June 21, 2019

चम्मचे क्यो पैदा किये जाते है?

चम्मचे क्यो पैदा किये जाते है?

जब समाज का सच्चा प्रतनिधि समाज के लिए आवाज उठाता है, तो उस उठ रही आवाज को अपने ही समाज के लोगों द्वारा दबाने के लिए चम्मचे पैदा किये जाते है!

ये चम्मचे सिर्फ टिकट या फिर पद के लालच में अपने को समाज का नेता बनाने की कौशिश करता है! जबकि सच्चा प्रतिनिधि हमेशा परिवर्तन की बात करता है!

चम्मचे हमेशा मौसम (चुनाव के समय)के आधार पर चलता है! जबकि सच्चा प्रतिनिधि लगातार रात दिन समाज के साथ चलता है और समाज को एक जुट करने में लगा रहता है!

चम्मचे हमेशा अचानक उठाकर हीरो बनाऐ जाते है, मीडीया में उसे खूब पब्लिसीटी दी जाती है, जबकि सच्चे लीडरशीप को टीवी न्यूज चैनलों में कभी नही दिखाया जाता!

चम्मचे हमेशा अपने लिये जीता है जबकि सच्चा लीडर समाज को ऊपर उठाने के लिए जीता है!

चम्मचों का मोल भाव तय किया जाता है जहां ज्यादा मुनाफा हो वहां जाना पसंद करता है, जबकि सच्चा लीडर समाज को शासक बनाने के लिए अपना खून पसीना बहाता है!

जब चम्मचों की संख्या अचानक बढने लगेगी, तब सच्चे लीडरशीप को पहचान कर अगर उनका तन मन धन से सहयोग कर दिया तो समझ लेना, दुश्मन का ये वार खाली चला गया है, और हम आजादी के बहुत करीब खड़े हो जाऐंगें!

वर्तमान परिस्थितियाँ यही बयां कर रही है! हमें अपने सच्चे लीडरशीप को पहचानना होगा! सच्चे लीडरशीप को पहचानने के लिए हमारे बहुजन समाज में सामाजिक, राजनीतिक, वैचारिक समझ विकसित करना होगा!

जरूरी नही राजनीतिक समझ सिर्फ नेताओं को ही हो, ये बहुजन समाज के हर इन्सान को होनी चाहिए! अगर हमारे अंदर ये तीनों समझ आ गई तो हम कभी भी किसी नेता विशेष और पार्टी विशेष का भक्त नही बनेगें, बल्कि अपनी बुलंद आवाज से हमारी नीति हम खुद बनाऐगें!

उदाहरण- संसद में हम 130 करोड़ लोग बैछ नही सकते, इसलिए हम सांसद या विधायक चुनवाकर भेजते है! वो हमारे खिलाफ कानून बनाते है, जब उपरोक्त तीनों विषय की हमें समझ होगी तो जनता अपनी संसद सड़कों पर चलाऐगी ओर जनशक्ति के आगे दुनिया की कोई भी शक्ति नही टिकती! जन शक्ति ही अपना कानून आप बनाऐगी!

विदेशों में लोगों को ये तीनों समझ है इसलिए वे जनशक्ति के आगे सरकारों को मजबूर कर देती है! इसके लिए चम्मचों को पहचान कर उनका बायकाट करना होगा!

- सुरेश कुमार नायक 
सन्दर्भ : चमचायुग

June 17, 2019

आज अगर कबीर होते!!

क्रांति की एक ज्योति है कबीर, निरे साधु संत नहीं और न ही महज़ संत कवि। कबीर तो उस वक्त की तमाम वंचनाओं व विषमताओं और धर्मांध अंध श्रद्धाओं पर धारदार प्रहार करने में लगे हुये थे।

'जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिये ज्ञान' कहकर कबीर जन्मना जाति की घृणित व्यवस्था को चुनौती दे रहे थे ,वे खुलकर कह रहे थे- 'हम वासी उस देश के ,जहाँ जाति, वरण ,कुल नाहीं'

कबीर पत्थरों में खुदा तलाश रहे बुतपरस्तों को भी ललकारते हुए कह पा रहे थे -'पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार' ,दूसरी तरफ बांग लगाते मुल्लाओं से भी उनका सवाल था -'कांकर पाथर जोरि के,मस्ज़िद लई बनाय,ता चढ़ि मुल्ला बांग दे,क्या बहिरा हुआ खुदाय'

आज कबीर होते तो क्या वह कह पाते यह सब ? मुझे तो लगता है कि अगर आज कबीर यह कहते तो सत्ता प्रतिष्ठान उनको 295 (ए) में अन्दर कर देता अथवा धर्म के ध्वजवाहक ,मजहब के झंडाबरदार तथा नैतिकता के स्वयम्भू पैरोकार उन्हें मॉब लिंचिंग में मार डालते।

कबीर को उस वक्त की राज्य सत्ता ने मदमस्त हाथी से कुचलवाने की कोशिश की थी, पंडे पुरोहित, मुल्ले मौलवियों ने उनको उलझाने की साज़िश की थी, पर कबीर ने इनकी कोई परवाह न की।

वह जुलाहा "रामानंद की फौज" से अकेले ही भिड़ता रहा, यत्र तत्र विचरता रहा, लोगों को अपने चरखे और कताई के प्रतीकों के ज़रिये ज्ञान, विवेक और चैतन्यता का बोध कराता रहा।

उसने किसी की परवाह न की, न धर्म की, न शास्त्रों की और न ही शास्त्रीय भाषा की, उलटबासियों के ज़रिए, अपने शब्द व साखियों के जरिये कबीर जन साधारण को जगाते रहे।

'पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ' ..कहकर कबीर ने शिक्षा पर पुरोहित वर्ग के एकाधिकार को चिन्हित किया और दूसरे ही क्षणयह भी कह डाला 'ढाई आखर प्रेम का ,पढ़े सो पंडित होय'.

कबीर 'कागद' की लिखी से ज्यादा 'आँखन की देखी' की बात करते है, यह किताबों को ईश्वरीय बताकर आम जन की चेतना का हरण करके उन्हें श्रद्धालु बना डालने के पुरोहित वर्ग के षड़यंत्र के विरुद्ध कबीर का विद्रोह है।

कबीर वेद, कुरान, पुराण, धर्म, मजहब, पंथ और जाति, वर्ण की कुल श्रेष्ठता के दंभी दावों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने अनुभव जन्य यथार्थ से अवगत कराते हैं।

कबीरआग है, उससे बचा नहीं जा सकता है, कबीर नग्न सत्य है, उस पर कोई लीपापोती नहीं हो सकती है, जो है, सो है यही तो कबीरी है, यही तो फ़क़ीरी है।

कबीर बाजार में भी 'लिये लुकाटी हाथ' निर्भीक खड़े है, ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर की भावभूमि पर ..कबीर का कोई मुकाबला नहीं है, कबीर होना आसान भी तो नहीं है।

कबीर होने के लिए असली फकीर होना पड़ता है।आज के फ़क़ीरों की तरह अदाकारी से काम नहीं चलता ।

-भंवर मेघवंशी
( संपादक - शून्यकाल )

Facebook Post : 


June 2, 2019

"धम्म" में बुद्ध का स्थान

बुद्ध ने अपने ही धम्म में अपने लिए किसी स्थान का दावा नहीं किया। 

ईसा मसीह ने ईसाईयत का परमेश्वर होने का दावा किया। इससे आगे उन्होंने यह भी दावा किया कि वह परमेश्वर का बेटा है। 

  • ईसा मसीह ने यह भी शर्त निश्चित की कि जब तक कोई मनुष्य, यह न स्वीकार करे कि ईसा मसीह परमेश्वर का बेटा है, तब तक इसकी मुक्ति हो ही नहीं सकती। 
  • इस प्रकार ईसा मसीह ने किसी भी ईसाई को मुक्ति के लिए अपने आप को परमेश्वर का बेटा मानने की अनिवार्य शर्त रखकर, ईसाईयत में अपने लिए एक खास स्थान बना लिया। 
  • इस्लाम के पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब का दावा था कि वह खुदा द्वारा भेजे गए इस्लाम के पैगंबर थे ।
  • उन्होंने आगे और दावा किया कि कोई आदमी तब तक निजात (=मुक्ति) नहीं पा सकता जब तक वह ये दो बातें और न स्वीकार करे। 
  • इस्लाम में रहकर निजात (=मुक्ति) की इच्छा रखने वाले के लिए यह स्वीकार करना आवश्यक है कि हज़रत मुहम्मद साहब खुदा के पैगंबर हैं। 
  • इस्लाम में रहकर निजात (=मुक्ति) चाहने वाले के लिए यह भी स्विकार करना आवश्यक है कि हज़रत मुहम्मद साहब खुदा के आखिरी पैगंबर हैं। 
  • इस प्रकार इस्लाम में निजात (= मुक्ति) केवल उन्हीं के लिए निश्चित है जो ऊपर की दो शर्ते स्वीकार करते हैं । 
  • इस तरह हजरत मुहम्मद साहब ने किसी भी मुसलमान की निजात (=मुक्ति) उसके द्वारा उन्हें खुदा का पैगंबर स्वीकार करने की अनिवार्य शर्त पर निर्भर करवा कर अपने लिए इस्लाम में एक विशेष स्थान बना लिया । 
  • बुद्ध ने कभी भी ऐसी कोई शर्त नहीं रखी। उन्होंने स्वयं को शद्धोदन और महामाया का स्वाभाविक पुत्र होने के अतिरिक्त कभी कोई दूसरा दावा ही नहीं किया । 
  • उन्होंने ईसा मसीह और हजरत मुहम्मद साह्ब की तरह मुक्ति की शर्त लाकर अपने धम्म शासन में अपने लिए कोई खास स्थान नहीं बनाया।
  • यही कारण है कि इतना प्रचुर ग्रंथसमूह रहते हुए भी हमें बुद्ध के व्यक्तिगत जीवन के बारे में इतनी कम जानकारी प्राप्त है । 
  • जैसा कि ज्ञात है, बुद्ध के महापरिनिब्बान के बाद राजगृह में प्रथम बौद्ध संगीति थी। 
  • उस संगीति में महाकस्सप अध्यक्ष थे। आनंद , उपालि और अन्य दूसरे लोग कपिलवस्त के ही थे और जो जहां- जहां बुद्ध गए प्रायः हर जगह मृत्यु - पर्यंत उनके साथ रहे, वे सब वहां उपस्थित थे । 
  • लेकिन संगीति के अध्यक्ष महाकस्सप ने क्या किया ? 
  • उन्होंने आनंद से कहा कि वह "धम्म" को दोहराएं और तब 'संगीति- कारकों' से पूछा कि “ क्या यह ठीक है?" उन्होंने ''हां'' में उत्तर। महाकस्सप ने तब उस विषय पर प्रश्न करने समाप्त कर दिये। 
  • तब महाकस्सप ने उपालि से कहा कि वह 'विनय' को दोहराएं और तब 'संगीति-कारकों' से पूछा कि ''क्या यह ठीक है?'' उन्होंने ''हा'' में उत्तर दिया। महाकस्सप ने तब इस विषय पर प्रश्न करने समाप्त कर दिये । 
  • तब महाकस्सप को चाहिए था कि वह वहां संगीति में उपस्थित किसी को तीसरा प्रश्न करते और आज्ञा देते कि वह बुद्ध के जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाओं को बताएं। 
  • लेकिन महाकस्सप ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सोचा कि ''धम्म'' और ''विनय'' ही दो ऐसे विषय हैं जिनसे संघ का सरोकार है । 
  • यदि महाकस्सप ने बुद्ध के जीवन की घटनाओं का ब्यौरा तैयार करा लिया होता, तो आज हमारे पास बुद्ध का एक पूरा जीवन चरित्र होता। 
  • बुद्ध के जीवन की मुख्य - मुख्य घटनाओं का एक ब्योरा तैयार करा लेने की बात महाकस्सप को क्यों नहीं सूझी ? 
  • इसका कारण उपेक्षा नहीं हो सकती। इसका केवल एक ही उत्तर है कि बुद्ध ने अपने ''धम्म-शासन'' में अपने लिए कोई विशेष स्थान सुरक्षित नहीं रखा था। 
  • बुद्ध और धम्म सर्वथा अलग - अलग थे। उनका अपना स्थान था, धम्म का अपना। बद्ध द्वारा स्वयं को धम्म से पृथक रखने का एक और उदाहरण है उनके द्वारा अपना उत्तराधिकारी बनाना अस्वीकार करना। दो या तीन बार बुद्ध के अनुयायियों ने उनसे निवेदन किया कि वे किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करें। 
  • हर बार बुद्ध ने अस्वीकार कर दिया। उनका उत्तर था,
  • ''धम्म ही स्वयं का उत्तराधिकारी होना चाहिए'' ।
  • ''सिद्धांत को स्वतंत्र रूप से अपने पर ही निर्भर रहना चाहिए, किसी व्यक्ति के अधिकार के बल पर नहीं।''
  • "यदि सिद्धांत को किसी व्यक्ति के अधिकार पर निर्भर रहने की आवश्यक्ता है तो वह सिद्धांत ही नहीं।''
  • "यदि धम्म की प्रतिष्ठा के लिए हर बार इसके संस्थापक का नाम रट्ते रहने कि आवश्यकता है , तो वह धम्म नहीं है।''
  • अपने धम्म को लेकर स्वयं अपने बारे में बुद्ध का यही दृष्टिकोण था।
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

June 1, 2019

फुले की "गुलामगिरी" - ब्राह्मणवाद से मुक्ति का पहला घोषणापत्र

शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति का पहला घोषणा-पत्र आज ही प्रकाशित हुआ था। आज के दिन 1 जून 1873 शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति के पहले घोषणा-पत्र गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ था। यह ब्राह्मण से पूर्ण मुक्ति का घोषणा-पत्र है। हम सभी जानते है कि यह घोषणा-पत्र डॉ. आंबेडकर के गुरू और आधुनिक युग में ब्राह्मणवाद-मनुवाद को निर्णायक चुनौती देने वाले पहले व्यक्तित्व जोतिराव फुले ने तैयार किया था। फुले की किताबों में गुलामगिरी का वही महत्व है, जो डॉ. आंबेडकर की किताबों में जाति के विनाश का है। 

इस किताब में फुले ने प्राचीनकाल से आधुनिक युग तक ब्राह्मणवाद के सभी तथाकथित ईश्वरों, नायकों और धर्मग्रंथों की असलियत को तथ्यों और तर्कों के साथ उजागर किया है। इस प्रश्न का भी जवाब दिया है कि आखिर क्यों और कैसे ब्राह्मणों से दस गुना अधिक आबादी वाले शूद्रों-अतिशूद्रों को ब्राह्मणों ने अपना गुलाम बना लिया। इस गुलामी से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है। इसका भी रास्ता फुले सुझाया है। क्या है इस किताब में आइए विस्तार से पढ़ें-

1 जून 1873 को जोतिराव फुले (11अप्रैल 1827 - 28 नवम्बर 1890) की रचना ‘गुलामगिरी’ का प्रकाशन हुआ था। यह किताब मराठी में लिखी गयी। इसकी प्रस्तावना फुले ने अंग्रेजी में और भूमिका मराठी में लिखी है। इस किताब को लिखने का मूल उद्देश्य बताते हुए फुले ने लिखा है कि,
"इस किताब को लिखने का एकमात्र उद्देश्य सभी उत्पीड़ित लोगों को उनकी गुलामी का अहसास दिलाना, उनको इस योग्य बनाना कि वे अपनी इस हालात के कारणों को पूरी तरह समझ सकें और अपने आप को ब्राह्मणों की गुलामी, उत्पीड़न एवं अन्याय से मुक्त करने के लिए सक्षम बना सके।" (गुलामगिरी की भूमिका)


फुले ने करीब 12 किताबें लिखी हैं। इन सभी किताबों में उन्होंने ऐसी शैली और भाषा का प्रयोग किया है, जिससे ये किताबें व्यापक दलित-बहुनजों और मेहनतकशों स्त्री-पुूरूषों को समझ में आ जाएं। अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए फुले ने गुलामगिरी भी संवाद शैली में लिखा और उसे विभिन्न छोटे-छोटे परिच्छेदों में विभाजित किया । गुलामगिरी में कुल सोलह परिच्छेद हैं। इसके अलाव उन्होंने इसमें एक लंबा पंवाड़ा और बहुजन संत तुकाराम की शैली पर लिखित तीन अभंग भी समाहित किया है।

फुले ने इस किताब को यूनाइटेड स्टेट्स (अमेरिका) के उन लोगों को समर्पित किया है, जो नीग्रों गुलामों की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्हें समर्पित करते हुए फुले ने लिखा है कि,
“यूनाइटेड स्टेट्स के उन महान लोगों के सम्मान में, जिन्होंने नीग्रों लोगों को गुलामी से मुक्त कराने के कार्य में उदारता और निष्पक्षता के साथ सहयोग किया और उनके लिए कुर्बानी दी। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे देशवासी उनके इस सराहनीय कार्य का अनुकरण करें और अपने शूद्र भाईयों को ब्राह्मणी जाल से मुक्त कराने में अपना सहयोग करें”।(गुलामगिरी, समर्पण पृष्ठ)
यह किताब सोलह परिच्छेदों में विभाजित है। इन सोलह परिच्छेदों में प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल में ब्राह्मणों और शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच चले संघर्षों की कथा कही गई हैं। यहां एक तथ्य रेखांकित कर लेना जरूरी है कि फुले पश्चिमोत्तर भारत, विशेषकर आज के महाराष्ट की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचना के संदर्भ में यह किताब लिख रहे हैं। जहां मूलत: शू्द्रों-अतिशूद्रों पर वर्चस्व कायम करने और उन्हें अपना गुलाम बनाने वाली जाति ब्राह्मण रही है। वहां द्विज क्षत्रिय जैसी जाति नहीं रही है। समाज का विभाजन मूलत: शोषक-उत्पीड़क ब्राह्मण और शोषित-उत्पीड़ित शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच था।

फुले अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में बताते हैं कि इस क्षेत्र में ब्राह्मणों के आगमन और बाद में उनके द्वारा वर्चस्व स्थापित करने से पहले यहां वर्ण या जाति का विभाजन नहीं था। यहां एक समता आधारित राज्य था। जिसके प्रतीक बलि का राज्य या बलि राजा हैं। यह एक आर्थिक तौर पर समृद्ध इलाका था। जहां सभी खेती-किसानी करते थे और जरूरत पड़ने पर बाहरी दुश्मनों से युद्ध करते थे। इसके चलते सभी क्षत्रिय थे। फुले ने सबको क्षत्रिय के रूप में संबोधित भी किया है। परिच्छेद: छह में बलि राजा और उनके राज्य का वर्णन करते हुए फुले ने लिखा है कि “ इस देश का एक बड़ा भाग बलिराज के अधिकार में था।...दक्षिण में बलि के अधिकार में दूसरा एक प्रदेश था, उसको महाराष्ट्र कहा जाता है। वहां के मूल निवासियों को महाराष्टियन कहा जाता था। बाद में अपभ्रंश रूप हो गया मराठे।” फुले गुलामगिरी में यह स्थापित करते हैं ब्राह्मणों के वर्चस्व के पहले मराठों में कोई वर्ण-जाति विभाजन नहीं था। मराठों की संख्या ब्राह्मणों से दस गुनी से अधिक थी। मराठों को हमेशा-हमेशा के लिए अपने अधीन बनाने के लिए ब्राह्मणों ने शिक्षा का अधिकार छीन लिया और उन्हें हजारों जातियों में विभाजित कर दिया।

गुलामगिरी की भूमिका में स्वयं फुले ने यह सवाल उठाया है कि शूद्रों-अतिशूद्रों की संख्या करीबन दस गुना ज्यादा है। फिर भी ब्राह्मणों ने शूद्रों- अतिशूद्रों को कैसे मटियामेट कर दिया? स्वंय फुले इसका जवाब देते हैं। वे लिखते हैं ‘सबसे पहले ब्राह्मणों ने शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच नफरत की भावना फैलाने के लिए योजना तैयार की। उन्होंने प्रेम की बजाय नफरत के बीच बोये। इसके पीछे उनकी चाल यह थी कि शुद्र-अतिशूद्र समाज आपस में लड़ते रहेंगे, तभी ब्राह्मणों का वर्चस्व मजबूत होगा और स्थायित्व ग्रहण करेगा। उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बना लेंगे और बिना मेहनत किए उनकी (शूद्रों-अतिशूद्रों) की कमाई पर बिना किसी रोक-टोक के गुलछर्रे उड़ा पायेंगे। अपनी इसी विचारधारा और चाल को अंजाम तक पहुंचाने के लिए ब्राह्मणों ने जाति-भेद की फौलादी-जहरीली दीवारें खड़ी की। जाति-भेद की इस विचारधारा को शूद्र-अतिशूद्र भीतर से स्वीकार कर लें, इसके लिए जाति-भेद को ईश्वर की रचना बताने के लिए ब्राह्मणों ने बहुत सारे ग्रंथ रचे। इस सबका परिणाम यह हुआ कि कभी एक ही समाज के लोग अब एक दूसरे को नीच समझने लगे, एक दूसरे से नफरत करने लगे और आपस में लड़ने लगे। शूद्र-अतिशूद्र समाज की आपस की फूट का ब्राह्मणों ने कैसे फायदा उठाया। इस पूरी स्थिति पर ‘दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ’ कहावत बहुत सटीक बैठती है। इसका मतलब समझाते हुए फुले कहते हैं कि ब्राह्मण-पंडा पुरोहितों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के बीच आपस में नफरत का बीज (जाति) बो दिया और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशो-आराम कर रहे हैं।

सोलह परिच्छेदों में विभाजित गुलामी के पहले परिच्छेद में फुले ब्रह्मा की उत्पत्ति और आर्यों के आगमन की विस्तार से चर्चा करते हैं। कैसे ब्राह्मणों ने स्वयं को भूदेव या धरती का देवता बनाया, इस पर विस्तार से रोशनी डालते हैं। इस परिच्छेद में ब्राह्मणों की धूर्तता और बर्बर चरित्र की चर्चा की गई है। फुले लिखते हैं कि ‘सबसे पहले उन आर्य लोगों ने बड़ी-बड़ी टोलियां बनाकर इस देश में आकर कई बर्बर हमले किए और यहां के मूल निवासी राजाओं के प्रदेशों पर बार-बार हमले करके आतंक फैलाया। (गुलामगिरी, पहला परिच्छेद)। परिच्छेद दो में ब्राह्मणों के अगुवा मत्स्य और उसके हमले की चर्चा की गई। परिच्छेद तीन में कच्छ, भूदेव, भूपति, द्विज, कश्यप और क्षत्रिय आदि का वर्णन किया गया है। इसमें आर्य-ब्राह्मणों के अगुवा कच्छप के नेतृत्व में मूल निवासियों पर होने वाले हमले का वर्णन है। परिच्छेद चार-पांच में आर्यों-ब्राह्मणों के नेता वराह द्वारा मूल निवासियों के राजा हिरण्यकश्यप और हिरण्यगर्भ की छल से हत्या की कहानी की हकीकत को फुले ने उजागर किया है। इसी में हिरण्यकश्यप के बेटे प्रहलाद को अपने जाल में फंसाने की ब्राह्मणों की चाल को दिखाया गया है। इस युद्ध में वराह और नरसिंह आर्यों के अगुवा थे। परिच्छेद छह बलिराजा और उनके राज्य पर केंद्रित है। कैसे ब्राह्मणों के अगुवा वामन ने उनकी हत्या किया, इसका वर्णन किया गया है। महाराष्ट्र के समाज में बलिराजा को लोग कितना प्यार एवं सम्मान देते हैं और उनके राज्य की वापसी की आज भी चाह रखते हैं। इस तथ्य को फुले ने महाराष्ट्र के लोक में व्यापक तौर पर स्वीकृत “अला बला जावे और बलि का राज्य आवे” के माध्यम से प्रकट किया है।

ये सभी परिच्छेद इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि आर्य-ब्राह्मणों ने मूल निवासियों के राज्य पर कई बार हमले बोले। उनके बीच युद्ध हुआ। अंततः मूल निवासियों की पराजय और ब्राह्मणों की विजय हुई। आर्य-ब्राह्मणों में सबसे कूर, नृशंस और बेरहम परशुराम था। फुले के अनुसार परशुराम के द्वारा 21 बार जिन क्षत्रियों के विनाश की कथा पुराणों में कही गई है, वे क्षत्रिय कोई और नहीं, बल्कि यहां के मूल निवासी शूद्र-अतिशूद्र थे। परशुराम ने किस नृशंसता से उनका कत्ल किया, इसका विस्तार से वर्णन परिच्छेद आठ में किया गया है। परिच्छेद नौ, दस, ग्यारह, बारह में ब्राह्मणों के पूर्ण वर्चस्व की स्थापना की कथा कही गई है।

परिच्छेद तेरह से लेकर पंद्रह तक, आधुनिक युग में अंग्रेजों के आगमन, शूद्रों-अतिशूद्रों की स्थिति में थोड़ा सुधार एवं परिवर्तन, अंग्रेजों के राज्य में भी कैसे ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व कायम किया, इसका वर्णन किया गया है। इस इन परिच्छेदों में अंग्रेजी राज कैसे शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए थोड़ी राहत लेकर आया? कैसे इन समुदायों को थोड़ी आजादी और सांस लेने का मौका मिला और इस अवसर का फायदा शूद्रों-अतिशूद्रों शिक्षा पाने के लिए उठाया इसका भी वर्णन किया है। गुलागिरी के एक अभंग में फुले लिखते हैं-
मनु जलकर खाक हो गया, जब अंग्रेज आया।
ज्ञान रूपी मां ने हमकों दूध पिलाया।।

इन्हीं परिच्छेदों में ब्राह्मणवादी पेशवाई की पराजय और अंग्रेजों की विजय के परिणामों की भी चर्चा है। सबकुछ के बावजूद भी अंग्रेजी शिक्षा का फायद उठाकर ब्राह्मणों ने अंग्रेजों के राज्य में कैसे अपना वर्चस्व कायम रखा फुले इसके कारणों की भी विस्तार से चर्चा करते हैं।

परिच्छेद सोलह में ब्राह्मणों के चुंगल से शूद्रों-अतिशूद्रों की कैसे मुक्ति हो, इस विषय पर केंद्रित है। इसमें वे शूद्रों-अतिशूद्रों के प्रतिनिधि के रूप में तीन प्रतिज्ञा लेते हैं-
  1. ब्राह्मणों ने जिन तीन प्रमुख धर्मग्रंथों के आधार पर शूद्र-अतिशूद्र लोग ब्राह्मण के गुलाम हैं और उनके जिन ग्रंथों में हमारी गुलामी के समर्थन में लिखा गया है, हम उन सभी धर्मग्रंथों को खारिज करते हैं।
  2. जो कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नीचा समझने का आचरण करते है। हम उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं देंगे।
  3. जो गुलाम ( शूद्र, दास, दस्यु) के अपने रचयिता को मानकर नीति के अनुसार चलने और जीविकोपार्जन का उचित साधन अपने का निर्णय करते और उसके अनुसार अपना आचरण करते हैं। उनको हम अपने परिवार के भाई की तरह मानेंगे, उन्हें प्यार करेंगे और उनके साथ खाना-पीना करेंगे। चाहे वे लोग किसी भी देश के रहने वाले क्यों न हो। ( गुलामगिरी परिच्छेद : सोलह)
इस किताब का अंत अभंग की इन निम्न पंक्तियों से होता है-
पढ लो मेरा लेख, जोतिराव कहे।।
हम शिक्षा पाते ही, पाएंगे वह सुख।

- सिद्धार्थ रामु

ज्योतिबा फुले लिखित "गुलामगिरी " किताब :


Facebook Post :