September 25, 2018

"दलित" शब्द एक साजिश या भूल?

आज बहुत सारे अनुसूचित जाति के युवाओं में तेजी से बढ़ रहा "दलित" शब्द के प्रति लगाव भारी चिंता का विषय है। ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई अमानवीय जाति व्यवस्था के विरोध में जब आधुनिक भारत में पहली बार महात्मा जोतीराव फुले ने विद्रोह किया, तो उन्होंने सारे OBC, SC, ST जातियों की गोलबंदी, शूद्र और अति-शूद्र के तौर पर की। जब इस आंदोलन की बागडोर छत्रपति शाहू जी महाराज के हाथों में आई, तो उन्होंने भी इसी दिशा में काम किया और इसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी जोड़ा। फिर बाबासाहब ने पहले मज़दूरों और फिर अनुसूचित जातियों और फिर अंत में सारे 85 प्रतिशत समाज का एक बड़ा धुर्वीकरण करने की सोच को बनाया। वे भी यह बात समझ चुके थे कि सिर्फ अकेले "अछूत" कही जाने वाली जातियों के आधार पर ही, जिनकी आबादी देश में 15% के आसपास है, हम ब्राह्मणवादी ताक़तों को नहीं हरा पाएंगे। जब वो लखनऊ की एक ऐतिहासिक सभा में पहुँचे, तो उन्होंने साफ तौर पर इस बात पर ज़ोर दिया। उन्होंने बताया कि अगर चुनावी राजनीति में अनुसूचित और पिछड़ी जातियां एकजुट हो जाए, तो वो ब्राह्मणवादी ताक़तों को परास्त कर देश की सत्ता अपने हाथों में आसानी से ले सकती हैं । 

ब्राह्मणवाद के खिलाफ दक्षिण भारत में उग्र आंदोलन चलाने वाले पेरियार ने भी इसके लिए एक बहुत बढ़ा समाज तैयार किया। पुरे दक्षिण भारत में सिर्फ 3 प्रतिशत आबादी वाले ब्राह्मणों के खिलाफ, जोकि वहां के सभी संसाधनों पर कब्ज़ा जमाए बैठे थे, उन्होंने एक बड़ी घेराबंदी की। जैसे-जैसे देश में ब्राह्मणवाद के खिलाफ आंदोलन तेज हुए, तो उनमें से ज़्यादातर का नेतृत्व उन महापुरुषों ने किया, जो की पिछड़ी जातियों में जन्में थे। इससे घबराकर ब्राह्मणों ने इन जातियों के खिलाफ अपने रवैये में बदलाव किया और तेजी से इनका ब्राह्मणीकरण करके, इनमें इस मानसिकता का प्रचार करना शुरू किया कि वे तो "क्षत्रिय" हैं और अनुसूचित जातियां "शूद्र"। अनुसूचित जातियों के अपने को "दलित" शब्द से जोड़ने से ब्राह्मणवादियों की इस साजिश को और बल मिला और OBC और SC के बीच की खाई और बढ़ती चली गई। 

बाबासाहब के 1956 में जाने के बाद, RPI के माध्यम से पुरे OBC, SC, ST को एकजुट करने के उनके सपने को धक्का लगा। उनके पैरोकार उनकी इस दूरंदेशी को न समझ सके और इस आंदोलन को दुबारा सिर्फ अनुसूचित जातियों तक ही ले गए, उसमें भी महाराष्ट्र में यह सिर्फ महारों का आंदोलन बनकर रह गया। "दलित पैंथर" के उभार तक इसे "दलित" शब्द की परिभाषा से पूरी तरह से सिर्फ अनुसूचित जातियों तक ही सीमित कर दिया गया। ब्राह्मणवादी मीडिया और समाज ने भी इसका पूरा फ़ायदा उठाया और महाराष्ट्र में इस आंदोलन को "दलित" बनाम मराठा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वो दो जातियां जो किसी समय में महात्मा जोतीराव फूले, छत्रपति शाहू जी महाराज और बाबासाहब आंबेडकर के नेतृत्व में एक साथ ब्राह्मणवाद से लोहा ले रही थी, वो एक दूसरे से ही भिड़ गईं. इसकी वजह से फूले-शाहू-अम्बेडकर आंदोलन कई दशक पीछे चला गया। 1960-70 के दशक में जब साहब कांशी राम महाराष्ट्र में इस आंदोलन के साथ जुड़े, तो उन्होंने इस कमज़ोरी को साफ तौर पर देखा और काफी गहराई से इसकी असफलता के कारणों को समझने कि कोशिश की। सारे पहलुओं पर गहराई से गौर करने के बाद उन्होंने यह साफ कर दिया कि अगर हमें बाबासाहब के आंदोलन को राजनीतिक सत्ता के शिखर पर पहुँचाना हैं तो बगैर OBC, SC, ST को एकजुट किये यह नामुमकिन है। उनका पहला संगठन BAMCEF ही इस बात का गवाह है, जिसका मकसद पिछड़ी जातियों (OBC, SC, ST) और धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यकों को एकजुट करना था। इसके बाद बनाया गया दूसरा संगठन DS-4 भी इन सभी 6000 जातियों के लिए था न की सिर्फ अनुसूचित जाति की 1500 के लगभग जातियों के लिए। अंत में बहुजन समाज पार्टी की नींव रखकर उन्होंने फूले-शाहू-अम्बेडकर की इस व्यापक विचारधारा को अमली जामा पहनाया। 

हम सब जानते हैं कि "दलित" शब्द का अर्थ ही "टूटा हुआ", "गिराया हुआ", "दबाया हुआ" आदि है, इसलिए इस शब्द से अपनी पहचान को जोड़कर हम कभी भी एक क्रांति नहीं ला सकते। दूसरा यह हमें सिर्फ 15% आबादी तक ही सिमित रखता है, जोकि लोकतंत्र में एक मज़बूत भूमिका कभी भी नहीं निभा सकता। 


जहां एक ओर बाबासाहब और हमारे दूसरे महापुरुषों ने हमें पुरे भारत में 6000 जातियों को एकजुट करने की दिशा दी और उसमें काफी हद तक कामयाब भी हुए। हम आज फिर से उसी जगह पर वापस जाने का काम कर रहे हैं, जहां से शुरू करके वो आगे बढ़े थे। 


महाराष्ट्र के अपने एक भाषण में साहब कांशी राम ने इस बात पर ज़ोर दिया कि "जिन बातों पर हमारे महापुरषों ने दिमाग लड़ाया है, अब हमे और दिमाग नहीं लड़ाना है बल्कि सीधे-सीधे अपना लेना है।" 


आज के जो हालात ब्राह्मणवादी RSS ने बना दिए हैं, उससे पिछड़ी जातियों के दिमाग से भी यह वहम दूर हो गया है कि इस संगठन का दूर-दूर तक उनसे कोई लेना-देना है। चाहे वो गुजरात के पटेलों और हरियाणा के जाटों पर गोली चलवाना हो। महाराष्ट के मराठाओं को सत्ता से हटाना और उनकी आरक्षण की मांग को दरकिनार करना हो। उत्तर प्रदेश और बिहार से मुलायम और लालू राज को समाप्त करना या जातिगत जनगणना में पिछड़ी जातियों के आंकड़ों को छुपाना। एक के बाद एक उनके इन सारे दमन ने उनकी पूरी हिंदुत्ववादी विचारधारा की पोल खोल कर रख दी है। RSS ने अब यह ज़मीन तैयार कर दी है जिससे देश की पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के बीच सामाजिक और राजनीतिक एकता बन सके। लेकिन अनुसूचित जातियों के बहुत सारे अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों और चिंतकों के अपने आप को "दलित" पहचान से जोड़ने का कारण, इसमें लगातार देर होती जा रही है। 

समय की मांग है कि SC जातियों का बुद्धिजीवी वर्ग, जिसमें फूले-शाहू-अम्बेडकर विचारधारा के प्रति लगाव और जागरूकता पिछड़ी जातियों से कहीं ज़्यादा है; आगे बढ़कर पिछड़ी जातियों से अपने संबंधों को मज़बूत करें। इससे न सिर्फ इनमें आपस में भाईचारा बनेगा बल्कि ब्राह्मणवादी ताक़तों को भी सत्ता से उखाड़ फेंकने में कामयाबी हासिल होगी। 

हाल ही में हुई भीमा-कोरेगाँव हिंसा में ब्राह्मणवादी संगठनों और मीडिया ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी कि इसे पहले "दलित" बनाम "मराठा" और फिर "महार" बनाम "मराठा" बनाया जा सके। लेकिन यह एक ऐतिहासिक घटना है कि इस सबके बावजूद उन्हें इस बार मुंह की खानी पड़ी और खुद मराठा नेताओं और संगठनों ने आगे आकर कहा कि यह हमला ब्राह्मणवादी ताक़तों द्वारा करवाया गया है। पर इस सबके बीच हम इस बात से इंकार भी नहीं कर सकते कि अगर SC और OBC में भाईचारा नहीं बना और यह जातियां अपने को "बहुजन" विचारधारा से नहीं जोड़ पायी, तो आगे जाकर यह एक बहुत बड़ा खतरा भी बन सकता है। 

अपने एक भाषण में साहब कांशीराम ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि आखिर वो क्या कारण थे कि बाबासाहब अम्बेडकर ने पहले ILP, फिर SCF बनाई, लेकिन अंत में उन्होंने RPI का विचार बनाया ? उनका मानना था कि बाबासाहब अपने आप को सिर्फ दलितों के नेता नहीं बल्कि पूरी शोषित जातियों के नेता के रूप में स्थापित करना चाहते थे। जिससे पिछड़ी जातियों के साथ एक बड़ा ब्राह्मणवाद विरोधी मोर्चा बन सके। लेकिन उनके जाने के बाद दुश्मनों को कुछ ज़्यादा करने की ज़रूरत नहीं पड़ी, खुद उनके अपने ही लोगों ने उन्हें सिर्फ दलितों का नेता और उसमे भी सिर्फ महारों के नेता के तौर पर स्थापित कर दिया। 

आज एक ओर तो पिछड़ी जातियों में लगातार महात्मा जोतीराव फुले, छत्रपति शाहू जी महाराज, पेरियार, ललई सिंह यादव, राम स्वरूप वर्मा, बाबू जगदेव प्रसाद जैसे अपने महापुरषों के बारे में जागरूकता बढ़ रही है। उन सबसे प्रभावित हो कर वो अनुसूचित जातियों के साथ एक संवाद बनाना चाह रहे हैं। वहीं, अनुसूचित जातियों के बुद्धिजीवियों द्वारा बार-बार अपने आपको "दलित" के रुप में पेश करने से उनमें निराशा पायी जा रही है। जबकि अनुसूचित जाती में जन्में दो बड़े नेताओं बाबासाहब आंबेडकर और फिर साहब कांशी राम ने खुल कर OBC, SC, ST की एकता पर बल दिया और "दलित" शब्द को सिरे से ही नकार दिया। इस सबके बावजूद "दलित" शब्द का प्रयोग खुद अनुसूचित जातियों द्वारा लगातार इस्तेमाल करने से यह असमंजस बना हुआ है कि क्या यह कोई ब्राह्मणवादी साजिश है या फिर अनजाने में की जाने वाली भूल? 

अब यह इस देश के अनुसूचित जाती के बुद्धिजीवियों और चिंतकों को तय करना होगा कि क्या वो अपने आप को "दलित" रख कर पिछड़ी जातियों से दूर रखते हुए RSS-BJP को और मज़बूत होने देते हैं ? या अपने महापुरषों की विचारधारा पर चलकर "बहुजन" को ओर बढ़ते हैं, जिससे 6000 जातियों वाला एक बड़ा समाज तैयार हो सके, जिससे देश में फूले-शाहू-अम्बेडकर का बोलबाला हो। 

हमें साहब कांशीराम के इस नारे को जो उनके नेतृत्व में पुरे भारत में गूंजा था कभी नहीं भूलना चाहिए कि "जो बहुजन की बात करेगा, वो दिल्ली पर राज करेगा।"

- सतविंदर कुमार मदारा

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September 21, 2018

साहब कांशीराम और 'दलित' शब्द का सवाल?

आज पूरे भारत और यहाँ तक कि विश्वभर में 'दलित' शब्द के इस्तेमाल को लेकर समाज, विशेषकर, बहुजन समाज सहमति-असहमति की दो रायों के बीच बंट गया है. जहाँ एक ओर ब्राह्मणवादी मीडिया और समाज इसे बढ़ा-चढ़ा कर इस्तेमाल कर रहा है, वहीं ST, SC, OBC की मूलनिवासी बहुजन जातियाँ भी इस विषय पर बंटी हुईं हैं। एक तरफ तो इन मूलनिवासी जातियों ने 'दलित' शब्द को SC(अनुसूचित जातियाँ) की एक अलग पहचान के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, वहीं एक तरफ इनमें ऐसे लोग भी हैं, जो इस शब्द को एक ब्राह्मणवादी साजिश समझते हैं और इसे SC की जातियों के लिये प्रयोग करने को, उनके लिये बहुत घातक समझते हुये इसे पुरे ST, SC और OBC की एकता के लिये एक बहुत बड़ा खतरा भी मानते हैं। अगर हम 'दलित' शब्द के अर्थ को जानने की कोशिश करें, तो मुख्य तौर पर इसका मतलब है - 'टूटा हुआ', लेकिन अगर इसे भारत की SC जातियों के सन्दर्भ में देखें, तो इसका मतलब- तोड़े गये, गिराए गये, मांगने वाले, शोषित, गरीब, वंचित आदि बनता है। आधुनिक भारत में 'सामाजिक क्रांति' के पितामह कहे जाने वाले महात्मा जोतिबा फुले से लेकर बाबासाहब अंबेडकर तक अनेकों महापुरषों ने, जिन्होंने ग़ैर-बराबरी के खिलाफ संघर्ष किया, 'दलित' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए, साहब कांशी राम ने इसे बढ़ावा देना तो दूर रहा, बल्कि खुलकर इस शब्द का SC की जातियों के लिये इस्तेमाल करने का सख्त विरोध किया और एक-दो बार नहीं बल्कि अपने कई भाषणों और इंटरव्यू में इसके ख़िलाफ़ काफी सख़्त बयान दिये।

अगर हम उनके 'फुले-शाहू-अंबेडकर' आंदोलन से जुड़ने के बाद के समय को देखें, तो हमे साफ तौर पर दिखता है कि जिस पहले संगठन को उन्होंने बनाया, उसका नाम उन्होंने 'BAMCEF' रखा, जिसका पूरा नाम था, Backward and Minority Community Employees Federation, जिसका हिंदी में मतलब है, 'पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज कर्मचारी संघ'। इसमें 'Backward' शब्द उन्होंने पुरे ST, SC, OBC और इनमें से धर्म परिवर्तित हुई 6000 जातियों के लिये प्रयोग किया कि यह सभी जातियां आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ी हुई हैं न कि सिर्फ़ OBC की जातियों के लिये, जैसा की आम तौर पर किया जाता है। इसके बाद जो दूसरा संगठन उन्होंने बनाया, उसका नाम उन्होंने 'DS-4' रखा और जिसका पूरा नाम था 'दलित शोषित समाज संघर्ष समिति'. इसमें भी 'दलित' शब्द का इस्तेमाल उन्होंने 'दलित शोषित' के सन्दर्भ में किया, जिससे उनका मतलब फिर से पूरी ST, SC, OBC और इनमें से धर्म परिवर्तित हुई 6000 जातियों से था क्योंकि उनका मानना था कि यह सभी जातियाँ जोकि देश की आबादी का 85% हैं, इनका आर्थिक और सामाजिक शोषण हुआ है। तीसरा और आखरी तर्क कि संगठन, जिसकी नींव साहब कांशी राम ने रखी, वो थी 'बहुजन समाज पार्टी' की और इसमें भी उन्होंने 'बहुजन' शब्द का प्रयोग पुरे 85% समाज के लिए किया था। इन सारे उदाहरणों से हम यह साफ तौर पर देख सकते है कि साहब कांशी राम, हमेशा इस देश की 85% आबादी, जो 6000 जातियों में बंटी हुई है को एक साथ जोड़ने वाले शब्दों का ही प्रयोग करते थे और 'दलित' शब्द भी अगर उन्होंने इस्तेमाल किया, तो पुरे 85% समाज के लिये किया न की सिर्फ़ SC की जातियों के लिये। 

साहब कांशी राम ने कई जनसभाओं में खुलकर 'दलित' शब्द का विरोध किया और नागपुर की एक सभा में उन्होंने कहा कि उत्तर भारत में तो अब मीडिया वाले उन्हें 'दलितों का नेता' नहीं कह पाते हैं, लेकिन जब वो महाराष्ट्र में आते हैं तो मीडिया जानबूझकर यहाँ उन्हें 'दलितों का नेता' कहकर प्रचार करता है। लेकिन वो तो 'दलितिंग' के बहुत खिलाफ हैं और 'दलितिंग' से उनका मतलब है 'मांगने वाले' और वो तो कुछ मांगने वाले नहीं बल्कि अपने समाज को तैयार कर रहे हैं कि वो अब शाषक बनकर देने वाले बने। अक्टूबर,1998 को मलेशिया की राजधानी, कुआला लुम्पुर में हुए ऐतिहासिक पहले 'विश्व दलित सम्मेलन' में मुख्य मेहमान के तौर पर भाषण देते हुए पुरे भारत और दुनिया में बसे SC कि जातियों से जुड़े नेताओं और बुद्धिजीवियों के बीच उन्होंने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि, "दलितपन' एक प्रकार का भीकमँगा-पन बन गया है, जिस प्रकार कोई भिखारी कभी शासक नही बन सकता है, उसी प्रकार बिना अपना 'दलितपन' छोड़े कोई समाज शासक नही बन सकता।" इस विश्व स्तरीय सम्मेलन में जहां उन्होंने 'बहुजन' की विचारधारा पर ज़ोर दिया, वही पूरी दुनिया के सामने 'दलित' शब्द से हो रहे नुकसान से भी अपने समाज को सावधान किया। 



इसके अलावा पत्रकारों को दिए गये कई अलग-अलग इंटरव्यूओ में भी जब कभी 'दलित' से जुड़े हुए सवाल उनसे पूछे गये, तो उन्होंने बड़ी बेबाकी से इसके विरोध में अपने विचार रखें और इसके प्रयोग को लेकर अपना विरोध जताया। 1989 को 'चौथी दुनिया' को दिये अपने एक इंटरव्यू में जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि 'दलितों के हितों कि रक्षा के लिये कही 'दलितिस्तान' जैसा नारा देने की ज़रूरत तो नहीं पड़ेगी?" तो उन्होंने इसके जवाब में कहा कि "नहीं, बहुजन का नारा है, भारत देश हमारा है। वैसे भी हम केवल दलितों की ही बात नहीं करते, हम तो बहुजन की बात करते है, मैं दलित शब्द का प्रयोग भी नहीं करता, मैं तो बहुजन की बात करता हूँ।" इसी तरह 1992 में 'संडे' को दिये एक इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया कि आप इस मांग से सहमत हैं कि अगला राष्ट्रपति अनुसूचित जाती से होना चाहिये? तो इसके जवाब में उन्होंने साफ कहा कि मैं मांगने के ख़िलाफ़ हूँ और अपने लोगों को 'Demand'(मांग) के लिये नहीं बल्कि 'Command'(नियंत्रण) के लिये तैयार कर रहा हूँ और मांगने का इस समय मतलब है 'दलितपन'। 'दलितपन' मांगने वालों का ही सुधरा हुआ नाम है और मैं मांगने के विरुद्ध हूँ। जब मशहूर TV कार्यक्रम, 'आप की अदालत' में रजत शर्मा ने उनसे सवाल पूछा कि 'आप ब्राह्मणों के ख़िलाफ़ हैं दूसरी तरफ़ दलितों के नेता हैं' तो उन्होंने पलटकर जवाब देते हुए कहा 'मैं दलितों का नेता नहीं हूँ, लोग कहते हैं, आप जैसे लोग कहते हैं, मैं बहुजन का 'Organiser"(संगठक) हूँ और बहुजन समाज बना रहां हूँ। 



इन सब दिये गये हवालों के अलावा, साहब कांशी राम का एक और ऐसा भाषण भी है, जिसे पढ़ने के बाद उनके 'दलित' शब्द के प्रति न सिर्फ विरोध का पता चलता हैं, बल्कि उन्हें इस शब्द से कितनी चीड़ थी, यह भी साफ़ समझ में आ सकता है। यह भाषण उन्होंने 14 अप्रैल, 1999 को बाबासाहब अंबेडकर के जन्मदिन के अवसर पर, नई दिल्ली के 'Constitution Club' में दिया था और इसे मैं 'बहुजन संगठक' के 26 अप्रैल से 2 मई, 1999 के अंक से यहां दे रहा हूँ ताकि हम उनके विचारों को और भी अच्छी तरह से समझ सके। 

"उत्तर प्रदेश अन्य सूबों के मुक़ाबले में आगे क्यों है? क्योंकि उत्तर प्रदेश में 'बहुजन समाज' बना है। मैं ज़्यादातर 'दलित' शब्द का इस्तेमाल नहीं करता हूँ क्योंकि मैं कहता हूँ कि जब हमें हुक्मरान बनना है तो मैं 'बहुजन' शब्द का इस्तेमाल करता हूँ क्योंकि 'दलित' रहकर दलित लोग इस देश के हुक्मरान नहीं बन सकते। यह बात सही है कि 'बहुजन समाज' का आधार दलित समाज है। बुनियाद में दलित समाज है और उनको आधार बनना भी चाहिये क्योंकि उनके साथ सबसे ज़्यादा अन्याय अत्याचार हुआ है, जिनको हुक्मरान बनकर अन्याय-अत्याचार का अंत करने कि सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, तो सबसे पहले इस मूवमेंट(आंदोलन) का बेस(आधार) उनको ही बनना चाहिये। लेकिन 'दलित' रहते हुए हम लोग हुक्मरान नहीं बन सकते, इसलिये मज़बूत होना होगा क्योंकि मज़बूत लोग ही हुक्मरान बन सकते हैं दलित नहीं। जब महाराष्ट्र में 'दलित पैंथर' के लोग अपनी बात कहते थे तो मैं बड़ा परेशान होता था कि ये बात तो ठीक कहते हैं, लेकिन यह अपने आपको क्या कहते थे? कि हम 'दलित पैंथर' हैं। तब मैं उनको कहता था की भई पैंथर तो मांस खाता है और खून पीता है। लेकिन अगर पैंथर 'दलित' होगा तो क्या घास खायेगा? उसको घास खाना पड़ेगा क्योंकि Nature(स्वभाव) के अनुसार उसको मांस खाना चाहिये और खून पीना चाहिये। इसी तरह हमारे एक साथी है जो जनता दल के नेता हैं, श्री राम विलास पासवान, उन्होंने 'दलित सेना' बनाई तो उनको भी मेरी सलाह थी कि भई सेना तो मज़बूत होनी चाहिये क्योंकि जिस तरह पैंथर दलित होगा तो घास खाएगा और सेना दलित होगी तो मार खायेगी। फिर यदि मार ही खानी है तो सेना बनाने की क्या ज़रूरत है। मार खाने के लिये किसी संगठन की क्या ज़रूरत है? सेना बनानी है तो मज़बूत बनानी चाहिये जो मार कम खाये और मार ज़्यादा खिलाये। इसी तरह अगर हमे हुक्मरान बनना है तो हमें बहुजन बनना होगा।", साहब कांशीराम, 14 April, 1999, New Delhi.

उनके भाषण के इस अंश को पढ़कर शायद ही अब कोई इस ग़लतफ़हमी में रहे कि हमें 'दलित' शब्द का इस्तेमाल 'अनुसूचित जाती' के लोगों के लिये करना चाहिये या नहीं? किसी भी क्रांति में शब्दों का बहुत महत्त्व होता है और हमें इस बात का हमेशा ख्याल रखना चाहिये कि हम ऐसे शब्दों का प्रयोग करें, जिससे हमारे समाज का फ़ायदा हो सके न कि नुकसान और किसी भी हालत में ऐसे शब्दों को कभी भी बढ़ावा नहीं देना चाहिये, जो हमें ब्राह्मणवादी लोगों के द्वारा दिये गये हो। हम देख सकते है कि पूरा ब्राह्मणवादी मीडिया और समाज 'दलित' शब्द को जान बूझकर सिर्फ़ SC की जातियों के लिये ही इस्तेमाल करता है क्योंकि वो इसे SC से जोड़कर सिर्फ 15% आबादी तक सीमित करना चाहता है। साथ ही क्योंकि इस शब्द का अर्थ 'टुटा हुआ' और 'गरीब', 'दबाया हुआ' आदि बनता है, तो स्वाभाविक है कि जो समाज इसे अपने साथ जोड़ेगा तो उसका मानसिक स्तर भी गिरा ही रहेगा और 'क्रांतियां' वही लोग लाते हैं जिनमे जोश हो न कि निराशा। आप कभी भी ब्राह्मणवादी मीडिया और लोगों को 'मूलनिवासी' शब्द का इस्तेमाल करते नहीं देखेंगे, जबकि पुरे देश के चप्पे-चप्पे में आज इस शब्द की गूंज है कि ST, SC, OBC इस देश के मूलनिवासी है और साहब कांशी राम ने भी अनेकों बार जन सभाओं में इस शब्द का प्रयोग किया है और न ही आप कभी अपने विरोधियों को ST, SC, OBC के लिये 'बहुजन' शब्द का व्यवहार करते देखेंगे। आखिर कारण क्या है? कारण यह है कि ब्राह्मणवादी लोगों को यह मालूम है कि इन शब्दों को इस्तेमाल करने से इन सभी की एक पहचान बनती है और 6000 जातियों में बाँटे गये इस समाज में आपसी भाईचारा बनता है जो वो किसी भी सूरत में बनने नहीं देना चाहते। 

अगर हमें भारत में एक मानवतावादी और बराबरी पर आधारित समाज बनाना है और अपने महापुरुषों के दिखाए रास्ते पर चलना है तो हमें उनके विचारों को काफी गहराई से समझ कर ब्राह्मणवादी साजिशों से सावधान रहना होगा। हमें 'दलित' या ऐसे और भी मनोबल को तोड़ने वाले शब्दों से, जिन्हें ब्राह्मणवादी लोगों ने बढ़ावा दिया है, के प्रयोग को बंद कर, ऐसे शब्दों को बढ़ावा देना हैं जिससे हम न सिर्फ अपने समाज का मनोबल बढ़ाएं बल्कि पुरे ST, SC और OBC में 6000 जातियों में बाँटे गये अपने समाज को एक साथ जोड़ सकें। यही वो सही मायने है और यही, साहब कांशी राम के ग्यारवें परिनिर्वाण दिवस 9 अक्टूबर, 2017 पर उनको श्रद्धांजलि होगी।

- सतविंदर कुमार मदारा

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स्रोत
1.मान्यवर कांशी राम साहब के संपादकीय लेख, संपादक: ए.आर.अकेला।
2.मान्यवर कांशी राम साहब के ऐतिहासिक भाषण, खण्ड 1,2,3, संपादक: ए.आर.अकेला। 
3.मान्यवर कांशी राम साहब के साक्षात्कार, संपादक: ए.आर.अकेला। 
4.बहुजन संघठक 
5.Saheb Kanshi Ram, Channel, YouTube. 

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बाबासाहेब की 'दलित' शब्द को लेकर साफ़ राय...

दलित शब्द के इस्तेमाल को लेकर पिछले काफी समय से विवाद बना हुआ है. भारत की अनुसूचित जातियों का बुद्धिजीवी वर्ग इस विषय पर बुरी तरह बट चुका है और इसके पक्ष और विपक्ष में अलग-अलग दलीलें दी जाती हैं. पिछले दिनों भारत सरकार की तरफ से एक आदेश जारी किया गया, जिसमें इसे इस्तेमाल न करने की सलाह दी गयी. इसके बाद से यह मुद्दा एक बार फिर गरमा गया।

पिछले कुछ समय से साहब कांशी राम के विचारों को गहराई से जानने की कोशिश में मैंने काफी बार उन्हें इस नाज़ुक विषय पर अपनी राय देते हुए पाया. लगभग सभी जगह उन्होंने इस शब्द के इस्तेमाल को लेकर अपना विरोध जताया और सिर्फ अनुसूचित जाति ही नहीं बल्कि पुरे बहुजन समाज(ST, SC, OBC) को इससे होने वाले नुकसान से आगाह करवाया।

इस विषय पर मैंने पहले भी दो लेख लिखे; पहला "साहब कांशी राम और दलित शब्द का सवाल" और दूसरा "दलित शब्द एक साजिश या भूल". पहले लेख में मैंने साहब कांशी राम के कई भाषणों और साक्षात्कारों (इंटरव्यू) का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने इस शब्द का विरोध किया था. दूसरे में मैंने महात्मा जोतीराव फूले, बाबासाहब अम्बेडकर और साहब कांशीराम तक के नेतृत्व में बने संगठनों और आंदोलनों का ज़िक्र किया कि कहीं भी "दलित" शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया. सभी ने ST, SC, OBC में बिखरी 6000 जातियों को जोड़ने वाले शब्दों का प्रयोग किया ताकि एक मज़बूत और बड़ी पहचान बन सके।

मैंने कई बार सुना था कि बाबासाहब अम्बेडकर भी "दलित" शब्द के इस्तेमाल के खिलाफ थे, लेकिन उनके द्वारा इस सम्बन्ध में लिखे गए विचारों को कभी पढ़ा नहीं था. कुछ दिन पहले YouTube पर एक वीडियो देखा, जिसमें बिहार से आते एडवोकेट माला दास इस विषय पर बोल रहीं थीं कि बाबासाहब के खंड 4 के आखरी पृष्ठों पर "नामकरण" शीर्षक के अंतर्गत उनके यह विचार पढ़े जा सकते हैं।

जब मैंने खंड 4 के पृष्ट 228 को खोला तो "नामकरण" शीर्षक के अंतर्गत दिए बाबा साहेब के विचारों को पढ़कर हैरान रह गया. वो न सिर्फ इस शब्द के सख्त खिलाफ थे बल्कि उन्होंने इस बारे में कई तर्क भी दिये हैं. यह विचार बाबासाहब ने 1 मई 1932 को लोथियन कमेटी के सामने अनुसूचित जातियों को वोट का अधिकार दिए जाने के संबंध में दी गयी अपनी रिपोर्ट में रखे थे. इस रिपोर्ट का मुख्य विषय तो वोट के अधिकारों से जुड़ा था, लेकिन बाबासाहब ने अनुसूचित जातियों के एक उचित नाम रखे जाने को भी इसमें शामिल किया ताकि इस मसले का भी हल ढूंढा जा सके. मैं यहां उनके विचारों को संदर्भ के तौर पर दे रहा हूँ ताकि हम सब इसके बारे में जान सके।

14. संविधान में प्रस्तावित परिवर्तनों के फलस्वरूप मतदाता सूचियों में जो संशोधन हो रहा है, वह इस प्रश्न पर विचार के लिए एक अति उत्तम अवसर है कि दलित वर्गों का एक उचित और उपयुक्त नामकरण किया जाए. अतः मैं इस प्रश्न पर अपनी राय व्यक्त करना चाहता हूँ. जिन जातियों को इस समय "दलित वर्ग" कहा जाता है, उन्हें इस शब्द के प्रयोग पर काफी आपत्ति है. कमेटी के सामने जो अनेक साक्षी उपस्थित हुए हैं, उन्होंने इस भावना को व्यक्त किया है. इसके अलावा दलित वर्ग शब्द ने जनगणना में काफी भृम पैदा करा दिया है क्योंकि इसमें उन दूसरे लोगों का भी समावेश(शामिल) है, जो वास्तव में अस्पृश्य नहीं हैं. दूसरे वह यह धारणा पैदा करता है कि दलित वर्ग एक निम्न और असहाय समुदाय है, जब की वास्तविकता यह है कि हर प्रांत में उनमें से अनेक सुसम्पन्न(खुशहाल) और सुशिक्षित लोग हैं और समूचे समुदाय में अपनी आवश्यकताओं के प्रति चेतना जागृत हो रही है. उसके मानस में भारतीय समाज में सम्मानजनक दर्जा प्राप्त करने की प्रबल लालसा पैदा हो गई है और वह उसे प्राप्त करने के लिए भागीरथ(काफी बड़े) प्रयास कर रहा है. इन सब कारणों के आधार पर "दलित वर्ग" शब्द अनुपयुक्त और अनुचित है. असम के जनगणना अधीक्षक श्री मुल्लान ने अस्पृश्यों के लिए "बाहरी जातियां" नामक नये शब्द का प्रयोग किया है. इस बोध नाम के अनेक लाभ हैं. यह उन अस्पृश्यों की स्थिति की सही व्याख्या करता है, जो हिन्दू धर्म के भीतर तो हैं, लेकिन हिन्दू समाज से बाहर हैं और वह उसका विभेद(अंतर) उन हिन्दुओं से करता है, जो आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से दलित तो हैं - लेकिन हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज दोनों की परिधि(घेरे) के भीतर हैं. इस शब्द के दो अन्य लाभ हैं, दलित वर्ग जैसे अनिश्चित शब्द के प्रयोग से इस समय जो समूचा भ्रम जाल फैला हुआ है, वह तो "बाहरी जाती" के प्रयोग से दूर होता ही है पर साथ ही साथ वह भौंडा(अपमानजनक) भी नहीं है. हमारी कमेटी का विचार है कि वह इस संबंध में सिफारिश करने के अधिकार नहीं रखती, लेकिन दलित वर्गों के प्रतिनिधि के नाते मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि जब तक कोई और बेहतर नाम न मिल जाए, तब तक अस्पृश्य वर्गों को अधिक व्यापक शब्द "बाहरी जातियों" या "बहिष्कृत जातियों" के नाम से पुकारा जाए न कि दलित वर्गों के नाम से। (बाबासाहेब अम्बेडकर, 1 मई, 1932; पृष्ट 228-229, खंड 4)

बाबासाहेब डॉ आम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय, खंड 4, पृष्ठ २२८-२२९
इनको पढ़ने के बाद मुझे नहीं लगता कि इस बात पर किसी भी तरह का कोई विवाद बाकी रह जाना चाहिए कि हमें "दलित" शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए या नहीं? हमारे समाज के बुद्धिजीवी कम से कम बाबासाहब के कहे गए इन विचारों से असहमत तो नहीं हो सकते, वो भी जब उन्होंने इतनी स्पष्टता से इस पर अपनी राय रखी हो. अगर फिर भी वो "दलित" शब्द के प्रयोग को सही ठहराते हैं तो फिर उन्हें पहले बाबासाहब अम्बेडकर के ऊपर दिए गए विचारों से अपनी असहमति जतानी होगी. उन्हें पूरे समाज के सामने अपना तर्क रखना होगा कि वो बाबासाहब के इन विचारों से क्यों असहमत हैं? यह भी हो सकता हैं कुछ ने बाबासाहब की यह रिपोर्ट न पढ़ी हो. उन्हें अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और इस गैर ज़रूरी विवाद, जिसका फैसला बाबासाहब ने 1932 को ही कर दिया था, से खुद को और अपने समाज को हमेशा के लिए बाहर निकालना चाहिए।

साहेब कांशीराम कहा करते थे कि अगर हमें इस देश का शासक बन कर बाबासाहब अम्बेडकर का सपना पूरा करना है तो हमें "दलित" (कमज़ोर) नहीं बल्कि बहुजन (बहुसंख्यक) बनना होगा. आधुनिक समय में "बहुजन" शब्द हमें सामाजिक क्रांति के पितामह महात्मा जोतीराव फूले ने दिया था. महाराष्ट्र की अपनी एक जन सभा में बोलते हुए साहब ने कहा था कि जिन बातों पर हमारे महापुरषों ने दिमाग लड़ाया है, अब हमें उन पर अपना दिमाग नहीं लड़ाना है. बस सीधे-सीधे अपना लेना है. मेरा दिमाग आगे की तरफ चलना चाहिए न की पीछे की तरफ।
शायद ही इससे बेहतर कोई मिसाल दी जा सकती हो।
- सतविंदर कुमार मदारा
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