा की मूल लिपि म्रंम लिपि में सम्पूर्ण त्रिपिटक को मुद्रित कराया गया। यह संगीति बर्मा की धरोहर हो गयी।

छठी संगीति इस मायने में भी अनूठी थी कि इसके उद्घाटन और समापन दोनों सत्रों में भारत के संविधान शिल्पी डा. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर सम्मिलित हुए। यहीं पर पूज्य संघ द्वारा बाबा साहेब को दूसरी बार 'बोधिसत्व' कह कर सम्बोधित किया गया। इसके पूर्व श्रीलंका में 'विश्व बौद्ध भ्रातृत्व सम्मेलन' में भी पूज्य संघ द्वारा बाबा साहेब को 'लिविंग बोधिसत्व' कह कर सम्बोधित किया गया था। तीसरी बार 2 दिसम्बर'1956 को अशोका मिशन बुद्ध विहार, दिल्ली में परम पावन दलाई लामा के द्वारा बाबा साहेब को 'बोधिसत्व' सम्बोधित किया गया था।

बोधिसत्व बाबा साहेब ने बर्मा में प्रचलित एक लोकश्रुति सुनी कि, भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के 2500 वर्षों के उपरान्त एक उपासक के द्वारा भारत से धम्म का पुनरोदय होगा। इस लोकश्रुति से प्रेरित व उत्साहित हो कर 12 दिसम्बर'1954 को वर्ल्ड इंस्टीट्यूट ऑफ बुद्धिस्ट कल्चर के डायरेक्टर डा. आर एल सोनी के कार्यालय में आल्हादित कण्ठ से उन्होंने घोषणा की- भगवान बुद्ध की 2500वीं जयंती सन् 1956 में पड़ रही है। मैंने धम्म दीक्षा का पक्का निश्चय किया है! वही संकल्प 14 अक्टूबर'1956 को नागपुर की महान धम्म दीक्षा के द्वारा फलीभूत हुआ।

नागपुर की महान धम्म दीक्षा के उपरान्त पुनः नवम्बर 1956 को श्रीलंका में बोधिसत्व बाबा साहेब ने घोषणा की- यदि दस साल और जीवित रह गया तो भारत को बुद्धमय बना दूँगा! लेकिन समय की विडंबना कि धम्म दीक्षा के दो माह भी बीतने नहीं पाए और बाबा साहेब 6 दिसम्बर'1956 को शान्त हो गये। जिस संकल्प के लिये वे दस साल का समय चाहते थे उसके लिये जिन्दगी ने उन्हें 2 महीने का भी समय नहीं दिया।

बोधिसत्व का संकल्प साधारण संकल्प नहीं होता। स्थूल काया छूट जाए लेकिन धम्मकाया सक्रिय रहती है। यह महज़ संयोग भर नहीं कहा जा सकता कि बोधिसत्व बाबा साहेब के परिनिर्वाण के ठीक पचास साल के बाद एक अनूठी घटना हुई। वर्ष 2006 में अमेरिका की महोपासिका श्रीमती वांगमो डिक्सी एवं महोपासक श्री रिचर्ड डिक्सी की पहल पर लाओस, थाईलैंड, कम्बोडिया, भारत, म्यांमार, बंगलादेश, वियतनाम, श्रीलंका, नेपाल आदि बौद्ध देशों ने मिल कर एक परिषद का गठन किया- अन्तरराष्ट्रीय त्रिपिटक संगायन परिषद- इन्टरनेशनल ट्रिपिटक चैन्टिंग काउंसिल-जिसके द्वारा बोधगया में ठीक बोधिवृक्ष की छाँव में प्रत्येक वर्ष 2 दिसम्बर से 12 दिसम्बर तक त्रिपिटक का संगायन की शुरूआत हुई । दो वर्ष के उपरान्त 10 मई'2008 में ठीक बुद्ध पूर्णिमा के दिन बर्मा के वरिष्ठ भिक्खु पूज्य यू. न्यनिन्द की अध्यक्षता में इस परिषद ने एक पंजीकृत स्वरूप धारण किया जिसका लक्ष्य बना- बुद्ध की भूमि में धम्म नाद गुंजित करना। वर्ष प्रतिवर्ष इस त्रिपिटक संगायन का निरन्तर विस्तार होता जा रहा है तथा प्रतिभागी देशों की संख्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि त्रिपिटक संगायन में सभी निकाय एक मंच पर इकट्ठा होते जा रहे हैं- थेरवाद, महायान, वज्रयान इत्यादि सभी यान। पहले यह आयोजन दस दिन के लिए सिर्फ बोधगया में होता था लेकिन अब भारत के अन्य स्थलों पर भी इसका विस्तार होता जा रहा है यथा सारनाथ, श्रावस्ती, संकिसा, दिल्ली, कुशीनगर, राजगीर इत्यादि। पूरा भारत इस अभियान से जुड़ता जा रहा है। वर्ष 2018 से लखनऊ भी इसी श्रंखला में सम्मिलित हो गया है। शेष शहरों को सम्मिलित करते हुए बोधगया का दस दिवसीय आयोजन यथावत रहता है तथा निरन्तर विशाल होता जा रहा है।
वर्ष 2018 में भारत में त्रिपिटक संगायन की सारणी निम्नवत है:

(1) 28-30 अक्टूबर 2018 सारनाथ में 
(2) 31अक्टूबर से 3 नवम्बर 2018 नयी दिल्ली में
(3) 4-6 नवम्बर 2018 संकिसा में 
(4) 7-8 नवम्बर 2018 लखनऊ में
(5) 9-11 नवम्बर 2018 श्रावस्ती में
(6) 12-14 नवम्बर 2018 लुम्बिनी में
(7) 15-17 नवम्बर 2018 कुशीनगर में
(8) 18-21 नवम्बर 2018 वैशाली में
(9) 2-12 दिसम्बर 2018 बोधगया में 
(10) 13 दिसम्बर 2018 जेठियन घाटी धम्म यात्रा
(11) 14-17 दिसम्बर 2018 राजगीर/नालन्दा में
(12) 18-22दिसम्बर 2018 उड़ीसा में

निष्कर्षतः, सातवीं संगीति भारत में आयोजित होने की भूमिका बन रही है। यह संगीति जब भी होगी इस बार बुद्ध वचनों का डिजिटलीकरण होगा। भोजपत्रों पर बुद्ध वचन संरक्षित किये जा चुके हैं, संगमरमर शिलाओं पर उकेरे जा चुके हैं, ताम्रपत्रों पर मुद्रित किया जा चुका है। अब आधुनिकतम आधार कम्प्यूटर बनेगा। इस एक घटना के होते ही न केवल भारत में बल्कि भारत को केन्द्र बना कर सम्पूर्ण विश्व में बुद्ध धम्म फैल जाएगा। भारत का जनमानस जिस विश्व गुरू के गौरव का बार-बार स्मरण करता है वह इस एक घटना के साथ पुनः प्राप्त कर लेगा।

संगीति कोई एक-दो दिन की संगोष्ठी अथवा सेमीनार नहीं होता बल्कि महीनों अथवा वर्षों का आयोजन होता है। इस बार जब भी यह महान घटना होगी तो महीनों तक पूरे विश्व की भारत पर निगाह होगी। विश्व भर में इस घटना का सीधा प्रसारण होगा, देश-विदेश के लोग इस पावन आयोजन में योगदान देने, इसमें प्रतिभाग करने श्रद्धामय मन से भारत की यात्रा करेंगे। हजारों की संख्या में साफ्टवेयर इंजीनियर त्रिपिटक का समानान्तर डिजिटल रूपान्तरण कर रहे होंगे। इस बार पश्चिमी जगत के बौद्ध विद्वान भी बड़ी संख्या में इसमें शामिल होंगे और भारत विश्व की आध्यात्मिक राजधानी बन जाएगा। भारत विश्व का केंद्र बन जाएगा। इस एक आध्यात्मिक घटना का अप्रत्यक्ष राजनैतिक, आर्थिक, बौद्धिक लाभ अपने आप भारत को मिल जाएगा।

प्रश्न है कि इस बार भारत में सम्भावित संगीति के आयोजन में भारत के बौद्धों की क्या भूमिका होगी? सातवीं संगीति के भावी आयोजन में पश्चिमी जगत की सक्रिय भागीदारी होगी। इक्कीसवीं सदी के बौद्ध जगत की यह निर्णायक घटना होगी। भारत के नवबौद्धों की विशेष भागीदारी व भूमिका होगी। यदि भारत के नवबौद्ध आगे बढ़ कर इस आयोजन की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर होते हैं तो उम्मीद है कि आने वाले अधिकतम दस वर्षों में यह घटना साकार रूप ले सकती है और भारत ही नहीं बल्कि विश्व बुद्धमय हो जाएगा तथा भारत में धम्म चिरस्थायी हो जाएगा जो कि भारत के बौद्धों की इच्छा भी है व प्रयास भी।







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साहब कांशीराम का चुनावी सफ़र.. साईकिल से लेकर लोकसभा संसद तक!!

मान्यवर कांशीराम साहब के जीवन पर्यंत संघर्ष का मुख्य मकसद था "सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन" लाना. उनका मकसद था एक ऐसा समाज बनाना जो समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित हो. अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए वे सत्ता को एक साधन मानते थे. लेकिन उनके सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं. अपने संघर्ष और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे मनी, माफिया और मीडिया को सबसे बड़ा रोड़ा मानते थे. उन्होंने इनसे मुकाबला करने के लिए अलग-अलग रणनीति बनायीं, साथ ही बहुजन समाज के लोगों को इन तीनों से सावधान रहने का आह्वान किया. हम यहाँ अन्य बिन्दुओं पर विस्तार में जाने की बजाय उन घटनाओं की ओर आपका का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं जिनसे आप जान सकें कि मान्यवर कांशीराम साहब ने किस-किस प्रकार की परिस्थितियों का सामना करके चुनावों में सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये. और बहुजन समाज को सत्ता के मंदिर तक पहुँचाने के लिए मजबूत आधार प्रदान किया. 

14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना के बाद मान्यवर कांशीरामजी ने पहला लोकसभा चुनाव दिसम्बर 1984 में "जांजगीर छतीसगढ़" से लड़ा था.  मान्यवर साहब के शब्दों में, 

“लोकसभा चुनाव 1984 के लिए हमारे पास न पैसा था, न संगठन और न ही कोई शक्ति लेकिन, फिर भी हमने हिम्मत और हौसला करके अपने कुछ उम्मीदवार खड़े किये.

छतीसगढ़ में कुछ साथियों को, जो मेरे साथ चल रहे थे उनको लड़ाने के लिए मैं उधर पहुंचा. लेकिन छत्तिसगढ़ के लोग थे वो तो पक्के कांग्रेसी थे.. श्री खुंटे (टी. आर. खुंटे) को लड़ाने के लिए मैं उधर गया था और उसके ही घर में ही मेरे ठहरने की व्यवस्था थी. उधर उसके बाप ने घर के बाहर भूख हड़ताल शुरू कर दी, यह कहते हुए कि मेरे लड़के का दिमाग ख़राब हो गया है, ये कांशीराम के चक्कर में आ गया है. यह बहुजन समाज पार्टी से चुनाव लड़ना चाहता है, मैं कांग्रेस वालों को क्या जवाब दूंगा !!

इस तरह वह बेचारा भूख हड़ताल पर बैठा था और उसी के घर पर मैं ठहरा हुआ था तो, मैंने सोचा कि भई मुझे क्या करना चाहिए!! जिसको लड़ाने के लिए मैं वहां गया था जब वह नहीं लड़ा तो मैंने सोचा कि मैं तो इसे लड़ाने के लिए यहाँ तैयारी करके आया हूँ, अब ये नहीं लड़ रहा है तो मुझे क्या करना चाहिए!! मैंने सोचा कि नामांकन का आज आखिरी दिन है, तो अब मुझे ही लड़ना चाहिए लेकिन, उस वक्त तो मेरे पास नामांकन के दौरान अनामत राशि भरने का पैसा नहीं था.. 

मैंने उधर चादर बिछाई और बहुजन समाज के जिन लोगों को मैंने तैयार किया था उनसे अपील किया कि आप लोग इस चादर पर थोड़ा-थोड़ा पैसा डालें ताकि मैं 500 रूपये जमा करके अपना नामांकन कर सकूं.. जब वहाँ उन्होंने पैसा डाला और मैंने गिना तो 700 रुपया हो गया. उसमें से 500 रूपये डिपोजिट भर दिया और 200 रूपये में मैंने एक साइकिल खरीद ली क्योंकि अब मुझे प्रचार भी करना था.

इसलिए मेरे पास साईकिल भी होना जरूरी चाहिए.. मैंने सोचा बाकि कर्मचारियों के पास अपनी-अपनी साइकिलें हैं, हम इकट्ठे होकर साइकिल से प्रचार करेंगे.. इस तरह से साथियों ! हम लोगों ने प्रचार शुरू कर दिया और मुझे 32 हजार वोट मिले.”

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हरिद्वार लोकसभा चुनाव 1987 : 

1987 में हरिद्वार लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ.. कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश का गृहमंत्री चुनाव मैदान में उतारा, तब कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए सारी विपक्षियों को मिलकर चुनाव लड़ना पड़ता था. उन सभी विपक्षियों ने "रामविलास पासवान" को खड़ा किया. उन्होंने रामविलास पासवान को चुनाव मैदान में उतारने से पहले हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा स्नान करवाया. ठाकुर चंद्रशेखर ने पासवान को कंधे पर बैठाकर स्नान कराया और पंडितों ने आशीर्वाद दिया कि ‘इसने पवित्र जगह से स्नान किया है, इसलिए यह जरूर जीतेगा.’ कांग्रेस वाले प्रत्याशी ने भी कहा कि ‘मैं तो इधर गंगा किनारे ही पैदा हुआ हूँ, मैं तो हमेशा गंगा में ही स्नान करता रहा हूँ ऐसा करके मैं भी जीतूँगा.’ तब (व्यंग करते हुए) मैं भी "मायावती" को उनसे एक फर्लांग ऊपर लेकर गया. मैंने कहा कि वे जिधर नहाये हैं, उधर गंगा गन्दी हो चुकी है इसलिए इधर गंगा साफ है इधर आप स्नान करो ताकि मैं घोषणा कर सकूं कि हमारा उम्मीदवार जीतेगा (मा.कांशीराम साहब अपने भाषणों में अक्सर इस तरह के अन्ध विश्वासों पर व्यंग करते थे).

अब चुनाव में खर्च करने के लिए हमारे पास कोई पैसे नहीं. चुनाव आने तक हम एक-एक, दो-दो, पांच-पांच रुपया इकठ्ठा करते रहे. मैंने पार्लियामेंट के अन्दर पड़ने वाले विधानसभा क्षेत्रों के हिसाब से पांच चुनाव कार्यालय खोलकर सिल्वर के बर्तन इकट्ठे करके रखे थे कि इन पांच जगहों पर पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए लंगर चलाऊंगा. परन्तु चुनाव ख़त्म हो गया आखिर तक हम लंगर नहीं चला सके. मेरे पास साईकिल थी तो मैं कुछ कार्यकर्ताओं को लेकर जगह-जगह घूमता था. मायावती को साइकिल चलाना नहीं आता था तो वो बस से घूमती थी. तब मायावती ने मुझे बताया कि ‘प्रत्याशी को बस में घूमने से बेइज्जती होती है क्योंकि, मैं बस में घूमती हूँ तो लोग कहते हैं कि देखो ये चुनाव लड़ रही है’. चुनाव तक मैंने एक गाड़ी लेनी चाही लेकिन आखिर तक हम वह गाड़ी भी नहीं ले सके. पांच दिन चुनाव के रह गये. हमें एक पुरानी टूटीसी जीप किराये पर मिली जो इतनी ख़राब थी कि उसमें तेल की टंकी की जगह पीपी रखी थी. तब मायावती ने बताया की इस जीप में आग लग गयी तो मैं कहाँ जाऊँगी. मैंने उस जीप में बैठने के लिए मायावती को तैयार किया. इसके बाद सारे देश भर से पार्टी समर्थक कार्यकर्ताओं ने थोड़ा-थोड़ा पैसा भेजा जो, आखिर तक मेरे पास कुल 87000 रुपया इकठ्ठा हुआ जिससे हमने वह चुनाव लड़ा. उस 87000 रुपया खर्च करने पर सुश्री मायावती को 1.36.000 (एक लाख छत्तीस हजार) वोट पड़े. जबकि नोटों वाली कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को १ लाख 49 हजार और सारी विपक्षी पार्टियों के उम्मीदवार रामविलास पासवान को मात्र 32 हजार वोट पड़े. इस तरह मात्र 13 हजार वोट के अन्तर से (सुश्री) मायावती को हारना पड़ा. यह 23 मार्च 1987 की कहानी है. इसके बाद मैं हमेशा पश्चाता रहा कि अगर मेरे पास एक लाख रूपये भी होता तो मैं मायावती को सांसद बना देता. फिर (सुश्री) मायावती को दो साल इन्तजार करना पड़ा. 1989 में हरिद्वार की बजाय हरिद्वार से लगी हुयी पार्लियामेंट की बिजनौर सीट से मायावतीे पार्लियामेंट मेम्बर बनीं.

इलाहाबाद लोकसभा चुनाव 1988 :

हरिद्वार उपचुनाव के बाद 1988में इलाहबाद संसदीय सीट का उपचुनाव हुआ. वहां से मैंने अपना नामांकन भरा. जहाँ एक तरफ कांग्रेस पार्टी मैदान में थी तो दूसरी तरफ सारी विपक्षी पार्टियों की ओर से वी. पी. सिंह चुनाव मैदान में थे, जिनके पास खर्च करने को करोड़ों रूपये थे. हमारे पास वहां पर भी पैसों की कमी थी. तब वहां पर मैंने चुनाव के लिए एक डिब्बा ख़रीदा और एक रेड़ी किराये पर लिया. रेड़ी पर हारमोनियम लेकर गाना गानेवालों का साज-बाज रखा और मैं उस रेड़ी के पीछे-पीछे ‘एक वोट के साथ एक नोट’ डालनेवाला डिब्बा लेकर चला. गाना गानेवाले साथ-साथ चलते हुए कहते थे कि ‘नोट भी दे दो और वोट भी दे दो’. इस प्रकार तब मैंने गाँव-गाँव, गली-गली घूमकर बहुजन समाज के लोगों से अपील की कि मैं निर्धन समाज की ओर से उमीदवार खड़ा हूँ. मेरा बहुजन समाज निर्धन समाज है. हमारा (निर्धन समाज का) मुकाबला धनवानों (मनुवादी समाज)से है. मैं अभी आप लोगों से वोट मांगने आया हूँ. आपको यदि मुझे एक वोट डालना है तो उससे पहले मुझे अपने वोट के साथ एक नोट भी डालना है. आप निर्धन समाज के लोग हैं इसलिए आपको यदि मुझे वोट डालना है तो अभी से मन बना लें और एक वोट के साथ एक नोट भी डालना है. हमारा चुनाव भर में यह कार्यक्रम चलेगा. इसके बाद चुनाव आयोग की ओर से वोट के लिए मतदान-पत्र का डिब्बा आयेगा. इसलिए इससे पहले मुझे अपना एक नोट के साथ एक वोट भी डालें ताकि मैं अंदाजा लगा सकूँ कि मुझे मेरे निर्धन समाज का इतना वोट जरूर मिलेगा. इसके साथ-साथ हमारे कुछ पेन्टर कार्यकर्ता भी आये. उनको मैंने बोला कि इलाहबाद की हर दीवार पर हाथी बना दो.उन्होंने इलाहबाद की दीवारों पर एक लाख हाथी बना दिये. इसके आलावा हमारा कोई प्रचार नहीं था. उन हाथियों को देखकर अख़बार वाले भी कुछ लिखने लग ये कि कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों के वी. पी. सिंह के आलावा बहुजन समाज पार्टी का कांशीराम भी चुनाव मैदान में है. जब चुनाव का दिन आया तो वोट पड़ने के बाद इलेक्शन कमिश्नर ने अपने डिब्बे में वोट गिनकर घोषणा की कि डिब्बे में से कांशीराम के 86,000 हजार नोट निकले जबकि कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के मात्र 92,000 हजार वोट निकले. कांग्रेस पार्टी के मुझसे मात्र 6,000 हजार वोट ज्यादा निकले. तब थोड़े से ज्यादा वोट लेकर विपक्षी पार्टियों का उम्मीदवार वी. पी. सिंह जीत गया.

इटावा लोकसभा चुनाव 1991 :

मान्यवर अब तक जितने चुनाव लड़े थे वह समाज को तैयार करने और उसका हौसला बढ़ाने की दृष्टि से लड़ते आये थे. उनका मानना था कि जब तक बहुजन समाज के 50 सांसद जीतकर नहीं पहुँचते तब तक मुझे संसद में नहीं जाना चाहिए. उनका कहना था कि मैं अपने बहुजन समाज को तैयार करके पूरी ताकत के साथ संसद में जाऊंगा. परन्तु 1991 के लोकसभा चुनावों के बाद पूरे पूरे देश के कार्यकर्ताओं ने मा. कांशीराम साहब से व्यक्तिगत मुलाकातें करके आग्रह किया कि सामाजिक परिवर्तन की लहर को आगे बढाने के लिए आपका लोकसभा में जाना जरुरी है. अत: अपने निकट सहयोगियों और सक्रिय कार्यकर्ताओं की इच्छा को देखते हुए मान्यवर कांशीराम साहब ने इटावा संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से अपना नामांकन दाखिल किया. इटावा में हो रही चुनावी सभाओं में मान्यवर ने ऐलान किया कर दिया था- “अभी तक मैंने समाज को तैयार करने के लिए इलाहबाद में वी. पी. सिंह(राजा), अमेठी में राजीव गाँधी(प्रधानमंत्री) व पूर्वी दिल्ली में एच. के. एल.भगत(भूमाफिया) के मुकाबले चुनाव लड़ा किन्तु, अब मैं इटावा से चुनाव जीतने के लिए लड़ रहा हूँ. हमें यह चुनाव जीतना है. कार्यकर्ताओं को भी निर्देश है- ‘करो या मरो’. अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो समाज का मनोबल ऊँचा नहीं कर पाएंगे. इसलिए हमें बहुजन समाज का मनोबल बढ़ाने के लिए पूरी ताकत तो लगानी ही होगी.” इस चुनाव में मान्यवर कांशीराम के मुकाबले समाजवादी जनता पार्टी का रामसिंह शक्य, भाजपा का लाल सिंह वर्मा और कांग्रेस का शंकर तिवारी था. इस मुकाबले में कड़े संघर्ष के बावजूद भी मा. कांशीराम साहब ने भाजपा के उम्मीदवार को 21,951 मतों से हराकर विजय हासिल की. मान्यवर की जीत से कार्यकर्ताओं तथा लोगों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी.

लोगों का आभार व्यक्त करते हुए मान्यवर ने सार्वजानिक पत्र लिखा- “इटावा लोकसभा चुनाव में सफलता से बहुजन समाज में हर्षोल्लास का वातावरण निर्माण हुआ. इस सन्दर्भ में देश-विदेश से असंख्य बधाई-पत्र तथा टेलीग्राम प्राप्त हुए हैं. इन तमाम बधाई-पत्रों तथा टेलीग्राम का प्रत्यक्ष जवाब देना तो मेरे लिए असंभव है. बहुजन समाज निर्माण की प्रक्रिया में जुड़े हुए तमाम साथियों, हित चिंतकों तथा मित्रों का मैं अत्यंत आभारी हूँ. शुभ कामनाओं के साथ, जय भीम”.

इस तरह मान्यवर कांशीराम साहब ने अपने पास उपलब्ध छोटे-छोटे साधनों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करके तथा धनवानों से मुकाबला करने के लिए अपने निर्धन समाज से थोड़ा-थोड़ा धन का बंदोबस्त करके अपने विरोधियों परास्त किया और सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये. 

मान्यवर कांशीराम साहब का संसद में प्रवेश बहुजन नायक : 

मान्यवर कांशीराम साहब ने 20 नवम्बर, 1991 को प्रात : 11 बजे संसद में उस समय पहला कदम रखा जब संसद में सभी सांसद सदस्य प्रवेश कर चुके थे. संसद के मुख्य द्वार पर जैसे ही मान्यवर पहुंचे तो सैकड़ों पत्रकार, फोटोग्राफर आदि ने उन्हें घेर लिया. कुछ देर फोटोग्राफरों ने इतने फोटो खींचे की बिजली जैसी चका- चौंध होती रही. इसके बाद संसद की सीढियाँ चढ़ते हुए भी फोटोग्राफरों के फोटो खींचें जाने के कारण उन्हें हर सीढ़ी पर रुक-रुक कर आगे बढ़ना पड़ रहा था. पत्रकारों की निगाह में भी अब तक सांसद तो बहुत जीत कर आते रहे किन्तु कांशीराम साहब की जीत के मायने ही कुछ और थे. इसलिए उनके इंतजार में आज पत्रकार 10 बजे से ही खड़े थे. इसके बाद आगे बढ़ते हुए

मान्यवर कांशीराम साहब ने जब संसद के मुख्य हाल में प्रवेश किया तो सबसे पहले लोकसभा अध्यक्ष श्री शिवराज पाटिल अपनी सीट छोडकर उन्हें लेने पहुंचे और उनसे हाथ मिलाया. मुख्य हाल में प्रवेश करते ही अन्दर बैठे सभी सांसदों ने अपने स्थान में खड़े होकर इस तरह स्वागत किया जैसे संसद में प्रधानमंत्री के स्वागत में खड़े हुए हों. प्रधानमंत्री श्री पी. वी. नरसिम्हाराव और अन्य पार्टियों के सभी बड़े नेता भी आगे बढ़कर मा. कांशीरामजी से हाथ मिलाये. शून्यकाल से पहले जब मान्यवर साहब को शपथ दिलायी गयी तो उस वक्त भी संसद तालियों से गूंज उठा. मान्यवर ने अंग्रेजी में "सत्यनिष्ठा" की शपथ ली थी. इस तरह उन्होंने न केवल शून्य से शिखर तक का रास्ता तय किया अपितु भारतीय राजनीति में उनकी इस आगाज ने देश की राजनीति की दिशा भी बदल दी ।

(मान्यवर साहब कांशीराम के भाषण की CD से साभार)

साहब कांशीराम के भाषण सुनने के लिए व् डाऊनलोड करने के लिए निचे की लिंक पर क्लिक करे : साहब कांशीराम के ऐतिहासिक भाषण



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July 6, 2018

मान्यवर कांशीराम साहब की 05 पैसे की कहानी "मनोहर आप्टे" की जुबानी !!

हेलिकोप्टर से उतरते हुए साहब कांशीराम 
सन 1972 में हमने पूना में अपना छोटा सा कार्यालय खोला। शायद बहुजन समाज मूवमेंट (सभी धर्मों के OBC SC ST) का वो पहला कार्यालय था। मैं उस समय रेलवे में नौकरी करता था। नौकरी के लिए मुझे रोज पूना से मुंबई जाना पड़ता था। साहब जी मेरे साथ मुम्बई आना-जाना करते थे। उस वक्त रेल के डिब्बे में ही हम योजनाएँ बनाते थे कि किस तरह से हमे मनुवादियों/ ब्राह्मणवादियों द्वारा 6,743 जातियों में बांटे गए मूलनिवासी बहुजन समाज (85% OBC SC ST) को एक सूत्र में पिरोना है और उन्हें उनके हक़ दिलाने हैं। साहब जी के पास पूना से मुंबई का रेलवे पास था। हम अपनी साइकिलों पर पूना स्टेशन जाते थे और फिर मुँबई से आकर साइकिलों से कार्यालय पहुँचते थे। हम स्टेशन के पास छोटे से ढाबे पर थोड़ा बहुत पेट भरने लायक खा लेते थे।

आज भी में उस दिन को याद करता हूँ जब मैं और साहब मुंबई से पूना आये और साइकिल उठाकर चल पड़े। हमारा सस्ता ढाबा आ गया। उस दिन मेरे पास तो पैसे नही थे इसीलिए मैंने सोचा साहब जी खाना खिला देंगे मगर साहब भी नहीं बोले। मैंने सोचा कि आज शायद साहब का दूसरे ढाबे में खाना खाने का मूड है। दूसरा ढाबा भी आ गया। हम दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और आगे चल पड़े क्योंकि पैसे किसी के भी पास नही थे।

कुछ न मिल पाने की स्थिति में हम दोनों रात को पानी पीकर सो गये। अगले दिन मेरी छुट्टी थी मगर साहब को मीटिंग के लिए जाना था.. साहब सुबह उठे और नहा धोकर अटेची उठाकर निकलने लगे। थोड़ी देर बाद वापिस आये और बोले... "यार मनोहर कुछ पैसे है क्या तुम्हारे पास?" मैंने कहा "नहीं है साहब।" तो साहब ने कहा देख कुछ तो होंगे? मैंने कहा "कुछ भी नहीं है साहब। होते तो रात खांना जरूर खिलाता आपको।"

"मनोहर, यार 05 पैसे तो होंगे ?"

अब मैं भी अपने बैग को खंगालने लगा मगर एकदम खाली। मैंने पूछा क्या काम था साहब? यार साइकिल पंक्चर हो गयी है और ट्रेन का भी समय हो गया है। अगर समय से स्टेशन न पहुँच पाया तो ट्रेन छूट जायेगी और हजारों लोग जो मुझे सुनने आएंगे, मेरे न पहुँच पाने की स्थिति में निराश होकर वापस चले जायेंगे। बड़ी मेहनत के बाद मैं इस मिशन को यहाँ तक लेकर आया हूँ। मैंने कहा तो क्या हुआ साहब आप मेरी साइकिल ले जाओ? साहब ने कहा, अरे भाई देख ली तेरे वाली भी खराब है।

फिर अचानक ये क्या ????

05 पैसे ना होने के कारण साहब पैदल ही कई किलोमीटर दूर स्टेशन के लिए दौड़ पड़े।।

और पहली बार जब मैंने कांशीराम साहब को हेलीकॉप्टर से उतरते देखा तो आँखों से आसूं निकल गये जो रुकने का नाम नही ले रहे थे और मेरे मुँह से निकला "वाह साब जी वाह, कमाल कर दिया।।" पुरानी टूटी सी साइकिल द्वारा बामसेफ, DS4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति), बहुजन समाज पार्टी से होते हुए सीधे हेलीकॉप्टर....

बाबा साहेब को तो कभी नही देख पाया लेकिन आपके साथ रहकर जन-जागृति का जो थोड़ा-बहुत काम मैं कर पाया, मैं धन्य हो गया। आप हजारों साल जियें। बहुजन समाज के लिए आपकी अथक मेहनत को कोटि-कोटि सलाम।।

- मनोहर आप्टे

साहब कांशीराम के बारे में गुजरात के सामाजिक कार्यकर्ता राजू सोलंकी लिखते है कि,

आसान नही है कांशीराम बनना।। 
कांशीराम बनने का मतलब है - नींव की ईट बनना।। 
कांशीराम का मतलब है - पुरी जिंदगी का समर्पण।। 

कांशीराम का मतलब है - अविरत साईकल रेलिया, अविरत लोकसंपर्क, जनजागृति, संगठन की अहमियत और लोगो के प्रति निष्ठा।।

नब्बे प्रतिशत लोग रिझ्ल्ट देखते है, प्रक्रिया नही देखते।। 

एक आदमी ने अपनी पुरी जिंदगी की राजकीय, सामाजिक, सांगठनिक पूंजी - एक अनजान लडकी को सौंप दी और उसे भारत सहित पुरी दुनिया मे बहुजनो के इतिहास का एक गौरवपूर्ण प्रकरण लिखने का अवसर दीया ।।

जहा पर हमारी सोच खत्म होती है, 
वहा से कांशीराम साहब की सोच शुरू होती है।। 

आसान नही है कांशीराम बनना।।
साहब कांशीराम की सादगी और समर्पण
साहब कांशीराम की ४२०० किलोमीटर लम्बी साईकिल मार्च


में अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर
लोग साथ जुड़ते गए और कारवां बनता गया
बहन कुमारी मायावती के साथ साहब कांशीराम