August 27, 2018

उत्तराधिकारी बनाने का सवाल !!! - बुद्ध और उनका धम्म


1. एक समय बुद्ध धनुर्धारी नामक शाक्य परिवार के आम के बग़ीचे में ठहरे हुए थे।

२. उस समय पावा में निगंठनाथ पुत्र (महावीर) का देहांत हुए थोड़ा ही समय हुआ था। उनकी मृत्यु पर निगंध (जैन) लोगों में आपस में झगड़ा हो गया। वे दो दलों में बट कर एक दूसरे को शब्द रूपी वाणों से घायल करने लगे।

३. अब चुन्द श्रामणेर(नया भिक्षु) पावा में वर्षावास समाप्त कर भंते आनंद से मिलने आया। उसने सूचना दी कि "निगण्ठनाथ पुत्र का अभी पावा में देहांत हो गया है। उनकी मृत्यु हो जाने पर निगंठ लोगों में आपस में झगड़ा हो गया है। वे दो दलों में विभाजित हो गए है। एक दूसरे को शब्द रूपी वाणों से बींधते हैं। इसका कारण यहीं है कि उनका कोई संरक्षक नहीं रहा।"

४. तब भंते आनन्द ने कहा, "चुन्द ! यह तथागत के ध्यान में लाने लायक एक महत्वपूर्ण विषय है। हम उनके पास चले और यह बात बता दे।"

५. "बहुत अच्छा" चुन्द ने कहा।

६. तब आनन्द और चुन्द दोनों मिलकर तथागत के पास पहुँचे और अभिवादन कर तथागत को निगण्ठनाथ पुत्र की मृत्यु की सूचना दी और साथ ही आग्रहपूर्ण निवेदन किया कि तथागत अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त कर दें।

७. चुन्द की बात सुनी तो तथागत ने उत्तर दिया ! "चुन्द विचार करो कि लोगों में एक शास्ता(गुरु) उत्पन्न होता है; अर्हत, सम्यक, सम्बुद्ध की देशना करता है, जो सु-आख्यात है, जो प्रभावशाली पथ-प्रदर्शक है, जो शान्ति की ओर ले जाता है; लेकिन उसके श्रावक सद्धम्म में समयक प्रतिष्ठित नहीं हुए हैं, यदि वह सद्धम्म उस शास्ता के न रहने पर उनका त्राण नहीं कर सकता।

८."तो हे चुन्द ! ऐसे शास्ता का न रहना उसके श्रावकों के लिए भी बड़ी दुःख की बात है और उसके धम्म के लिए भी बड़ा खतरा है।

९. लेकन चुन्द जब लोक में एक ऐसा शास्ता उत्पन्न हुआ हो जो अर्हत हो, जो सम्यक सम्बुद्ध हो, जिसने सद्धम्म की देशना की हो; जिसका सद्धर्म सु-आख्यात हो, जी सद्धम्म प्रभावशाली पथ-प्रदर्शक हो, जो शांति की ओर ले जाता हो और जहाँ श्रावक सद्धम्म में सम्यकरूप से प्रतिष्ठित हो गए हो और जब शास्ता के न रहने पर भी वह सद्धम्म उन श्रावकों को सम्यक रूप से प्रकट रहता हो।

१०. "तो चुन्द ! ऐसे शास्ता का न रहना उसके श्रावकों के लिए दुःख की बात नहीं है। तब किसी उत्तराधिकारी की क्या आवश्यकता है ?"

११. जब आनन्द ने एक दूसरे अवसर पर भी यह बात दोहराई तो तथागत ने कहा, "आनन्द ! क्या दो भिक्षु भी तुम्हें ऐसे दिखाई देते हैं, जिनका धम्म के विषय में एक मत न हो ?"

१२. "नहीं, लेकिन जो तथागत के आस-पास हैं, हो सकता है वो तथागत के मरने के बाद "विनय" के सम्बन्ध में, संघ के नियमों के सम्बन्ध में विवाद खड़ा कर दे और ऐसा विवाद बहुत से लोगों के दुःख के लिए होगा; बहुत लोगों के अहित के लिए होगा।"

१३. "आनन्द ! विनय सम्बन्धी विवाद, भिक्षुओं के नियमों के सम्बन्ध में विवाद बहुत महत्व के नहीं हैं, लेकिन हो सकता है कि भिक्षु संघ में "धम्म" को लेकर विवाद उठ खड़ा हो - यह सचमुच चिन्ता की बात होगी।

१४. "लेकिन धम्म सम्बन्धी विवादों के विषय में कोई डिक्टेटर कुछ नहीं कर सकता और एक उत्तराधिकारी भी यदि डिक्टेटर नहीं बनता तो कर क्या सकता है ?

१५. धम्म सम्बन्धी विवाद का निर्णय किसी डिक्टेटर का विषय नहीं है।

१६. "किसी भी विवाद के बारे में स्वयं संघ को ही निर्णय करना होगा। संघ को इकट्ठे हो कर विचार करना चाहिए और जब तक किसी निर्णय पर न पहुंचा जाये तब तक उस विषय पर अच्छी तरह उहा-पोह करनी चाहिए और बाद में उस निर्णय को स्वीकार करना चाहिए।

१७. "विवादों के निर्णय बहुमत से होने चाहिए। उत्तराधिकारी की नियुक्ति इसका इलाज नहीं हैं।"

- बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर (सन्दर्भ : बुद्ध और उनका धम्म)


August 22, 2018

पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे ! - संजय पटेल बौद्ध

एक क्रांतिकारी महिला को भक्त के रूप में प्रस्तुत करके महिलाओं को गुमराह किया गया है। मीरा उस जमाने की एक क्रांतिकारी महिला थी। समाज में प्रचलित वे रिवाज, रूढ़ियां एवं परंपराएँ, जो सामाजिक उन्नति में बाधक होते है, उनके विरोध में जो विद्रोह किया जाता है वह सामाजिक क्रांति है। 

उस युग मे भी अनेक रूढ़ियां थी जो समाज को कुचलती जा रही थी, उसे पंगु बना रही थी, उनके विरुद्ध मीरा ने क्रांति की। मध्ययुग में तो पति की मृत्यु पर सती होना अनिवार्य माना जाता था परंतु मीरा ने ऐसा नही किया। यह उस युग की बहुत बड़ी सामाजिक बगावत थी। मीरा के इस विद्रोह को सर्पदंश, विष तथा अग्नि में जला देने जैसे अनेक षडयंत्रो द्वारा कुचलने का प्रयास किया जाता रहा पर मीरा झुकी नही। सभी अवरोधों और व्यवधानों को तोड़ती, रौंदती, कुचलती हुई मीरा साधु-संतों के साथ गली-गली फिरती रही। उसने न पर्दा किया न सती हुई। यह समाज के विरुद्ध क्रांति ही तो थी।

मीरा द्वारा संत रविदास को अपना गुरु बनाना भी उस समय के रूढ़िग्रस्त समाज के लिए एक चुनौती था। संत रविदास समाज के उपेक्षित वर्ग से थे परंतु मीरा तो सामाजिक भेदभाव से परे थी। वह तो समाज को एक सूत्र में बांधने की बात करती थी जहाँ कोई ऊंच-नीच नही है।

इस प्रकार मीरा ने नियमों और बंधनो को तोड़ा। मध्ययुगीन रूढ़िग्रस्त समाज की नारी होते हुए भी वह दबी नही। युग को चुनौती दी, विद्रोह किया और समाज की रूढ़-परंपराओं को तोड़ा। आज की नारी को वही निर्भीक, निडर और क्रांतिकारी मीरा की जरूरत है, नही की आपको दिखाई जानेवाली कृष्ण भक्ति में मंजीरा लेकर दिखाई गई भक्त मीरा की !

संदर्भ:
रीता सचदेव,
"पंचनाद - संतो की वाणी में क्रांति चेतना" किताब से

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August 20, 2018

महाड़ सत्याग्रह बनाम नमक सत्याग्रह.. ब्राह्मणवाद बनाम साम्राज्यवाद.. डॉ. आंबेडकर बनाम गांधी..

महाड़ सत्याग्रह बनाम नमक सत्याग्रह, ब्राह्मणवाद (सामंतवाद) बनाम साम्राज्यवाद, डॉ. आंबेडकर बनाम गांधी.. कैसे देखें आधुनिक के इतिहास के आईने में आज के भारत को ?

महाड़ सत्याग्रह डॉ. आंबेडकर की अगुवाई में 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले के महाड स्थान पर हुआ था। हजारों की संख्या में अछूत कहे जाने वाले लोगों ने डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में सार्वजनिक चावदार तालाब में पानी पीया। सबसे पहले डॉ. आंबेडकर ने अंजुली से पानी पीया, उनका अनुकरण करते हुए हजारों दलितों ने पानी पीया। अगस्त 1923 को बॉम्बे लेजिस्लेटिव कौंसिल ( अंग्रेजों के नेतृत्व वाली ) के द्वारा एक प्रस्ताव लाया गया, कि वो सभी जगह जिनका निर्माण और देखरेख सरकार करती है, ऐसी जगहों का इस्तेमाल हर कोई कर सकता है। चावदार तालाब में पानी पीने के जुर्म का बदला सवर्ण हिन्दुओं ने दलितों से लिया। उनकी बस्ती में आकर दंगा किया और लोगों को लाठियों से पीटा। बच्चे-बुड्ढे-औरतो सभी को पीटा। घरों में तोड़फोड़ की गई। हिन्दुओं ने इल्ज़ाम लगाया कि अछूतों ने तालाब से पानी पीकर तालाब को भी अछूत कर दिया। ब्राह्मणों के अनुसार पूजा-पाठ से तालाब को फिर से शुद्ध किया गया। 

महाड़ सत्याग्रह पानी के पीने के अधिकार के साथ इंसान होने का अधिकार जताने के लिए भी था। डॉ. आंबेडकर ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘‘क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है ? क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि यहां के जायकेदार कहलानेवाले पानी के हम प्यासे हैं ? नहीं, दरअसल इन्सान होने का हमारा हक जताने हम यहां आये हैं ।’’

गांधी ने महाड़ सत्याग्रह को दुर्गाग्रह कहा था। महाड सत्याग्रह के 3 वर्ष बाद गांधी ने नमक सत्याग्रह किया। मार्च 1930 को गाँधी जी ने साबरमती में अपने आश्रम से समुद्र की ओर चलना शुरू किया। तीन हफ्तों बाद वे अपने गंतव्य स्थान दांडी पहुँचे। वहाँ उन्होंने मुट्‌ठी भर नमक बनाकर ब्रिटिश कानून तोड़ा। हम सभी जानते हैं कि ब्रिटिश सत्ता ने नमक के उत्पादन और बिक्री पर राज्य का एकाधिकार घोषित कर दिया था यानी अब नमक का उत्पादन और बिक्री केवल सरकार ही कर सकती है। गांधी ने कानून तोड़ा और ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दिया।

महाड़ सत्याग्रह और नमक सत्याग्रह एक प्रतीकात्मक सत्याग्रह था। पहले में हजारों वर्षों की सवर्ण सत्ता ( सामंती सत्ता ) को चुनौती दी गई थी, जो अछूतों को वह भी हक देने को तैयार नहीं थी, जो जानवरों को भी प्राप्त था। हम सभी जानते हैं कि किसी भी तालाब में कोई भी जानवर पानी पी सकता था, लेकिन अछूतों को यह हक प्राप्त नहीं था। दूसरी तरफ नमक सत्याग्रह के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी गई थी। 

नमक सत्याग्रह की जीत हुई, महाड़ सत्याग्रह की कमोवेश पराजय। गांधी की जीत हुई, डॉ. आंबेडकर की कमोवेश हार। आधुनिक भारत के राष्ट्रवादी और वामपंथी इतिहासकारों ने महाड़ सत्याग्रह को हाशिएं पर रखा। नमक सत्याग्रह को न केवल भारत बल्कि विश्व इतिहास की महान घटना की तरह प्रस्तुत किया। नमक सत्याग्रह की अंतिम परिणति के तौर भारत की सत्ता ब्रिटिश लोंगो के हाथ से निकल उच्च वर्गीय सर्वणों के साथ मे चली गई। महाड़ सत्याग्रह के विजय की अंतिम परिणति ब्राह्मणवाद ( सामंतवाद ) का खात्मा होता। नमक सत्याग्रह से जिनको सत्ता मिली उन्होंने गांधी को महात्मा, बापू और राष्ट्रपिता बना दिया। यह वही गांधी थे, जिन्होंने महाड़ सत्याग्रह ( ब्राह्मणवाद को चुनौती ) को दुर्ग्राह कहा था। 


महाड़ सत्याग्रह आज भी अपनी अंतिम विजय की प्रतीक्षा कर रहा है। इतिहास की जिस घड़ी में महाड़ सत्याग्रह की अंतिम विजय होगी, गांधी नहीं, डॉ. आंबेडकर आधुनिक इतिहास के महानायक होंगे।

- सिद्धार्थ रामू

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August 9, 2018

कांशीराम: राजनीति का बेमिसाल रसायनशास्त्री - दिलीप मंडल

भारतीय राजनीति में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. और दूसरी बार ऐसा कब होगा, यह सवाल भविष्य के गर्भ में है. लगभग 50 साल की उम्र में एक व्यक्ति, वर्ष 1984 में एक पार्टी का गठन करता है. और देखते ही देखते देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, जहां से लोक सभा की 85 सीटें थीं, में इस पार्टी की मुख्यमंत्री शपथ लेती है. यह पार्टी पहले राष्ट्रीय पार्टी और फिर वोट प्रतिशत के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है. और जिस व्यक्ति ने इस पार्टी का गठन किया, वह बेहद साधारण परिवार से संबंधित था. उस समुदाय से, जिसे पढ़ने-लिखने का हक नहीं था और जिन्हें छूने की शास्त्रों में मनाही है. यह चमत्कार कितना बड़ा है, इसे समझने के लिए बीजेपी (जनसंघ) और कांग्रेस जैसी मुकाबले की दूसरी पार्टियों को देखें, जिनकी लंबी-चौड़ी विरासत है और जिन्हें समाज के समृद्ध और समर्थ लोगों का साथ मिला.

सरकारी कर्मचारी पद से इस्तीफा दे चुके इस व्यक्ति के पास संसाधन के नाम पर कुछ भी नहीं था. न कोई कॉर्पोरेट समर्थन, न कोई और ताकत, न मीडिया, न कोई मजबूत विरासत. सिर्फ विचारों की ताकत, संगठन क्षमता और विचारों को वास्तविकता में बदलने की जिद के दम पर इस व्यक्ति ने दो दशक से भी ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति को कई बार निर्णायक रूप से प्रभावित किया. दुनिया उन्हें कांशीराम के नाम से जानती है. समर्थक उन्हें मान्यवर नाम से पुकारते थे.

कांशीराम ने जब अपनी सामाजिक-राजनीतिक यात्रा शुरू की, तो उनके पास पूंजी के तौर पर सिर्फ एक विचार था. यह विचार भारत को सही मायने में सामाजिक लोकतंत्र बनाने का विचार था, जिसमें अधिकतम लोगों की राजकाज में अधिकतम भागीदारी का सपना सन्निहित था. कांशीराम अपने भाषणों में लगातार बताते थे कि वे मुख्य रूप से संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन बाबा साहब भीमराव आंबेडकर और उनके साथ क्रांतिकारी विचारक ज्योतिराव फुले के विचारों से प्रभावित रहे. 1980 में लखनऊ में एक सभा में उन्होंने कहा था कि “अगर इस देश में फुले पैदा न होते, तो बाबा साहब को अपना कार्य आरंभ करने में बहुत कठिनाई होती.” कांशीराम ने बहुजन का विचार भी फुले की ‘शुद्रादिअतिशूद्र’ (ओबीसी और एससी) की अवधारणा का विस्तार करके ही हासिल किया. कांशीराम के बहुजन का अर्थ देश की तमाम वंचित जातियां और अल्पसंख्यक हैं, जिनका आबादी में 85% का हिस्सा है. कांशीराम मानते थे देश की इस विशाल आबादी को राजकाज अपने हाथ में लेना चाहिए. इसे वे सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना और देश के विकास के लिए अनिवार्य मानते थे. इसके लिए वे सामाजिक वंचितों के आर्थिक सबलीकरण के भी प्रबल पक्षधर रहे.

इस विचार को मूर्त रूप देने के लिए कांशीराम ने अपना ध्यान सबसे पहले इन जातियों के सरकारी कर्मचारियों पर केंद्रित किया. वे मानते थे कि ये लोग राजनीतिक गतिविधियों में बेशक हिस्सा नहीं ले सकते. लेकिन बुद्धिजीवी होने के कारण, समाज को बौद्धिक नेतृत्व और आर्थिक संबल देने में यह तबका सक्षम है. आजादी के बाद से आरक्षण लागू होने के कारण उस समय तक मोटे अनुमान के मुताबिक इन जातियों के 20 लाख से ज्यादा सरकारी कर्मचारी थी. कांशीराम ने 1978 में सरकारी कर्मचारियों का संगठन बामसेफ यानी बैकवर्ड (एससी/एसटी/ओबीसी) एंड मायनॉरिटी कम्युनिटीज इंप्लाइज फेडरेशन का गठन किया और देखते ही देखते लाखों लोग इससे जुड़ गए. कांशीराम ने कर्मचारियों को ‘पे बैक टू सोसायटी’ की अवधारणा से अवगत कराया. इसकी वजह से उन्हें हजारों समर्पित कार्यकर्ता मिले और संगठन चलाने के लिए धन भी.

बामसेफ ने 1980 में एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम के तहत 9 राज्यों के 34 स्थानों पर चलता-फिरता आंबेडकर मेला सफलतापूर्व आयोजित कर स्थापित कर दिया कि कांशीराम जो सपना देख रहे हैं, उसे आगे बढ़ाने का रास्ता खुल चुका है. इसके बाद पहले राजनीतिक संगठन के रूप में कांशीराम 1981 में डीएस-4 यानी दलित शोषित समाज संघर्ष समिति का गठन करते हैं और 1984 में बीएसपी यानी बहुजन समाज पार्टी की स्थापना होती है. कांशीराम के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक अभियानों में उनकी 3000 किलोमीटर की साइकिल यात्रा उल्लेखनीय है, जिस दौरान वे हजारों लोगों से सीधे मिले और लाखों लोगों तक अपनी बात पहुंचाई. इसके बाद कांशीराम के 2004 में सेहत खराब होने तक तक बीएसपी जो राजनीतिक सफर तय करती है, वह समकालीन इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है.

बाबासाहब की तरह कांशीराम भी बौद्ध धर्म स्वीकार करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने 2006 में अक्टूबर महीने की तारीख भी तय कर ली थी. लेकिन इससे पहले उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता चला गया और 9 अक्टूबर, 2006 को उनका निधन हो गया. उनका शवदाह बौद्ध विधि से दिल्ली में हुआ.

कांशीराम की राजनीतिक विरासत पर विचार करते हुए इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे भारतीय राजनीति के पहले शख्स हैं, जिन्होंने दलितों को शासक बनने का न सिर्फ सपना दिखाय़ा, बल्कि उसे साकार करने का रास्ता भी बताया. राजनीतिक उद्देश्यों के लिए साधन की पवित्रता के हिमायती वे कभी नहीं रहे. राजनीतिक समझौतों की सवारी करते हुए अपनी विचारधारा की राजनीति को लगातार नई ऊंचाइयों तक ले जाते रहे. उन्होंने पवित्रतावाद की जगह, अवसर को सिद्धांत में तब्दील कर दिया. बीएसपी की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक समय में देश का हर सोलहवां वोटर इस पार्टी के हाथी निशान पर बटन दबा रहा था. अपनी राजनीति को कामयाबी तक पहुंचाने की दिशा में कांशीराम को मिली सफलताओ ने उनके व्यक्तित्व को वह चमक दी, जिसकी कोई भी राजनेता सिर्फ कामना ही कर सकता है.

– दिलीप मंडल ( 3 साल पहले)