क्रांति की एक ज्योति है कबीर, निरे साधु संत नहीं और न ही महज़ संत कवि। कबीर तो उस वक्त की तमाम वंचनाओं व विषमताओं और धर्मांध अंध श्रद्धाओं पर धारदार प्रहार करने में लगे हुये थे।
'जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिये ज्ञान' कहकर कबीर जन्मना जाति की घृणित व्यवस्था को चुनौती दे रहे थे ,वे खुलकर कह रहे थे- 'हम वासी उस देश के ,जहाँ जाति, वरण ,कुल नाहीं'
कबीर पत्थरों में खुदा तलाश रहे बुतपरस्तों को भी ललकारते हुए कह पा रहे थे -'पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार' ,दूसरी तरफ बांग लगाते मुल्लाओं से भी उनका सवाल था -'कांकर पाथर जोरि के,मस्ज़िद लई बनाय,ता चढ़ि मुल्ला बांग दे,क्या बहिरा हुआ खुदाय'
आज कबीर होते तो क्या वह कह पाते यह सब ? मुझे तो लगता है कि अगर आज कबीर यह कहते तो सत्ता प्रतिष्ठान उनको 295 (ए) में अन्दर कर देता अथवा धर्म के ध्वजवाहक ,मजहब के झंडाबरदार तथा नैतिकता के स्वयम्भू पैरोकार उन्हें मॉब लिंचिंग में मार डालते।
कबीर को उस वक्त की राज्य सत्ता ने मदमस्त हाथी से कुचलवाने की कोशिश की थी, पंडे पुरोहित, मुल्ले मौलवियों ने उनको उलझाने की साज़िश की थी, पर कबीर ने इनकी कोई परवाह न की।
वह जुलाहा "रामानंद की फौज" से अकेले ही भिड़ता रहा, यत्र तत्र विचरता रहा, लोगों को अपने चरखे और कताई के प्रतीकों के ज़रिये ज्ञान, विवेक और चैतन्यता का बोध कराता रहा।
उसने किसी की परवाह न की, न धर्म की, न शास्त्रों की और न ही शास्त्रीय भाषा की, उलटबासियों के ज़रिए, अपने शब्द व साखियों के जरिये कबीर जन साधारण को जगाते रहे।
'पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ' ..कहकर कबीर ने शिक्षा पर पुरोहित वर्ग के एकाधिकार को चिन्हित किया और दूसरे ही क्षणयह भी कह डाला 'ढाई आखर प्रेम का ,पढ़े सो पंडित होय'.
कबीर 'कागद' की लिखी से ज्यादा 'आँखन की देखी' की बात करते है, यह किताबों को ईश्वरीय बताकर आम जन की चेतना का हरण करके उन्हें श्रद्धालु बना डालने के पुरोहित वर्ग के षड़यंत्र के विरुद्ध कबीर का विद्रोह है।
कबीर वेद, कुरान, पुराण, धर्म, मजहब, पंथ और जाति, वर्ण की कुल श्रेष्ठता के दंभी दावों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने अनुभव जन्य यथार्थ से अवगत कराते हैं।
कबीरआग है, उससे बचा नहीं जा सकता है, कबीर नग्न सत्य है, उस पर कोई लीपापोती नहीं हो सकती है, जो है, सो है यही तो कबीरी है, यही तो फ़क़ीरी है।
कबीर बाजार में भी 'लिये लुकाटी हाथ' निर्भीक खड़े है, ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर की भावभूमि पर ..कबीर का कोई मुकाबला नहीं है, कबीर होना आसान भी तो नहीं है।
कबीर होने के लिए असली फकीर होना पड़ता है।आज के फ़क़ीरों की तरह अदाकारी से काम नहीं चलता ।
-भंवर मेघवंशी
( संपादक - शून्यकाल )
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