July 11, 2019

मण्डल-कमण्डल की महत्वपूर्ण सूचनाओं को समेटे हुए एक ऐतिहासिक दस्तावेज


कुछ ही दिन पहले, मा.कांशी राम साहब के ऐतिहासिक भाषण का सातवां खण्ड डाक से मिला। इसे पढ़ने के बाद, भारतीय राजनीति के उस बहुत ही ऐतिहासिक और निर्णायक मोड़(6 जनवरी 1992 - 27 दिसंबर 1993) के बारे में जानकारी मिली, जिस पर आज की मौजूदा राजनीति टिकी हुई है। इसमें, पहले साहब कांशी राम द्वारा पिछड़ी जातियों की शासन-प्रशासन में भागीदारी को लेकर चलाये गए मण्डल आंदोलन और फिर इसे ही दबाने के लिए RSS-BJP द्वारा खड़े किये गए बाबरी मस्जिद-राम मंदिर आंदोलन(कमण्डल) से जुड़ीं विस्तारपूर्वक जानकारियां हैं।

इस खण्ड से हमें पता चलता है कि जब 10 अगस्त 1985 को गुजरात से आरक्षण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ तो तभी इसके जवाब में साहब कांशी राम ने दिल्ली से आरक्षण समर्थक आंदोलन छेड़ दिया था, जो 7 दिसंबर 1986 तक लगातार चला। 16-17 महीने लगातार चले इस आंदोलन के तहत उन्होंने पुरे देश में 5 सेमिनार, 1 हज़ार सिम्पोजियम(विषय पर विचार-विमर्श), 100 साइकिल रैलियाँ व 40 क्षेत्रीय सम्मेलन किये। 7 दिसंबर 1986 को इसका समापन लखनऊ में विशाल आरक्षण समर्थक समापन सम्मेलन कर किया गया था।

इस तरह उन्होंने मण्डल कमीशन मुद्दे पर 1990 में ज़ोर पकड़ने से कहीं पहले इसे लेकर एक देश व्यापी आंदोलन छेड़ दिया था, जिसके कारण आगे चलकर यह इतना बड़ा मुद्दा बन सका।

वो इस मुद्दे पर लगातार सक्रिय रहे। उनकी समझ इस विषय पर कितनी गहरी थी, इस बात का अंदाज़ा उनके 22 सितंबर 1992 को उरई, उत्तर प्रदेश के दिए गए एक भाषण के इस अंश से पता चलता है,

"शासन-प्रशासन में पिछड़े वर्ग की भागेदारी नज़र नहीं आती है, यह उनके साथ विश्वासघात की बड़ी लम्बी कहानी है, इसलिये हमारी जिम्मेदारी बन जाती है कि अपने साथियों को गुमराह होने से बचायें। आज मैं आरक्षण की ही बात कहने नहीं आया हूँ, यह बात तो पहले 16-17 महीने के संघर्ष में अच्छी तरह जान चुके हैं, पहचान चुके हैं। मैं तो यह बात कहने आया हूँ कि "जिन लोगों की शासन और प्रशासन में भागीदारी नहीं होती है वे अपने हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं और अन्त में ग़ुलाम बनकर रह जाते हैं।" अनुसूचित जाती-जनजाति की भागीदारी तय हुई है, वह पूरी नहीं हुई, परन्तु अन्य पिछड़े वर्ग की भागीदारी अभी तय ही नहीं हुई है।" (मण्डल रिपोर्ट एवं आरक्षण समर्थक सम्मेलन, उरई; 22 सितंबर, 1992, पृष्ठ 114)

यह खण्ड एक बहुत बड़े रहस्य से भी पर्दा उठाता है। OBC जातियों के बहुत से बुद्धिजीवी और नेता, मण्डल कमीशन रिपोर्ट को लागू करने का बहुत बड़ा श्रेय, भूतपूर्व प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह को देते हैं। लेकिन साहब कांशी राम के भाषणों को पढ़ने के बाद, यह ग़लतफ़हमी पूरी तरह दूर हो जाती है। वी.पी.सिंह द्वारा मण्डल कमीशन रिपोर्ट को लागू करना तो बहुत दूर की बात है बल्कि किस तरह वो उलटे पर्दे के पीछे से इसे रोकने में लगे हुए थे, के बारे में भी हैरानीजनक जानकारी मिलती है।

खुद साहब कांशी राम के शब्दों में,

"वी.पी.सिंह ने मंडल कमीशन की बात तब कही जब उन्होंने इसे रोकने का पूरा प्रबन्ध कर लिया। जज श्री रंगनाथ मिश्र को मुख्य न्यायधीश बना लिया तब मण्डल रिपोर्ट लागू करने की बात का नतीजा सामने है। रिपोर्ट आज तक लागू नहीं हो सकी।" (पृष्ठ 84)

वी.पी.सिंह पर मण्डल कमीशन लागू करने के लिए दबाव बने, इसके लिए उन्होंने "चुनावी वादा पूरा करो, वरना कुर्सी खाली करो" का ऐतिहासिक नारा भी दिया, जो की पूरे देश में गूंजा।

इसी जगह वो एक और भी बहुत महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए बताते हैं, "तमिलनाडु की ब्राह्मण मुख्यमंत्री(जयललिता) मण्डल कमीशन का समर्थन कर हिन्दी भाषी क्षेत्र के अन्य पिछड़ी जातियों को गुमराह कर रहीं हैं कि हम आप सभी के हितैषी हैं, जब कि तमिलनाडु में कुल 68 प्रतिशत आरक्षण आरक्षित है, जिसे 68 से 52 प्रतिशत पर लाना चाहती हैं।"

यह खण्ड एक दूसरा अहम पहलु भी सामने लाता है। जब साहब कांशी राम ने मण्डल आंदोलन द्वारा पुरे देश की पिछड़ी जातियों की भागीदारी का सवाल उठाया तो इसी से बौखला कर सवर्णों के नेतृत्व वाली RSS और भारतीय जनता पार्टी ने इसे दबाने के लिए बाबरी मस्जिद-राम मंदिर मुद्दे को जानबूझकर तूल दिया।

"कमण्डल" की आड़ में "मण्डल" को दबाने के खेले जा रहे इस ब्राह्मणवादी खेल में वो एक के बाद एक; भाजपा, कांग्रेस और जनता दल, सभी को बेनकाब करते हैं। हालात बिगड़ते देख वो दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों की एकता पर ज़ोर डालते हैं और मुलायम सिंह यादव के साथ नज़दीकी बढ़ाते हुए उन्हें वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर, चंद्रास्वामी जैसे ब्राह्मणवादी नेताओं से दूर रहने की सलाह भी देते हैं।

वो बहुजन समाज को सावधान करते हैं कि अगर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक एकजुट न हुए तो भाजपा देश की सत्ता तक पहुँच सकती है।

इसका असर होता है और जब 1993 में उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव हुए, तो उन्होंने मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर रामरथ पर सवार RSS-भाजपा को धूल चटा दी और "मिले मुलायम कांशी राम हवा हो गए जय श्री राम" का नारा देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सुर्ख़ियों में आया।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि, "मा.कांशी राम साहब के ऐतिहासिक भाषण, खण्ड -7" मण्डल-कमण्डल के दौर में किये गए उनके संघर्ष और विचारधारा को और भी बेहतर समझने के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज है। हालांकि पुरे बहुजन समाज को उनके संघर्ष और विचारों को जानने की बहुत ज़रूरत है, लेकिन यह खण्ड पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के लिए खास मायने रखता है और उन्हें तो इसे ज़रूर ही पढ़ना चाहिए।

माननीय अनंत राव अकेला जी द्वारा संपादित, "मा.कांशी राम साहब के ऐतिहासिक भाषण" के सभी खण्डों में से यह सातवां खण्ड, एक अलग ही पहचान रखेगा। इसे हम सब तक पहुँचाने के लिए उनका बहुत-बहुत धन्यवाद और शेष रह गए खण्डों का बेसबरी से इंतज़ार रहेगा।

- सतविंदर मदारा

इस सातवें और दूसरे खण्डों को मंगवाने के लिए माननीय अनंत राव अकेला जी को इस नंबर पर संपर्क करें - 9319294963


June 21, 2019

चम्मचे क्यो पैदा किये जाते है?

चम्मचे क्यो पैदा किये जाते है?

जब समाज का सच्चा प्रतनिधि समाज के लिए आवाज उठाता है, तो उस उठ रही आवाज को अपने ही समाज के लोगों द्वारा दबाने के लिए चम्मचे पैदा किये जाते है!

ये चम्मचे सिर्फ टिकट या फिर पद के लालच में अपने को समाज का नेता बनाने की कौशिश करता है! जबकि सच्चा प्रतिनिधि हमेशा परिवर्तन की बात करता है!

चम्मचे हमेशा मौसम (चुनाव के समय)के आधार पर चलता है! जबकि सच्चा प्रतिनिधि लगातार रात दिन समाज के साथ चलता है और समाज को एक जुट करने में लगा रहता है!

चम्मचे हमेशा अचानक उठाकर हीरो बनाऐ जाते है, मीडीया में उसे खूब पब्लिसीटी दी जाती है, जबकि सच्चे लीडरशीप को टीवी न्यूज चैनलों में कभी नही दिखाया जाता!

चम्मचे हमेशा अपने लिये जीता है जबकि सच्चा लीडर समाज को ऊपर उठाने के लिए जीता है!

चम्मचों का मोल भाव तय किया जाता है जहां ज्यादा मुनाफा हो वहां जाना पसंद करता है, जबकि सच्चा लीडर समाज को शासक बनाने के लिए अपना खून पसीना बहाता है!

जब चम्मचों की संख्या अचानक बढने लगेगी, तब सच्चे लीडरशीप को पहचान कर अगर उनका तन मन धन से सहयोग कर दिया तो समझ लेना, दुश्मन का ये वार खाली चला गया है, और हम आजादी के बहुत करीब खड़े हो जाऐंगें!

वर्तमान परिस्थितियाँ यही बयां कर रही है! हमें अपने सच्चे लीडरशीप को पहचानना होगा! सच्चे लीडरशीप को पहचानने के लिए हमारे बहुजन समाज में सामाजिक, राजनीतिक, वैचारिक समझ विकसित करना होगा!

जरूरी नही राजनीतिक समझ सिर्फ नेताओं को ही हो, ये बहुजन समाज के हर इन्सान को होनी चाहिए! अगर हमारे अंदर ये तीनों समझ आ गई तो हम कभी भी किसी नेता विशेष और पार्टी विशेष का भक्त नही बनेगें, बल्कि अपनी बुलंद आवाज से हमारी नीति हम खुद बनाऐगें!

उदाहरण- संसद में हम 130 करोड़ लोग बैछ नही सकते, इसलिए हम सांसद या विधायक चुनवाकर भेजते है! वो हमारे खिलाफ कानून बनाते है, जब उपरोक्त तीनों विषय की हमें समझ होगी तो जनता अपनी संसद सड़कों पर चलाऐगी ओर जनशक्ति के आगे दुनिया की कोई भी शक्ति नही टिकती! जन शक्ति ही अपना कानून आप बनाऐगी!

विदेशों में लोगों को ये तीनों समझ है इसलिए वे जनशक्ति के आगे सरकारों को मजबूर कर देती है! इसके लिए चम्मचों को पहचान कर उनका बायकाट करना होगा!

- सुरेश कुमार नायक 
सन्दर्भ : चमचायुग

June 17, 2019

आज अगर कबीर होते!!

क्रांति की एक ज्योति है कबीर, निरे साधु संत नहीं और न ही महज़ संत कवि। कबीर तो उस वक्त की तमाम वंचनाओं व विषमताओं और धर्मांध अंध श्रद्धाओं पर धारदार प्रहार करने में लगे हुये थे।

'जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिये ज्ञान' कहकर कबीर जन्मना जाति की घृणित व्यवस्था को चुनौती दे रहे थे ,वे खुलकर कह रहे थे- 'हम वासी उस देश के ,जहाँ जाति, वरण ,कुल नाहीं'

कबीर पत्थरों में खुदा तलाश रहे बुतपरस्तों को भी ललकारते हुए कह पा रहे थे -'पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार' ,दूसरी तरफ बांग लगाते मुल्लाओं से भी उनका सवाल था -'कांकर पाथर जोरि के,मस्ज़िद लई बनाय,ता चढ़ि मुल्ला बांग दे,क्या बहिरा हुआ खुदाय'

आज कबीर होते तो क्या वह कह पाते यह सब ? मुझे तो लगता है कि अगर आज कबीर यह कहते तो सत्ता प्रतिष्ठान उनको 295 (ए) में अन्दर कर देता अथवा धर्म के ध्वजवाहक ,मजहब के झंडाबरदार तथा नैतिकता के स्वयम्भू पैरोकार उन्हें मॉब लिंचिंग में मार डालते।

कबीर को उस वक्त की राज्य सत्ता ने मदमस्त हाथी से कुचलवाने की कोशिश की थी, पंडे पुरोहित, मुल्ले मौलवियों ने उनको उलझाने की साज़िश की थी, पर कबीर ने इनकी कोई परवाह न की।

वह जुलाहा "रामानंद की फौज" से अकेले ही भिड़ता रहा, यत्र तत्र विचरता रहा, लोगों को अपने चरखे और कताई के प्रतीकों के ज़रिये ज्ञान, विवेक और चैतन्यता का बोध कराता रहा।

उसने किसी की परवाह न की, न धर्म की, न शास्त्रों की और न ही शास्त्रीय भाषा की, उलटबासियों के ज़रिए, अपने शब्द व साखियों के जरिये कबीर जन साधारण को जगाते रहे।

'पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ' ..कहकर कबीर ने शिक्षा पर पुरोहित वर्ग के एकाधिकार को चिन्हित किया और दूसरे ही क्षणयह भी कह डाला 'ढाई आखर प्रेम का ,पढ़े सो पंडित होय'.

कबीर 'कागद' की लिखी से ज्यादा 'आँखन की देखी' की बात करते है, यह किताबों को ईश्वरीय बताकर आम जन की चेतना का हरण करके उन्हें श्रद्धालु बना डालने के पुरोहित वर्ग के षड़यंत्र के विरुद्ध कबीर का विद्रोह है।

कबीर वेद, कुरान, पुराण, धर्म, मजहब, पंथ और जाति, वर्ण की कुल श्रेष्ठता के दंभी दावों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने अनुभव जन्य यथार्थ से अवगत कराते हैं।

कबीरआग है, उससे बचा नहीं जा सकता है, कबीर नग्न सत्य है, उस पर कोई लीपापोती नहीं हो सकती है, जो है, सो है यही तो कबीरी है, यही तो फ़क़ीरी है।

कबीर बाजार में भी 'लिये लुकाटी हाथ' निर्भीक खड़े है, ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर की भावभूमि पर ..कबीर का कोई मुकाबला नहीं है, कबीर होना आसान भी तो नहीं है।

कबीर होने के लिए असली फकीर होना पड़ता है।आज के फ़क़ीरों की तरह अदाकारी से काम नहीं चलता ।

-भंवर मेघवंशी
( संपादक - शून्यकाल )

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June 2, 2019

"धम्म" में बुद्ध का स्थान

बुद्ध ने अपने ही धम्म में अपने लिए किसी स्थान का दावा नहीं किया। 

ईसा मसीह ने ईसाईयत का परमेश्वर होने का दावा किया। इससे आगे उन्होंने यह भी दावा किया कि वह परमेश्वर का बेटा है। 

  • ईसा मसीह ने यह भी शर्त निश्चित की कि जब तक कोई मनुष्य, यह न स्वीकार करे कि ईसा मसीह परमेश्वर का बेटा है, तब तक इसकी मुक्ति हो ही नहीं सकती। 
  • इस प्रकार ईसा मसीह ने किसी भी ईसाई को मुक्ति के लिए अपने आप को परमेश्वर का बेटा मानने की अनिवार्य शर्त रखकर, ईसाईयत में अपने लिए एक खास स्थान बना लिया। 
  • इस्लाम के पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब का दावा था कि वह खुदा द्वारा भेजे गए इस्लाम के पैगंबर थे ।
  • उन्होंने आगे और दावा किया कि कोई आदमी तब तक निजात (=मुक्ति) नहीं पा सकता जब तक वह ये दो बातें और न स्वीकार करे। 
  • इस्लाम में रहकर निजात (=मुक्ति) की इच्छा रखने वाले के लिए यह स्वीकार करना आवश्यक है कि हज़रत मुहम्मद साहब खुदा के पैगंबर हैं। 
  • इस्लाम में रहकर निजात (=मुक्ति) चाहने वाले के लिए यह भी स्विकार करना आवश्यक है कि हज़रत मुहम्मद साहब खुदा के आखिरी पैगंबर हैं। 
  • इस प्रकार इस्लाम में निजात (= मुक्ति) केवल उन्हीं के लिए निश्चित है जो ऊपर की दो शर्ते स्वीकार करते हैं । 
  • इस तरह हजरत मुहम्मद साहब ने किसी भी मुसलमान की निजात (=मुक्ति) उसके द्वारा उन्हें खुदा का पैगंबर स्वीकार करने की अनिवार्य शर्त पर निर्भर करवा कर अपने लिए इस्लाम में एक विशेष स्थान बना लिया । 
  • बुद्ध ने कभी भी ऐसी कोई शर्त नहीं रखी। उन्होंने स्वयं को शद्धोदन और महामाया का स्वाभाविक पुत्र होने के अतिरिक्त कभी कोई दूसरा दावा ही नहीं किया । 
  • उन्होंने ईसा मसीह और हजरत मुहम्मद साह्ब की तरह मुक्ति की शर्त लाकर अपने धम्म शासन में अपने लिए कोई खास स्थान नहीं बनाया।
  • यही कारण है कि इतना प्रचुर ग्रंथसमूह रहते हुए भी हमें बुद्ध के व्यक्तिगत जीवन के बारे में इतनी कम जानकारी प्राप्त है । 
  • जैसा कि ज्ञात है, बुद्ध के महापरिनिब्बान के बाद राजगृह में प्रथम बौद्ध संगीति थी। 
  • उस संगीति में महाकस्सप अध्यक्ष थे। आनंद , उपालि और अन्य दूसरे लोग कपिलवस्त के ही थे और जो जहां- जहां बुद्ध गए प्रायः हर जगह मृत्यु - पर्यंत उनके साथ रहे, वे सब वहां उपस्थित थे । 
  • लेकिन संगीति के अध्यक्ष महाकस्सप ने क्या किया ? 
  • उन्होंने आनंद से कहा कि वह "धम्म" को दोहराएं और तब 'संगीति- कारकों' से पूछा कि “ क्या यह ठीक है?" उन्होंने ''हां'' में उत्तर। महाकस्सप ने तब उस विषय पर प्रश्न करने समाप्त कर दिये। 
  • तब महाकस्सप ने उपालि से कहा कि वह 'विनय' को दोहराएं और तब 'संगीति-कारकों' से पूछा कि ''क्या यह ठीक है?'' उन्होंने ''हा'' में उत्तर दिया। महाकस्सप ने तब इस विषय पर प्रश्न करने समाप्त कर दिये । 
  • तब महाकस्सप को चाहिए था कि वह वहां संगीति में उपस्थित किसी को तीसरा प्रश्न करते और आज्ञा देते कि वह बुद्ध के जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाओं को बताएं। 
  • लेकिन महाकस्सप ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सोचा कि ''धम्म'' और ''विनय'' ही दो ऐसे विषय हैं जिनसे संघ का सरोकार है । 
  • यदि महाकस्सप ने बुद्ध के जीवन की घटनाओं का ब्यौरा तैयार करा लिया होता, तो आज हमारे पास बुद्ध का एक पूरा जीवन चरित्र होता। 
  • बुद्ध के जीवन की मुख्य - मुख्य घटनाओं का एक ब्योरा तैयार करा लेने की बात महाकस्सप को क्यों नहीं सूझी ? 
  • इसका कारण उपेक्षा नहीं हो सकती। इसका केवल एक ही उत्तर है कि बुद्ध ने अपने ''धम्म-शासन'' में अपने लिए कोई विशेष स्थान सुरक्षित नहीं रखा था। 
  • बुद्ध और धम्म सर्वथा अलग - अलग थे। उनका अपना स्थान था, धम्म का अपना। बद्ध द्वारा स्वयं को धम्म से पृथक रखने का एक और उदाहरण है उनके द्वारा अपना उत्तराधिकारी बनाना अस्वीकार करना। दो या तीन बार बुद्ध के अनुयायियों ने उनसे निवेदन किया कि वे किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करें। 
  • हर बार बुद्ध ने अस्वीकार कर दिया। उनका उत्तर था,
  • ''धम्म ही स्वयं का उत्तराधिकारी होना चाहिए'' ।
  • ''सिद्धांत को स्वतंत्र रूप से अपने पर ही निर्भर रहना चाहिए, किसी व्यक्ति के अधिकार के बल पर नहीं।''
  • "यदि सिद्धांत को किसी व्यक्ति के अधिकार पर निर्भर रहने की आवश्यक्ता है तो वह सिद्धांत ही नहीं।''
  • "यदि धम्म की प्रतिष्ठा के लिए हर बार इसके संस्थापक का नाम रट्ते रहने कि आवश्यकता है , तो वह धम्म नहीं है।''
  • अपने धम्म को लेकर स्वयं अपने बारे में बुद्ध का यही दृष्टिकोण था।
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

June 1, 2019

फुले की "गुलामगिरी" - ब्राह्मणवाद से मुक्ति का पहला घोषणापत्र

शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति का पहला घोषणा-पत्र आज ही प्रकाशित हुआ था। आज के दिन 1 जून 1873 शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति के पहले घोषणा-पत्र गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ था। यह ब्राह्मण से पूर्ण मुक्ति का घोषणा-पत्र है। हम सभी जानते है कि यह घोषणा-पत्र डॉ. आंबेडकर के गुरू और आधुनिक युग में ब्राह्मणवाद-मनुवाद को निर्णायक चुनौती देने वाले पहले व्यक्तित्व जोतिराव फुले ने तैयार किया था। फुले की किताबों में गुलामगिरी का वही महत्व है, जो डॉ. आंबेडकर की किताबों में जाति के विनाश का है। 

इस किताब में फुले ने प्राचीनकाल से आधुनिक युग तक ब्राह्मणवाद के सभी तथाकथित ईश्वरों, नायकों और धर्मग्रंथों की असलियत को तथ्यों और तर्कों के साथ उजागर किया है। इस प्रश्न का भी जवाब दिया है कि आखिर क्यों और कैसे ब्राह्मणों से दस गुना अधिक आबादी वाले शूद्रों-अतिशूद्रों को ब्राह्मणों ने अपना गुलाम बना लिया। इस गुलामी से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है। इसका भी रास्ता फुले सुझाया है। क्या है इस किताब में आइए विस्तार से पढ़ें-

1 जून 1873 को जोतिराव फुले (11अप्रैल 1827 - 28 नवम्बर 1890) की रचना ‘गुलामगिरी’ का प्रकाशन हुआ था। यह किताब मराठी में लिखी गयी। इसकी प्रस्तावना फुले ने अंग्रेजी में और भूमिका मराठी में लिखी है। इस किताब को लिखने का मूल उद्देश्य बताते हुए फुले ने लिखा है कि,
"इस किताब को लिखने का एकमात्र उद्देश्य सभी उत्पीड़ित लोगों को उनकी गुलामी का अहसास दिलाना, उनको इस योग्य बनाना कि वे अपनी इस हालात के कारणों को पूरी तरह समझ सकें और अपने आप को ब्राह्मणों की गुलामी, उत्पीड़न एवं अन्याय से मुक्त करने के लिए सक्षम बना सके।" (गुलामगिरी की भूमिका)


फुले ने करीब 12 किताबें लिखी हैं। इन सभी किताबों में उन्होंने ऐसी शैली और भाषा का प्रयोग किया है, जिससे ये किताबें व्यापक दलित-बहुनजों और मेहनतकशों स्त्री-पुूरूषों को समझ में आ जाएं। अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए फुले ने गुलामगिरी भी संवाद शैली में लिखा और उसे विभिन्न छोटे-छोटे परिच्छेदों में विभाजित किया । गुलामगिरी में कुल सोलह परिच्छेद हैं। इसके अलाव उन्होंने इसमें एक लंबा पंवाड़ा और बहुजन संत तुकाराम की शैली पर लिखित तीन अभंग भी समाहित किया है।

फुले ने इस किताब को यूनाइटेड स्टेट्स (अमेरिका) के उन लोगों को समर्पित किया है, जो नीग्रों गुलामों की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्हें समर्पित करते हुए फुले ने लिखा है कि,
“यूनाइटेड स्टेट्स के उन महान लोगों के सम्मान में, जिन्होंने नीग्रों लोगों को गुलामी से मुक्त कराने के कार्य में उदारता और निष्पक्षता के साथ सहयोग किया और उनके लिए कुर्बानी दी। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे देशवासी उनके इस सराहनीय कार्य का अनुकरण करें और अपने शूद्र भाईयों को ब्राह्मणी जाल से मुक्त कराने में अपना सहयोग करें”।(गुलामगिरी, समर्पण पृष्ठ)
यह किताब सोलह परिच्छेदों में विभाजित है। इन सोलह परिच्छेदों में प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल में ब्राह्मणों और शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच चले संघर्षों की कथा कही गई हैं। यहां एक तथ्य रेखांकित कर लेना जरूरी है कि फुले पश्चिमोत्तर भारत, विशेषकर आज के महाराष्ट की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचना के संदर्भ में यह किताब लिख रहे हैं। जहां मूलत: शू्द्रों-अतिशूद्रों पर वर्चस्व कायम करने और उन्हें अपना गुलाम बनाने वाली जाति ब्राह्मण रही है। वहां द्विज क्षत्रिय जैसी जाति नहीं रही है। समाज का विभाजन मूलत: शोषक-उत्पीड़क ब्राह्मण और शोषित-उत्पीड़ित शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच था।

फुले अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में बताते हैं कि इस क्षेत्र में ब्राह्मणों के आगमन और बाद में उनके द्वारा वर्चस्व स्थापित करने से पहले यहां वर्ण या जाति का विभाजन नहीं था। यहां एक समता आधारित राज्य था। जिसके प्रतीक बलि का राज्य या बलि राजा हैं। यह एक आर्थिक तौर पर समृद्ध इलाका था। जहां सभी खेती-किसानी करते थे और जरूरत पड़ने पर बाहरी दुश्मनों से युद्ध करते थे। इसके चलते सभी क्षत्रिय थे। फुले ने सबको क्षत्रिय के रूप में संबोधित भी किया है। परिच्छेद: छह में बलि राजा और उनके राज्य का वर्णन करते हुए फुले ने लिखा है कि “ इस देश का एक बड़ा भाग बलिराज के अधिकार में था।...दक्षिण में बलि के अधिकार में दूसरा एक प्रदेश था, उसको महाराष्ट्र कहा जाता है। वहां के मूल निवासियों को महाराष्टियन कहा जाता था। बाद में अपभ्रंश रूप हो गया मराठे।” फुले गुलामगिरी में यह स्थापित करते हैं ब्राह्मणों के वर्चस्व के पहले मराठों में कोई वर्ण-जाति विभाजन नहीं था। मराठों की संख्या ब्राह्मणों से दस गुनी से अधिक थी। मराठों को हमेशा-हमेशा के लिए अपने अधीन बनाने के लिए ब्राह्मणों ने शिक्षा का अधिकार छीन लिया और उन्हें हजारों जातियों में विभाजित कर दिया।

गुलामगिरी की भूमिका में स्वयं फुले ने यह सवाल उठाया है कि शूद्रों-अतिशूद्रों की संख्या करीबन दस गुना ज्यादा है। फिर भी ब्राह्मणों ने शूद्रों- अतिशूद्रों को कैसे मटियामेट कर दिया? स्वंय फुले इसका जवाब देते हैं। वे लिखते हैं ‘सबसे पहले ब्राह्मणों ने शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच नफरत की भावना फैलाने के लिए योजना तैयार की। उन्होंने प्रेम की बजाय नफरत के बीच बोये। इसके पीछे उनकी चाल यह थी कि शुद्र-अतिशूद्र समाज आपस में लड़ते रहेंगे, तभी ब्राह्मणों का वर्चस्व मजबूत होगा और स्थायित्व ग्रहण करेगा। उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बना लेंगे और बिना मेहनत किए उनकी (शूद्रों-अतिशूद्रों) की कमाई पर बिना किसी रोक-टोक के गुलछर्रे उड़ा पायेंगे। अपनी इसी विचारधारा और चाल को अंजाम तक पहुंचाने के लिए ब्राह्मणों ने जाति-भेद की फौलादी-जहरीली दीवारें खड़ी की। जाति-भेद की इस विचारधारा को शूद्र-अतिशूद्र भीतर से स्वीकार कर लें, इसके लिए जाति-भेद को ईश्वर की रचना बताने के लिए ब्राह्मणों ने बहुत सारे ग्रंथ रचे। इस सबका परिणाम यह हुआ कि कभी एक ही समाज के लोग अब एक दूसरे को नीच समझने लगे, एक दूसरे से नफरत करने लगे और आपस में लड़ने लगे। शूद्र-अतिशूद्र समाज की आपस की फूट का ब्राह्मणों ने कैसे फायदा उठाया। इस पूरी स्थिति पर ‘दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ’ कहावत बहुत सटीक बैठती है। इसका मतलब समझाते हुए फुले कहते हैं कि ब्राह्मण-पंडा पुरोहितों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के बीच आपस में नफरत का बीज (जाति) बो दिया और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशो-आराम कर रहे हैं।

सोलह परिच्छेदों में विभाजित गुलामी के पहले परिच्छेद में फुले ब्रह्मा की उत्पत्ति और आर्यों के आगमन की विस्तार से चर्चा करते हैं। कैसे ब्राह्मणों ने स्वयं को भूदेव या धरती का देवता बनाया, इस पर विस्तार से रोशनी डालते हैं। इस परिच्छेद में ब्राह्मणों की धूर्तता और बर्बर चरित्र की चर्चा की गई है। फुले लिखते हैं कि ‘सबसे पहले उन आर्य लोगों ने बड़ी-बड़ी टोलियां बनाकर इस देश में आकर कई बर्बर हमले किए और यहां के मूल निवासी राजाओं के प्रदेशों पर बार-बार हमले करके आतंक फैलाया। (गुलामगिरी, पहला परिच्छेद)। परिच्छेद दो में ब्राह्मणों के अगुवा मत्स्य और उसके हमले की चर्चा की गई। परिच्छेद तीन में कच्छ, भूदेव, भूपति, द्विज, कश्यप और क्षत्रिय आदि का वर्णन किया गया है। इसमें आर्य-ब्राह्मणों के अगुवा कच्छप के नेतृत्व में मूल निवासियों पर होने वाले हमले का वर्णन है। परिच्छेद चार-पांच में आर्यों-ब्राह्मणों के नेता वराह द्वारा मूल निवासियों के राजा हिरण्यकश्यप और हिरण्यगर्भ की छल से हत्या की कहानी की हकीकत को फुले ने उजागर किया है। इसी में हिरण्यकश्यप के बेटे प्रहलाद को अपने जाल में फंसाने की ब्राह्मणों की चाल को दिखाया गया है। इस युद्ध में वराह और नरसिंह आर्यों के अगुवा थे। परिच्छेद छह बलिराजा और उनके राज्य पर केंद्रित है। कैसे ब्राह्मणों के अगुवा वामन ने उनकी हत्या किया, इसका वर्णन किया गया है। महाराष्ट्र के समाज में बलिराजा को लोग कितना प्यार एवं सम्मान देते हैं और उनके राज्य की वापसी की आज भी चाह रखते हैं। इस तथ्य को फुले ने महाराष्ट्र के लोक में व्यापक तौर पर स्वीकृत “अला बला जावे और बलि का राज्य आवे” के माध्यम से प्रकट किया है।

ये सभी परिच्छेद इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि आर्य-ब्राह्मणों ने मूल निवासियों के राज्य पर कई बार हमले बोले। उनके बीच युद्ध हुआ। अंततः मूल निवासियों की पराजय और ब्राह्मणों की विजय हुई। आर्य-ब्राह्मणों में सबसे कूर, नृशंस और बेरहम परशुराम था। फुले के अनुसार परशुराम के द्वारा 21 बार जिन क्षत्रियों के विनाश की कथा पुराणों में कही गई है, वे क्षत्रिय कोई और नहीं, बल्कि यहां के मूल निवासी शूद्र-अतिशूद्र थे। परशुराम ने किस नृशंसता से उनका कत्ल किया, इसका विस्तार से वर्णन परिच्छेद आठ में किया गया है। परिच्छेद नौ, दस, ग्यारह, बारह में ब्राह्मणों के पूर्ण वर्चस्व की स्थापना की कथा कही गई है।

परिच्छेद तेरह से लेकर पंद्रह तक, आधुनिक युग में अंग्रेजों के आगमन, शूद्रों-अतिशूद्रों की स्थिति में थोड़ा सुधार एवं परिवर्तन, अंग्रेजों के राज्य में भी कैसे ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व कायम किया, इसका वर्णन किया गया है। इस इन परिच्छेदों में अंग्रेजी राज कैसे शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए थोड़ी राहत लेकर आया? कैसे इन समुदायों को थोड़ी आजादी और सांस लेने का मौका मिला और इस अवसर का फायदा शूद्रों-अतिशूद्रों शिक्षा पाने के लिए उठाया इसका भी वर्णन किया है। गुलागिरी के एक अभंग में फुले लिखते हैं-
मनु जलकर खाक हो गया, जब अंग्रेज आया।
ज्ञान रूपी मां ने हमकों दूध पिलाया।।

इन्हीं परिच्छेदों में ब्राह्मणवादी पेशवाई की पराजय और अंग्रेजों की विजय के परिणामों की भी चर्चा है। सबकुछ के बावजूद भी अंग्रेजी शिक्षा का फायद उठाकर ब्राह्मणों ने अंग्रेजों के राज्य में कैसे अपना वर्चस्व कायम रखा फुले इसके कारणों की भी विस्तार से चर्चा करते हैं।

परिच्छेद सोलह में ब्राह्मणों के चुंगल से शूद्रों-अतिशूद्रों की कैसे मुक्ति हो, इस विषय पर केंद्रित है। इसमें वे शूद्रों-अतिशूद्रों के प्रतिनिधि के रूप में तीन प्रतिज्ञा लेते हैं-
  1. ब्राह्मणों ने जिन तीन प्रमुख धर्मग्रंथों के आधार पर शूद्र-अतिशूद्र लोग ब्राह्मण के गुलाम हैं और उनके जिन ग्रंथों में हमारी गुलामी के समर्थन में लिखा गया है, हम उन सभी धर्मग्रंथों को खारिज करते हैं।
  2. जो कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नीचा समझने का आचरण करते है। हम उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं देंगे।
  3. जो गुलाम ( शूद्र, दास, दस्यु) के अपने रचयिता को मानकर नीति के अनुसार चलने और जीविकोपार्जन का उचित साधन अपने का निर्णय करते और उसके अनुसार अपना आचरण करते हैं। उनको हम अपने परिवार के भाई की तरह मानेंगे, उन्हें प्यार करेंगे और उनके साथ खाना-पीना करेंगे। चाहे वे लोग किसी भी देश के रहने वाले क्यों न हो। ( गुलामगिरी परिच्छेद : सोलह)
इस किताब का अंत अभंग की इन निम्न पंक्तियों से होता है-
पढ लो मेरा लेख, जोतिराव कहे।।
हम शिक्षा पाते ही, पाएंगे वह सुख।

- सिद्धार्थ रामु

ज्योतिबा फुले लिखित "गुलामगिरी " किताब :


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May 31, 2019

बामसेफ एक परिचय - साहब कांशी राम

बामसेफ का निर्माण पिछड़े वर्गों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, अन्य पिछड़े वर्ग) एवं अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षित कर्मचारियों द्वारा उस दलित शोषित समाज को जिसमें वे पैदा हुए हैं दासता से मुक्ति दिलाने के लिए किया गया है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संगठन की संरचना एवं यंत्र रचना को भी परिकल्पित और निर्मित किया गया है।

इस लक्ष्य की ओर बामसेफ शिक्षित कर्मचारियों का एवं उस दलित, शोषित समाज के लिए जिसमें वे पैदा हुए हैं एक प्रथम प्रयास जान पड़ता है। बामसेफ हमारी तीव्र अभिलाषा, श्रमसाध्य विवेचन, परखे हुए प्रयोग एवं उत्सर्जित धारा की उपज है| प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बामसेफ लगभग एक दशाब्दी के लम्बे प्रयास का परिणाम है। जिसका पूरा और व्यवहार उल्लेख पुस्तक के रूप में बहुत ही शीघ्र आप के सामने आ जाएगा। पुस्तक लगभग 25 पृष्ठों की होगी। विगत वर्ष के दौरान ही मैं पुस्तक को निकालना आवश्यक समझ रहा था परन्तु व्यापक पैमाने पर क्षेत्र-कार्य और संगठनात्मक प्रयासों में व्यस्त रहने के कारण मैं उसे पूरा नहीं कर सका अन्यथा ऐसी पुस्तक निकालने का परिपक्व और उपयुक्त अवसर 14 अक्टूबर 1981 को चंडीगढ़ में आयोजित बामसेफ का त्रुतिय राष्ट्रिय अधिवेशन था.. 

मैने उक्त क्षति को पूरा करने के लिये उस विस्तृत उल्लेख का लि आप पूरी पुस्तक के रूप में देखेंगे यह संक्षिप्त रूप शीघ्रलेखित कराया है। आशा है कि इससे विस्तृत रूप में नही तो ऐसे अवसर पर जब पूरे भारत के प्रतिनिधि गण चण्डीगढ़ में एकत्र हो रहे हैं, बामसेफ की संक्षिप्त वास्तविक जानकारी अवश्य प्राप्त होगी।

14 अक्टूबर, 1981
चण्डीगढ़

- साहब कांशी राम

पुस्तक संकलन - अनंतराव अकेला (+919319294963) (साहब कांशीराम के ऐतिहासिक भाषण और यह किताब मंगवाने के लिए संपर्क करे)

किताब पढ्ने के लिए निचे कि लिंक पर क्लिक करे ः 

May 30, 2019

बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा संविधान सभा में दिया गया अंतिम भाषण

संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की तीन चेतावनियाँ आज भी प्रतिध्वनित क्यों होती हैं? 25 नवंबर, 1949 के दिन उन्होंने अराजकता के व्याकरण को छोड़ने, नायकों की पूजा से बचने, और सिर्फ़ राजनीतिक लोकतंत्र की दिशा में काम करने के बजाए, सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में भी काम करने की बात कही। प्रस्तुत हैं उनके भाषण के अंश :

26 जनवरी 1950 को, भारत एक स्वतंत्र देश होगा। उसकी स्वतंत्रता का क्या होगा? क्या वह अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखेगा या फिर वह इससे खो जाएगी? यह पहला विचार है जो मेरे दिमाग़ में आता है। ऐसा नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। मुद्दा यह है कि वह एक बार अपनी स्वतंत्रता खो चुका है। क्या वह इसे दूसरी बार भी खो देगा? यह ऐसा विचार है जो मुझे भविष्य के लिए सबसे अधिक चिंतित करता है।

भारत ने एक बार पहले भी अपनी स्वतंत्रता खोई है, इस तथ्य से ज़्यादा मुझे यह तथ्य अधिक चिंतित करता है कि वह स्वतंत्रता उसने अपने कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण खोई है।

मुहम्मद-बिन-कासिम द्वारा सिंध पर आक्रमण के समय राजा दाहिर के सैन्य कमांडरों ने मुहम्मद-बिन-कासिम के एजेंटों से रिश्वत ले ली और अपने स्वयं के राजा के पक्ष में लड़ने से मना कर दिया। वह जयचंद ही था जिसने भारत पर आक्रमण करने और पृथ्वी राज चौहान से लड़ने के लिए मुहम्मद गौरी को भारत में आमंत्रित किया और उससे, उसकी और सोलंकी राजाओं की सहायता का वादा किया। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तो अन्य मराठा राजवंश और राजपूत राजा मुगल सम्राटों के साथ मिलकर लड़ाई लड़ रहे थे। जब ब्रिटिश, सिख शासकों को नष्ट करने की कोशिश कर रहे थे, उस समय उनके प्रमुख कमांडर गुलाब सिंह चुप थे और सिख राज्य को बचाने में मदद नहीं कर रहे थे। सन् 1857 में जब भारतीय जनता के बड़े तबके ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई घोषित की, तो सिख तमाशबीनों की तरह खड़े होकर चुपचाप देखते रहे।

क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह ऐसा विचार है जो मुझे चिंतित करता है। यह चिंता इस तथ्य के बोध से और अधिक गहरी है कि जाति और पंथ के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त, हमारा साथ बहुत से राजनीतिक दलों व उनके विविध एवं विरोधी राजनैतिक पंथों के साथ भी जुड़ने जा रहा है। क्या भारतीय अपने देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे देश के ऊपर पंथ स्थापित करेंगे? मुझे नहीं पता। लेकिन यह बहुत निश्चित है कि यदि दलों ने देश से ऊपर पंथ स्थापित किया, तो हमारी स्वतंत्रता को दूसरी बार संकट में डाल दिया जाएगा और संभवत: यह हमेशा के लिए खो जाएगी। इस परिस्थिति में हम सभी को दृढ़ता से हमारे रक्त की आख़िरी बूँद के साथ हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए।

26 जनवरी 1950 को, भारत इस अर्थ में एक लोकतांत्रिक देश होगा कि उस दिन से भारत में जनता की सरकार, जनता के द्वारा और जनता के लिए होगी। वही विचार मेरे मन में आता है कि उसके लोकतांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह इसे बनाए रखने में सक्षम होगा या फिर वह इससे खो जाएगा? यह दूसरा विचार है जो मेरे दिमाग में आता है और मुझे पहले की तरह चिंतित करता है।

लोकतांत्रिक प्रणाली :

ऐसा नहीं है कि भारत को नहीं पता था कि लोकतंत्र क्या है। एक समय ऐसा भी था जब भारत गणराज्यों से भरा था, और यहाँ तक कि जहाँ भी राजतंत्र थे, वे या तो निर्वाचित थे या सीमित थे। वे कभी पूर्ण नहीं थे। और ऐसा भी नहीं है कि भारत संसद या संसदीय प्रक्रिया को नहीं जानता था।
"बौद्ध भिक्षु संघों का एक अध्ययन यह खुलासा करता है कि वहाँ न केवल संसद थीं (संघों के लिए संसद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था) बल्कि संघ आधुनिक समय में ज्ञात संसदीय प्रक्रिया के सभी नियम जानते और मानते थे। उनके पास बैठक व्यवस्था, प्रस्तावना, विश्लेषण एवं समाधान, कोरम, अनुदेश, वोटों की गिनती, बैलेट द्वारा मतदान, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि के बारे में नियम थे। हालांकि संसदीय प्रक्रिया के इन नियमों को बुद्ध द्वारा संघ की अनेक अलग-अलग बैठकों में लागू किया गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि संघों ने उन्हें अपने समय में देश में काम करने वाले राजनीतिक विधानसभाओं के नियमों से उधार लिया होगा।"
भारत ने इस लोकतांत्रिक प्रणाली को खो दिया। क्या वह इसे दूसरी बार भी खो देगा? मुझे नहीं पता। लेकिन भारत जैसे देश में यह काफी संभव है। जहाँ लंबे समय से इस्तेमाल की जाने वाली लोकतांत्रिक प्रणाली को नया माना जाए, वहाँ लोकतंत्र को तानाशाही में बदल जाने का खतरा होता है।

तीन चेतावनियां :

यदि हम लोकतंत्र को केवल एक रूप में बनाए रखने के बजाए उसे एक तथ्यात्मक रूप देना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिए?

मेरे फैसले में सबसे पहले हमें सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीकों को मजबूती से पकड़कर इन्हें पूरा करना चाहिए। इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को छोड़ देना चाहिए। और इसका मतलब यह है कि हमें सामाजिक अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह की विधि को छोड़ देना चाहिए। जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ा गया था, तो असंवैधानिक तरीकों के लिए पर्याप्त औचित्य था। लेकिन जहाँ संवैधानिक तरीके खुले हैं, इन असंवैधानिक तरीकों के लिए कोई औचित्य नहीं हो सकता है। ये विधियाँ अराजकता के व्याकरण के अलावा कुछ भी नहीं हैं और जितनी जल्दी वे छोड़ दी जाती हैं, उतना ही हमारे लिए बेहतर है।

दूसरी चीज़ हमें ‘जॉन स्टुअर्ट मिल’ के उस कथन को अवश्य याद रखना चाहिए जो उन्होंने लोकतंत्र के रखरखाव में दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों को सावधानी बरतने के लिए दिया है कि,
“किसी भी महान व्यक्ति के पैरों पर अपनी आज़ादी न रखें, और न ही उस पर इतना विश्वास करें जो उसे आपके संस्थानों को नष्ट करने में सक्षम बनाता है।” 
उन महान पुरुषों के लिए आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है, जिन्होंने देश के लिए अपने अपने पूरे जीवनकाल भर सेवाएँ दी हैं। लेकिन कृतज्ञता की भी सीमाएं हैं। जैसा कि ‘आयरिश पैट्रियट डैनियल ओ कोनेल’ ने कहा है “कोई भी व्यक्ति अपने सम्मान के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई भी स्त्री उसकी पवित्रता के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता के मूल्य पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।” यह सावधानी किसी भी अन्य देश के मामले की तुलना में भारत के मामले में कहीं अधिक आवश्यक है। भारत में भक्ति, भक्ति मार्ग या नायक-पूजा दुनिया में किसी भी अन्य देश की तुलना में राजनीति में अप्रत्याशित एवं अद्वितीय भूमिका निभाती है। 
धर्म में भक्ति आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकता है लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा गिरावट और तानाशाही के लिए एक निश्चित मार्ग है।
तीसरी चीज़ हमें केवल राजनीतिक लोकतंत्र के साथ संतुष्ट नहीं होना है। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को भी एक सामाजिक लोकतंत्र बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक सही ढंग से सक्रिय और सक्षम नहीं हो सकता जब तक कि इसमें सामाजिक लोकतंत्र का आधार न हो।

सामाजिक लोकतंत्र :

सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? यह जीवन का एक साधन है जो जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और आपसी बंधुत्व को पहचानता है। स्वतंत्रता, समानता और आपसी बंधुत्व के इन सिद्धांतों को अलग-अलग चीज़ों के रूप में नहीं माना जा सकता। वे एक संघ के रूप में कार्य करते हैं कि एक को दूसरे से अलग कर देना अर्थात् लोकतंत्र के उद्देश्य को हराना है।
स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता है, समानता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है और न ही इन दोनों को आपसी बंधुत्व से अलग किया जा सकता है। समानता के बिना स्वतंत्रता, कई लोगों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता को जन्म देगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्ति की पहल को मार देगी। आपसी बंधुत्व के बिना भी स्वतंत्रता कई लोगों पर कुछ की सर्वोच्चता को जन्म देगी। आपसी बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता प्राकृतिक चीज़ें नहीं बन पाएँगी और तब उन्हें लागू करने के लिए किसी ताकत की आवश्यकता पड़ेगी।

हमें इस तथ्य को स्वीकार करते हुए आरम्भ करना चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीज़ों का पूर्ण अभाव है इनमें से एक है – समानता। भारत की सामाजिक पृष्ठभूमि में वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत के आधार पर एक समाज है जिसमें एक तरफ कुछ ऐसे लोग हैं जिनके पास बहुत अधिक धन है और दूसरी तरफ काफी ऐसे लोग भी हैं जो बहुत गरीबी में जी रहे हैं।

26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक जीवन में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक मत के सिद्धांत और एक मत-एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे जबकि हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम, हमारे सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के कारण, एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धांत से इनकार करते रहेंगे। कब तक हम विरोधाभासों के इस जीवन को जीना जारी रखेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता से इन्कार करते रहेंगे? यदि हम इसे लंबे समय तक अस्वीकार करते हैं, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ऐसा करेंगे। हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द संभवतः दूर करना चाहिए अन्यथा असमानता से पीड़ित लोग उस राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को ही ख़त्म कर देंगे जो संसद को श्रमसाध्य रूप से निर्मित करना है।

दूसरी बात जिसे हम चाहते हैं, वह है – आपसी बंधुत्व के सिद्धांत की मान्यता। बंधुत्व का क्या अर्थ है? बंधुत्व का अर्थ है सभी भारतीयों के भीतर भाईचारे की भावना। यह वह सिद्धांत है जो सामाजिक जीवन को एकता और मज़बूती प्रदान करता है। यह हासिल करना एक मुश्किल काम है। यह कितना मुश्किल है, इसे ‘जेम्स ब्रीसे’ द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के बारे में अमेरिकी कॉमनवेल्थ पर अपने वॉल्यूम में दी गई संबंधित कहानी से महसूस किया जा सकता है। मैं खुद ब्रीसे के शब्दों में इस कहानी को बताने का प्रयास करता हूँ :

“कुछ साल पहले अमेरिकन प्रोटेस्टेंट एपिस्कोपल चर्च को अपने ग्रंथों में संशोधन के लिए उसके त्रैवार्षिक सम्मेलन में अधिकृत कर लिया गया था। उस समय शॉर्ट वर्ड प्रार्थना को सभी लोगों की प्रार्थना के रूप में माना जाता था। प्रार्थना शुरू हुई, और एक प्रख्यात न्यू इंग्लैंड ज्ञानी ने ‘ओ भगवान, हमारे राष्ट्र को आशीर्वाद दो’ शब्दों से प्रार्थना शुरू की। इसे उस दिन दोपहर को स्वीकार किया गया, इस पल के पश्चात, इस बात को पुनर्विचार के लिए अगले दिन आगे बढ़ाया गया, जब आम जनों द्वारा राष्ट्र शब्द के लिए इतनी सारी आपत्तियां उठाई गईं, जैसे कि इस शब्द से राष्ट्रीय एकता की पहचान को निश्चित किया जा रहा है, और बाद में इसके बजाय इन शब्दों को अपनाया गया, “हे भगवान, इन संयुक्त राज्यों को आशीर्वाद दें।”

उस समय अमेरिका में बहुत कम एकजुटता थी। जब यह घटना हुई तब अमेरिका के लोग यह नहीं सोचते थे कि वे एक राष्ट्र हैं। अगर संयुक्त राज्य के लोग यह महसूस नहीं कर सके कि वे एक राष्ट्र हैं, तो भारतीयों के लिए यह सोचना कितना मुश्किल है कि वे एक राष्ट्र हैं?

एक बड़ी भ्रांति :

मुझे याद है कि जब भारतीय राजनैतिक बुद्धिजीवियों ने “भारत के लोगों” की अभिव्यक्ति का विरोध किया था। उन्होंने “भारतीय राष्ट्र” की अभिव्यक्ति पसंद की थी। 
मेरा पक्ष है कि ऐसा मानने में कि हम एक राष्ट्र हैं, हम एक महान भ्रम को संजो रहे हैं। हज़ारों जातियों में विभाजित लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं?
इस बात को जितनी जल्दी हम समझते हैं कि हम दुनिया के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मायनों में अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं, हमारे लिए बेहतर है। और केवल तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता का महत्व समझेंगे और लक्ष्य को साकार करने के तरीकों के बारे में गंभीरता से सोचेंगे। इस लक्ष्य की प्राप्ति बहुत मुश्किल हो रही है – संयुक्त राज्य अमेरिका में जितनी अधिक कठिन रही उससे भी अधिक मुश्किल। संयुक्त राज्य में कोई जाति समस्या नहीं है। भारत में जातियाँ हैं और जातियां राष्ट्र विरोधी हैं। पहली बात, क्योंकि वे सामाजिक जीवन में विभाजन लाती हैं। वे राष्ट्रविरोधी इसीलिए भी हैं क्योंकि वे जाति और जाति के बीच ईर्ष्या और प्रतिपक्ष पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सभी कठिनाइयों को दूर करना होगा। आपसी बंधुत्व तभी कायम हो सकता है, जब कोई राष्ट्र हो। बंधुत्व के बिना, समानता और स्वतंत्रता रंगों की परतों से अधिक गहरी नहीं होगी।
ये उन कार्यों के बारे में मेरे प्रतिबिंब हैं जो हमारे सामने हैं। ये कुछ लोगों के लिए बहुत सुखद नहीं भी हो सकते हैं लेकिन यह कहने में कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि इस देश में राजनीतिक शक्तियाँ काफ़ी समय के लिए एकाधिकृत रही हैं और कई लोग केवल बोझ ढोने के जानवर हैं, लेकिन साथ ही शिकार के जानवर भी हैं। इस एकाधिकार ने उन्हें केवल भलाई की सम्भावनाओं से वंचित नहीं किया है, बल्कि इसने उन्हें जीवन के महत्व से भी दूर किया है। ये निचले और शोषित वर्ग शोषित होते-होते थक गए हैं। वे स्वयं को शासित करने के लिए अधीर हैं। इन निचले व शोषित वर्गों में आत्म अनुभूति के लिए इस उत्तेजना को किसी वर्ग संघर्ष अथवा जाति युद्ध में परिवर्तित नहीं होने देना चाहिए। यह सदन के एक विभाजन का नेतृत्व करेगा और तब यह वास्तव में आपदा का दिन होगा। जैसा कि ‘अब्राहम लिंकन’ ने कहा है कि “अपने आप में विभाजित एक सदन बहुत लंबे समय तक खड़ा नहीं रह सकता।” इसलिए जितनी जल्दी उनकी आत्म अनुभूति की आकांक्षाओं को जगह दी जाएगी उतना ही कुछ के लिए बेहतर है, देश के लिए बेहतर है, आज़ादी के रखरखाव के लिए बेहतर है और इस लोकतांत्रिक ढांचे की निरंतरता के लिए बेहतर है। यह केवल जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और आपसी बंधुत्व की स्थापना के द्वारा ही किया जा सकता है। यही कारण है कि मैंने उन पर इतना ज़ोर दिया है।

मैं सदन को और आगे नहीं बढ़ाना चाहता हूँ। निःसंदेह स्वतंत्रता एक अत्यंत खुशी की बात है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हमारे ऊपर बड़ी जिम्मेदारियाँ भी डाली हैं। आजादी से पहले तक, हमने कुछ भी गलत होने का कारण ब्रिटिश शासन को बताया है यदि इसके बाद चीज़ें गलत होती हैं, तो हमें स्वयं को छोड़कर कोई भी दोषी नहीं होगा। और चीज़ों के गलत होने का खतरा बहुत अधिक है। समय तेजी से बदल रहा है। हम सहित अन्य लोग नई विचारधाराओं से जुड़ रहे हैं। वे लोगों द्वारा शासित सरकार से थक रहे हैं और वे लोगों के लिए सरकार बनाने को तैयार हैं और उदासीन भी हैं कि क्या यह लोगों की लोगों के द्वारा सरकार है? यदि हम संविधान को संरक्षित करना चाहते हैं, जिसमें हमने लोगों की, लोगों के लिए, और लोगों के द्वारा सरकार के सिद्धांत को स्थापित करने की माँग की है, तो हमें अपने रास्ते में आने वाली उन बुराइयों की पहचान करने में सुस्ती न दिखाने का संकल्प लेना होगा जो लोगों की, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा सरकार के सिद्धांत को प्रेरित होने से रोकती हैं और उन बुराइयों को खत्म करने के लिए हमें कमज़ोर न पड़ने का संकल्प भी लेना होगा। यह देश सेवा करने का एकमात्र तरीका है। मुझे इससे बेहतर और कोई तरीका नहीं पता है।

Youtube Video: 

Source : https://issuu.com/sulabhindia/docs/10-16_apr-2017_english


May 29, 2019

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - परिव्राजको की प्रतिक्रिया

उन पांचों परिव्राजकों ने तुरंत यह समझ लिया कि यह वास्तव में एक नया धम्म है। जीवन की समस्या के प्रति इस नए दृष्टिकोण से वे इतने अधिक प्रभावित हुए कि वे सभी यह कहने में एकमत थे, 
''संसार के इतिहास में इससे पहले किसी भी धर्म के संस्थापक ने कभी यह शिक्षा नहीं दी कि मानवीय दुख को पहचानना और स्वीकार करना धम्म का यथार्थ आधार है।'' 
“संसार के इतिहास में इससे पहले कभी किसी धर्म के संस्थापक ने यह शिक्षा नहीं दी कि संसार के इस दुख को दूर करना ही धम्म का वास्तविक उद्देश्य है।''
  • “संसार के इतिहास में इससे पहले कभी किसी ने मुक्ति की रूपरेखा नहीं सुज़ाई थी जो इतनी सरल हो, जो अलौकिकता और अपौरुषेय शक्तियों की अधीनता से मुक्त हो, जो इतनी स्वतंत्र ही नहीं बल्कि किसी 'आत्मा' या 'परमात्मा' में विश्वास तथा मरणांतर जीवन में विश्वास की विरोधी भी हो।
  • संसार के इतिहास में इससे पहले किसी ने भी कभी ऐसे धम्म की रूप रेखा प्रस्तुत ही नहीं की, जिसका किसी रहस्य और (ईश्वरीय) प्रभुत्व से कोई सम्बंध नहीं हो, जिसके आदेश व्यक्ति की सामाजिक आवश्यकताओं के अध्ययन की देन हों और किसी ईश्वर की आज्ञाएं न हों।
  • “संसार के इतिहास में इससे पहले किसी ने भी कभी मुक्ति की ऐसी परिकल्पना नहीं की कि सुख का उपहार व्यक्ति द्वारा इसी जीवन में और इस धरती पर स्वयं अपने ही धम्माचरण और प्रयास द्वारा प्राप्त किया जा सकता है!'' 
  • नए धम्म पर बुद्ध का धम्मोपदेश सुनने के बाद उन परिव्राजकों ने उपर्युक्त उदगार व्यक्त किए।
  • उन्हें लगा कि बुद्ध के रूप में उन्हें एक ऐसे जीवन-सुधारक मिल गए थे, जिनका रोम-रोम नैतिकता की भावना से ओत-प्रोत था और जो अपने युग की बौद्धिक संस्कृति से सुपरिचित थे। जिनमें ऐसी मौलिकता एवं साहस था कि विरोधी विचारों की जानकारी के साथ वह इसी जीवन में मुक्ति के एक ऐसे मार्ग का प्रतिपादन कर सकते थे, जिससे मन का आंतरिक परिवर्तन निज-सभ्यता और निज-संयम द्वारा प्राप्त किया जा सकता था।
  • बुद्ध के लिए उनके मन में ऐसी असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई कि उन्होंने उनके समक्ष तुरंत व समर्पण कर दिया और निवेदन किया कि वह उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लें। 
बुद्ध ने कोण्ड्ज्ज, अस्सजि, वप्प, महानाम तथा भदिय को 'एहि भिक्ख्वे'  (भिक्खुओ आओ) कहकर भिक्खु संघ में दीक्षित कर लिया। वे 'पज्ज-वग्गिय' (पंचवर्गीय) भिक्खु नाम से प्रसिद्ध हुए।

संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - धम्मचक्क पवत्त्तन


"क्या व्यक्तिगत निर्मलता ही संसार में सच्चाई की आधारशिला नहीं है?" उनका उतर था, "हां, यह ऐसा ही है जैसा कि आप कहते हैं।"

  • और बुद्ध ने फिर पूछा, ''क्या इर्ष्या, राग, अविद्या, हिंसा, चोरी, व्यभिचार और असत्य व्यक्तिगत निर्मलता को दुर्बल नहीं बनाते हैं? क्या व्यक्तिगत निर्मलता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि अपेक्षित चारित्रिक बल को उत्पन्न किया जाए ताकि इन बुराइयों पर नियंत्रण रखा जा सके? यदि किसी मनुष्य में व्यक्तिगत निर्मलता ही नहीं है, तो वह जन-कल्याण में कैसे सहायक हो सकता है?" उन्होंने उत्तर दिया, "हां, यह ऐसा ही है, जैसा कि आप कहते हैं।
  • "और तब लोग क्यों दूसरों को अपना गुलाम बनाने और उनको अपने अधीन रखने में संकोच नहीं करते हैं? क्यों लोग दूसरों के जीवन को दुखी बनाने में संकोच नहीं करते हैं? क्या यह इसलिए नहीं है क्योंकि लोग दूसरों के प्रति अपने आचरण में शुद्ध नहीं होते?" उन्होंने "हा" कहकर उत्तर दिया।
  • "तो क्या आष्टांगिक मार्ग सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक आजीविका, सम्यक कमात, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि का अभ्यास-संक्षेप में सधम्म के मार्ग का यदि प्रत्येक व्यक्ति अनुसरण करे, तो क्या वह मनुष्य अपने अन्यायपूर्ण और अमानवीय व्यवहार का त्याग नहीं कर सकता?" उनका उत्तर था, "हां, यह ऐसा ही है।"
  • सद्गुणों का उल्लेख करते हुए उन्होंने पूछा, "क्या अभावग्रस्तों तथा दरिद्रों का दुख दूर करने के लिए और सामान्य जन-कल्याण करने के लिए दान आवश्यक नहीं है? क्या जहां दरिद्रता और कष्ट हैं, वहां सहायता प्रदान करने के लिए करुणा की आवश्यकता नहीं है? क्या निस्वार्थ-भाव से काम करने के लिए नेक्खम (नैष्काम्य) की आवश्यकता नहीं है? क्या व्यक्तिगत नाम न होने पर भी सतत प्रयत्न में लगे रहने के लिए उपेक्खा (उपेक्षा) की आवश्यकता नहीं है?"
  • "क्या मनुष्य के लिए प्रेम आवश्यक नहीं है?" उनका उत्तर था, "हा''।
  • मैं और आगे कहता हूं, "प्रेम करना पर्याप्त नहीं है, जिस की आवश्यकता है, वह मेत्ता (मेत्री) है; प्रेम की अपेक्षा यह अधिक व्यापक है। इसका अर्थ है न केवल साथ के लोगों के प्रति मेला (मैत्री), बल्कि समस्त प्राणी मात्र के प्रति मेत्ता (मैत्री)। यह मानव तक ही सीमित नहीं है। क्या ऐसी मेत्ता (मैत्री) अपेक्षित (जरूरी) नहीं है? इसके अलावा दूसरी कौन सी चीज़ है, जो सभी मानवों को वह सुख प्रदान कर सके, जो सुख व्यक्ति स्वयं चाहता है, ताकि चित पक्षपातरहित रहे, सभी के लिए समान रहे, उसमें सभी के प्रति प्रेम रहे और किसी के प्रति भी घृणा नहीं रहे?"
  • उन सब ने कहा, ''हा''।
  • “लेकिन इन सद्गुणों के आचरण के साथ-साथ पज्जा (प्रज्ञा) अर्थात पुर्ण ज्ञान भी होना चाहिए।
  • "क्या पज्जा(प्रज्ञा) आवश्यक नहीं है? परिव्राजक मौन रहे। उन्हें अपने प्रश्न का उतर देने के लिए प्रेरित करने के लिए तथागत ने आगे कहा, अच्छे मनुष्य के गुण है-कोई बुराइ न करे, बुरी बात न सोचे, बुरे तरीके से अपनी जीविका न कमाए और न ही मुन्ह से कोई ऐसी बात निकाले जिससे किसी को ठेस पहुंचे। परिव्राजक बोले, ''हां, यह ऐसा ही है।''
  • बुद्ध ने पूछा, "लेकिन क्या अच्छे कर्मों को बिना सोचे-समझे आंख बंद करके करना ठीक है? मैं कहता हूं 'नहीं' यह पर्याप्त नहीं है।'' बुद्ध ने परिव्राजको से कहा, "यदि यह प्यार होता, तो हम एक छोटे बच्चे के बारे में घोषित कर सकते थे कि वह हमेशा अच्छा करता है। क्योंकि अभी तक एक छोटा बच्चा यह भी नहीं जानता कि शरीर क्या होता है। वह लात चलाते रह्ने के अतिरिक्त और शरीर से कर ही क्या सकता है। वह यह भी नहीं जानता कि वाणी क्या है। वह चिल्लाने के अतिरिक्त और क्या बुरी बात कर सकता है? वह यह भी नहीं जानता कि विचार क्या होता है। वह केवल प्रसन्नता के मारे कलकारी ही मार सकता है। वह यह भी नहीं जानता जीविकावर्जन क्या होता है। वह अपनी मां के स्तन से दुध पीने के अतिरिक्त क्या बुरे तरीके से जीवन चला सकता है?
  • "इसलिए सदूगण के पथ की जांच पज्जा (प्रज्ञा) से होनी चाहिये, जो समज़ और बुद्धि का दुसरा नाम है.
  • एक और कारण से भी पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता इतनी महत्वपूर्ण और इतनी आवश्यक है। दान अवश्य होना चाहिए। किंतु बिना पज्जा (प्रज्ञा) के दान भी संप्रातिपूर्ण प्रभाव पैदा कर सकता है। करुणा होनी ही चाहिए। किंतु बिना पज्जा (प्रज्ञा) के करुणा भी बुराई की समर्थक बन सकती है। पारमिता की प्रत्येक क्रिया पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता की कसौटी पर खरी उतरनी चाहिए। निर्मल बुद्धि का ही दूसरा नाम पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता है।
  • "मेरी स्थापना है कि इस बात का ज्ञान और बोध होना चाहिए कि अकुशल आचरण क्या है और इसकी उत्पत्ति कैसे होती है,; इसी प्रकार इस बात का भी ज्ञान और बोध होना चाहिए कि कुशल कर्म तथा अकुशल कर्म क्या है? इस प्रकार के ज्ञान के बिना वास्तविक अच्छाई (कुशल कर्म) नहीं हो सकती, चाहे क्रिया अच्छी ही क्यों न हो। इसीलिए मैं कहता हु कि पज्जा (प्रज्ञा) एक आवश्यक सद्गुण है।'"
  • तब बुद्ध ने परिव्राजकों को इस प्रकार की चेतावनी देते हुए अपना धम्मोपदेश समाप्त किया।
  • ''हो सकता है कि तुम मेरे धम्म को निराशावादी धम्म कहो, क्योंकि यह मानव-जाति का ध्यान दुख के अस्तित्व की ओर दिलाता है। मेरा तुमसे बस यही कहना है कि मेरे धम्म के बारे में ऐसी धारणा का होना गलत होगा।
  • ''निस्संदेह मेरा धम्म दुख के अस्तित्व को स्वीकार करता है, किंतु यह न भूलो कि यह इतना ही जोर उस दुख के दूर करने पर भी देता है।
  • “मेर धम्म में आशा और उद्देश्य दोनों ही निहित हैं।"
  • "इसका उद्देश्य है अविद्या का नाश, जिससे मेरा अभिप्राय है दुख के अस्तित्व के सम्बंध में अग्यान (अविध्या) का होना।
  • ''इसमें आशा विद्यमान है क्योंकि यह मानवीय दूख के नाश का मार्ग बताता है।"

  • "तुम इससे सहमत हो कि नही?" परिव्राजको ने कहा, "हा, हम सहमत है.."
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - सील का मार्ग


इसके पश्चात बुद्ध ने उन परिव्राजकों को सील-पथ के बारे में समझाया।उन्होंने उन्हें बताया कि सील-पथ का अर्थ है इन सद्गुणों का अभ्यास करना,
(1) दान (2) सील (शील) (3) नेक्खम्म (नैष्क्रयम) (4) पज्जा (प्रज्ञा), 5) विरिय (विर्य) (6) खन्ति (क्षान्ति) (7) सच्च (सत्य) (8) अधिठान (अधिष्ठान) (७) मेत्ता (मैत्री) और (10) उपेक्खा (उपेक्षा)।

  • उन परिव्राजकों ने बुद्ध से इन सद्गुणों का सही अर्थ समझाने के लिए कहा। तब बुद्ध ने उन्हें संतुष्ट करने के लिए समझाया - 
  • दान का अर्थ है बदले में किसी भी प्रकार की आशा किए बिना दूसरों की भलाई के निमित्त अपनी संपत्ति को ही नहीं, अपने रक्त, अपने शरीर के अंगों और यहां तक कि अपने प्राण तक को दूसरों को अर्पित कर देना ।
  • “सील (शील) का अर्थ है नैतिक स्वभाव, अकुशल कर्म न करने की मनोवृत्ति और कुशल कर्म करने की मनोवृत्ति; बुराई (अकुशल कर्म) करने में लज्जा करना। दंड के भय से अकुशल कर्म से बचे रहना सील है। सील का अर्थ है अकुशल कर्म से भय खाना।
  • नेक्खम (नैष्कर्म्य) का अर्थ है सांसारिक काम-भोगों का त्याग।
  • ‘‘पज्जा (प्रज्ञा) का अर्थ है निर्मल बुद्धि ।
  • “विरिय (वीर्य) का अर्थ है सम्यक प्रयत्न । जो कुछ एक बार करने का निश्चय कर लिया अथवा जो कुछ करने का संकल्प कर लिया, उसे अपनी पूरी सामर्थ्य से करने का प्रयास करना और बिना उसे पूरा किए पीछे मुड़कर नहीं देखना।
  • खन्ति (क्षान्ति) का अर्थ है सहन सीलता। घृणा के बदले में घृणा न करना, इसका यही सार है। क्योंकि घृणा से घृणा कभी भी शांत नहीं होती। यह केवल सहन शीलता से ही शांत होती है।
  • "सच्च (सत्य) का अर्थ है सत्यवादी होना। आदमी को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। उसे सत्य और केवल सत्य ही बोलना चाहिए।
  • "अधिट्ठान (अधिष्ठान) का अर्थ है अपने उद्देश्य तक पहुंचने का द्रढ-संकल्प।
  • “मेत्ता (मैत्री) का अर्थ है सभी प्राणियों के प्रति भ्रातृत्व-भावना रखना, न केवल मित्रों के प्रति ही, बल्कि शत्रुओं तक के प्रति भी; न केवल मनुष्यों बल्कि सभी प्राणियों के प्रति भी।
  • “उपेक्खा (उपेक्षा) का अर्थ है अनासक्ति, जो उदासीनता से भिन्न है। यह चित्त की वह अवस्था है, जिसमें प्रिय-अप्रिय कुछ नहीं है। फल कुछ भी हो उससे निरपेक्ष रहना और लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना ही उपेक्खा है।
  • "मनुष्य को इन सद्गुणों का अपनी पूरे सामर्थ्य के साथ अभ्यास करना चाहिए। इसीलिए उन्हें 'पारमिता' (गुणों की पराकाष्ठा) कहा गया है।
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"
 

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - अष्टांगिक मार्ग या सम्यक मार्ग


इसके आगे बुद्ध ने उन परिव्राजकों को अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया। बुद्ध ने कहा कि इस मार्ग के आठ अंग हैं। बुद्ध ने सम्मा दिट्ठि (=सम्यक द्रष्टि) की व्याख्या से अपना धम्मोपदेश आरंभ किया, जो अष्टांगिक मार्ग का प्रथम और प्रधान अंग है । सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का महत्त्व समझाने के लिए बुद्ध ने परिव्राजकों से कहा -
  • “हे परिव्राजको! तुम्हें इस का बोध होना चाहिए कि यह संसार एक कारागार है और मनुष्य इस कारागार में एक कारावासी (बंदी) है।
  • “यह कारागार अंधकार से भरा हुआ है। इसमें इतना अधिक अंधकार है कि कैदी को यहां कुछ भी दिखाई नहीं देता है। कैदी को यह तक दिखाई नहीं देता कि वह कारावासी (कैदी) है।
  • “वास्तव में बहुत अधिक लंबे समय तक इस अंधेरे में रहने के कारण मनुष्य न केवल अंधा हो गया है, बल्कि उसे इस बात में भी बहुत संदेह हो गया है कि प्रकाश नाम की ऐसी कोई अनोखी चीज़ भी कहीं अस्तित्व में हो सकती है।
  • “मन ही एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य को प्रकाश की प्राप्ति हो सकती है।
  • लेकिन इस उद्देश्य के लिए इन कारावासियों का मन एक उपयुक्त साधन नहीं है ।
  • “इनका मन थोड़ा-सा प्रकाश ही आने देता है, जो बस केवल इतना ही पर्याप्त है जिससे देखने वाले यह देख सकें कि अंधकार नाम की भी कोई वस्तु है।“
  • “इस प्रकार यह स्वभाव से ही दोषपूर्ण समझ है।“
  • "लेकिन हे परिव्राजको! यह जान लो कि कैदी की स्थिति ऐसी निराशाजनक नहीं है जैसी यह प्रतीत होती है।
  • क्योंकि मनुष्य में एक चीज है जिसे संकल्प शक्ति ( मनोबल ) कहा जाता है। जब मनुष्य के सम्मुख कोई उपयुक्त प्रयोजन का उदय हो जाता है, तो मनोबल को जागृत और क्रियाशील किया जा सकता है ।
  • “किस दिशा में इस मनोबल को लगाया जाए, यह देखने के लिए पर्याप्त प्रकाश मिलने पर मनुष्य उस मनोबल का मार्ग दर्शन कर सकता है और इस प्रकार बंधन मुक्त हो सकता है।
  • “इस प्रकार यद्यपि मनुष्य बंधन में है, तो भी वह स्वतंत्र हो सकता है। वह किसी भी क्षण ऐसा पहला कदम उठा सकता है, जो अंततः उसे स्वतंत्रता प्रदान करेगा।
  • “ऐसा इसलिए है, क्योंकि हम जिस किसी भी दिशा में अपने मन को ले जाना चाहें, हमारे लिए उसे उस दिशा में ले जाना संभव है। यह मन ही है , जो हमें जीवन - रूपी कारागार का कैदी बनाता है और यह मन ही है जो हमें ऐसा बनाए रखता है ।
  • “लेकिन मन ने जो कुछ बनाया है, उसे मन ही नष्ट कर सकता है। यदि इसने मनुष्य को दास बनाया है तो ठीक दिशा दिखाने पर यह मनुष्य को स्वतंत्र भी कर सकता है।
  • “यह है जो सम्यक द्रष्टि कर सकती है । ' '
  • तब परिव्राजकों ने प्रश्न किया, “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अंतिम उद्देश्य क्या है?” बुद्ध ने उत्तर दिया, “ अविद्या का विनाश ही सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का उद्देश्य है। यह मिथ्या-द्रष्टि की विरोधिनी है ।
  • "और अविद्या का अर्थ है चार सत्यों तथा दुख के अस्तित्व एवं दुख के निरोध के उपाय को न समझ पाना।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है, कर्म-कांड के क्रिया-कलाप की प्रभावोत्पादकता में विश्वास न रखना और शास्त्रों की पवित्रता की मिथ्या-धारणा से मुक्त होना ।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है, अंधविश्वास तथा अलौकिकता का त्याग करना।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है ऐसी सभी मिथ्या धारणाओं का त्याग करना, जो कल्पना मात्र हैं और जो यथार्थता अथवा अनुभव पर आधारित नहीं हैं।
  • "सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) के लिए स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार आवश्यक होते है।
  • " हर मनुष्य के कुछ उद्देश्य, आकांक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं होती हैं। सम्मासंकप्पो (सम्यक संकल्प) यह शिक्षा देता है कि ऐसे उद्देश्य, आकांक्षाएं तथा महत्त्वाकांक्षा उच्च स्तर की एवं सराहनीय हों और निम्न स्तर की एवं अयोग्य न हों।
  • "सम्मावाचा (सम्यक वाणी) में शिक्षा देती है कि (1 ) मनुष्य केवल वही बोले जो सत्य है।(2) मनुष्य असत्य न बोले, (3) मनुष्य दूसरों की बुराई न करे, (4) मनुष्य पर - निंदा से दुर् रहे, ( 5) मनुष्य किसी के लिए भी क्रोध और गाली - गलौज वाली भाषा का प्रयोग न करे, (6) मनुष्य सभी के साथ दया से भरी तथा विनम्र वाणी का व्यवहार करे, (7) किसी मनुष्य को व्यर्थ की, मूर्खतापूर्ण बातों में नहीं पड़ना चाहिए बल्कि उसकी वाणी बुद्धिसंगत और सार्थक होनी चाहिए।
  • जैसा मैंने समझाया है , सम्मावाचा (सम्यक वाणी) का व्यवहार किसी भय अथवा पक्षपात के कारण नहीं होना चाहिए । इसका इससे कुछ भी सम्बंध नहीं होना चाहिए कि कोई ‘श्रेष्ठ मनुष्य’ उसके कार्य के बारे में क्या सोचता है अथवा सम्यक वाणी के व्यवहार के कारण क्या हानि हो सकती है।
  • “सम्मावाचा (सम्यक वाणी) का मापदंड न किसी ‘ऊपर के मनुष्य' की आज्ञा है और न किसी मनुष्य के व्यक्तिगत लाभ के लिए है।
  • “सम्माकम्मन्तो (सम्यक कर्मात) सही व्यवहार की शिक्षा देता है। यह सिखाता है कि हमारे हर कार्य का आधार दूसरों की भावनाओं और अधिकारों का आदर होना चाहिए।
  • “सम्माकम्मन्तो (सम्यक कर्मांत) का मापदंड क्या है? सम्यक कर्मात का मापदंड है आचरण की धारा जो अस्तित्व के आधारभूत नियम के साथ समन्वित होनी चाहिए ।
  • “जब किसी मनुष्य के कार्य इन नियमों से समन्वय रखते हों, तो उन्हें सम्यक कर्म के अनुरूप ही समझना चाहिए।
  • “प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका कमानी ही होती है। लेकिन अपनी जीविका कमाने के कुछ तरीके हैं और उन तरीकों में कुछ बुरे हैं और कुछ अच्छे। बुरे तरीके वे हैं, जो किसी को चोट पहुंचाते हैं अथवा किसी के साथ अन्याय करते हैं। अच्छे तरीके वे हैं जिनसे मनुष्य बिना किसी को हानि पहुंचाए अथवा बिना किसी के साथ अन्याय किए अपनी जीविका कमाता है। यही सम्माआजीवो (सम्यक आजीविका) है।
  • “सम्मावायामी (सम्यक व्यायाम - ठीक प्रयास) अविद्या को नष्ट करने का प्रथम प्रयास है जो उस द्वार तक पहुंचाकर उसे खोलता है, जहां से उस दुखद कारागार से बाहर निकला जा सकता।
  • "सम्मावायामो (सम्यक व्यायाम) के चार उद्देश्य हैं।
  1. “एक है अष्टांगिक मार्ग विरोधी चित्त - प्रवृत्तियों को रोकना।
  1. “दूसरा हैं ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों को दबा देना, जो पहले से उत्पन्न हो गई हों।
  1. “तीसरा है ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों को उत्पन्न करना जो अष्टांगिक मार्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हों।
  1. "चौथा है ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों का और अधिक विकास करना और पहले से उत्पन्न चित - प्रवृत्तियों में वृद्धि करना।"
  • सम्मासति (सम्यक स्मृति) जागरूकता और विचारशीलता का आहान करती है। इसका यह मन की सतत जागरूकता बुरी भावनाओं (विचारों) के विरुद्ध चित्त द्वारा निगरानी करना सम्यक स्म्रुति का दूसरा नाम है ।
  • “हे परिव्राजको ! सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि), सम्मासंकप्पो (सम्यक संकल्प), सम्मावाचा (= सम्यक वाणी), सम्माकम्मन्तो (= सम्यक कर्मांत), सम्माआजीवो (= सम्यक आजीविका ), सम्मावायामो (= सम्यक व्यायाम), सम्मासति (= सम्यक स्मृति) और सम्मासमाधि (= सम्यक समाधि) प्राप्त करने की चेष्टा करने वाले व्यक्ति के मार्ग में ‘पञ्च - नीवरण’ पांच बंधन अथवा बाधाएं आती हैं । 
  • “ये पांच बाधाएं हैं लोभ, द्वेष, आलस्य, विचिकित्सा (संशय) तथा अनिश्चय। इसलिए इन बाधाओं पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि वे वास्तव में बंधन हैं और इन पर विजय पाने का माध्यम समाधि ही है। लेकिन परिव्राजको ! यह समझ लो कि ‘ सम्मासमाधि ( सम्यक समाधि ) वही नहीं जो समाधि है। यह उससे बिलकुल भिन्न है।
  •  “समाधि तो चित्त की एकाग्रता मात्र है । इसमें संदेह नहीं कि यह ध्यान की अवस्था में ले जाती है , जो स्वयं प्रेरित होती है और पांचों संयोजनों या बंधनों को निलंबित रखती है । 
  • “लेकिन ध्यान की ये अवस्थाएं अस्थायी हैं। परिणामस्वरूप संयोजनों का निलंबन भी अस्थायी है। आवश्यकता है चित्त को स्थायी रूप से एकाग्र करने की । चित्त की ऐसी स्थायी एकाग्रता सम्यक समाधि द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । 
  • “अकेली समाधि एक नकारात्मक स्थिति है , क्योंकि यह केवल संयोजनों को अस्थायी तौर पर निलंबित करती है। इसमें मन के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं है। सम्यक समाधि सकारात्मक है। एकाग्रता के समय यह मन को एकाग्र करने के लिए प्रशिक्षित करती है। और कुशल कर्म के लिए प्रेरित करती है। यह संयोजनोत्पन्न अकुशल कर्मों (अकुशल कार्य और अकुशल विचार) की ओर मन के आकर्षित होने की प्रवृत्ति को ही नष्ट कर देती है। 
  • “सम्मासमाधि ( सम्यक समाधि ) मन को सदा कुशल कर्म के बारे में सोचने के लिए अभ्यस्त करती है। सम्यक समाधि मन को कुशल कर्म करने के लिए अपेक्षित शक्ति देती है।”
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"