September 25, 2018

"दलित" शब्द एक साजिश या भूल?

आज बहुत सारे अनुसूचित जाति के युवाओं में तेजी से बढ़ रहा "दलित" शब्द के प्रति लगाव भारी चिंता का विषय है। ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई अमानवीय जाति व्यवस्था के विरोध में जब आधुनिक भारत में पहली बार महात्मा जोतीराव फुले ने विद्रोह किया, तो उन्होंने सारे OBC, SC, ST जातियों की गोलबंदी, शूद्र और अति-शूद्र के तौर पर की। जब इस आंदोलन की बागडोर छत्रपति शाहू जी महाराज के हाथों में आई, तो उन्होंने भी इसी दिशा में काम किया और इसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी जोड़ा। फिर बाबासाहब ने पहले मज़दूरों और फिर अनुसूचित जातियों और फिर अंत में सारे 85 प्रतिशत समाज का एक बड़ा धुर्वीकरण करने की सोच को बनाया। वे भी यह बात समझ चुके थे कि सिर्फ अकेले "अछूत" कही जाने वाली जातियों के आधार पर ही, जिनकी आबादी देश में 15% के आसपास है, हम ब्राह्मणवादी ताक़तों को नहीं हरा पाएंगे। जब वो लखनऊ की एक ऐतिहासिक सभा में पहुँचे, तो उन्होंने साफ तौर पर इस बात पर ज़ोर दिया। उन्होंने बताया कि अगर चुनावी राजनीति में अनुसूचित और पिछड़ी जातियां एकजुट हो जाए, तो वो ब्राह्मणवादी ताक़तों को परास्त कर देश की सत्ता अपने हाथों में आसानी से ले सकती हैं । 

ब्राह्मणवाद के खिलाफ दक्षिण भारत में उग्र आंदोलन चलाने वाले पेरियार ने भी इसके लिए एक बहुत बढ़ा समाज तैयार किया। पुरे दक्षिण भारत में सिर्फ 3 प्रतिशत आबादी वाले ब्राह्मणों के खिलाफ, जोकि वहां के सभी संसाधनों पर कब्ज़ा जमाए बैठे थे, उन्होंने एक बड़ी घेराबंदी की। जैसे-जैसे देश में ब्राह्मणवाद के खिलाफ आंदोलन तेज हुए, तो उनमें से ज़्यादातर का नेतृत्व उन महापुरुषों ने किया, जो की पिछड़ी जातियों में जन्में थे। इससे घबराकर ब्राह्मणों ने इन जातियों के खिलाफ अपने रवैये में बदलाव किया और तेजी से इनका ब्राह्मणीकरण करके, इनमें इस मानसिकता का प्रचार करना शुरू किया कि वे तो "क्षत्रिय" हैं और अनुसूचित जातियां "शूद्र"। अनुसूचित जातियों के अपने को "दलित" शब्द से जोड़ने से ब्राह्मणवादियों की इस साजिश को और बल मिला और OBC और SC के बीच की खाई और बढ़ती चली गई। 

बाबासाहब के 1956 में जाने के बाद, RPI के माध्यम से पुरे OBC, SC, ST को एकजुट करने के उनके सपने को धक्का लगा। उनके पैरोकार उनकी इस दूरंदेशी को न समझ सके और इस आंदोलन को दुबारा सिर्फ अनुसूचित जातियों तक ही ले गए, उसमें भी महाराष्ट्र में यह सिर्फ महारों का आंदोलन बनकर रह गया। "दलित पैंथर" के उभार तक इसे "दलित" शब्द की परिभाषा से पूरी तरह से सिर्फ अनुसूचित जातियों तक ही सीमित कर दिया गया। ब्राह्मणवादी मीडिया और समाज ने भी इसका पूरा फ़ायदा उठाया और महाराष्ट्र में इस आंदोलन को "दलित" बनाम मराठा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वो दो जातियां जो किसी समय में महात्मा जोतीराव फूले, छत्रपति शाहू जी महाराज और बाबासाहब आंबेडकर के नेतृत्व में एक साथ ब्राह्मणवाद से लोहा ले रही थी, वो एक दूसरे से ही भिड़ गईं. इसकी वजह से फूले-शाहू-अम्बेडकर आंदोलन कई दशक पीछे चला गया। 1960-70 के दशक में जब साहब कांशी राम महाराष्ट्र में इस आंदोलन के साथ जुड़े, तो उन्होंने इस कमज़ोरी को साफ तौर पर देखा और काफी गहराई से इसकी असफलता के कारणों को समझने कि कोशिश की। सारे पहलुओं पर गहराई से गौर करने के बाद उन्होंने यह साफ कर दिया कि अगर हमें बाबासाहब के आंदोलन को राजनीतिक सत्ता के शिखर पर पहुँचाना हैं तो बगैर OBC, SC, ST को एकजुट किये यह नामुमकिन है। उनका पहला संगठन BAMCEF ही इस बात का गवाह है, जिसका मकसद पिछड़ी जातियों (OBC, SC, ST) और धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यकों को एकजुट करना था। इसके बाद बनाया गया दूसरा संगठन DS-4 भी इन सभी 6000 जातियों के लिए था न की सिर्फ अनुसूचित जाति की 1500 के लगभग जातियों के लिए। अंत में बहुजन समाज पार्टी की नींव रखकर उन्होंने फूले-शाहू-अम्बेडकर की इस व्यापक विचारधारा को अमली जामा पहनाया। 

हम सब जानते हैं कि "दलित" शब्द का अर्थ ही "टूटा हुआ", "गिराया हुआ", "दबाया हुआ" आदि है, इसलिए इस शब्द से अपनी पहचान को जोड़कर हम कभी भी एक क्रांति नहीं ला सकते। दूसरा यह हमें सिर्फ 15% आबादी तक ही सिमित रखता है, जोकि लोकतंत्र में एक मज़बूत भूमिका कभी भी नहीं निभा सकता। 


जहां एक ओर बाबासाहब और हमारे दूसरे महापुरुषों ने हमें पुरे भारत में 6000 जातियों को एकजुट करने की दिशा दी और उसमें काफी हद तक कामयाब भी हुए। हम आज फिर से उसी जगह पर वापस जाने का काम कर रहे हैं, जहां से शुरू करके वो आगे बढ़े थे। 


महाराष्ट्र के अपने एक भाषण में साहब कांशी राम ने इस बात पर ज़ोर दिया कि "जिन बातों पर हमारे महापुरषों ने दिमाग लड़ाया है, अब हमे और दिमाग नहीं लड़ाना है बल्कि सीधे-सीधे अपना लेना है।" 


आज के जो हालात ब्राह्मणवादी RSS ने बना दिए हैं, उससे पिछड़ी जातियों के दिमाग से भी यह वहम दूर हो गया है कि इस संगठन का दूर-दूर तक उनसे कोई लेना-देना है। चाहे वो गुजरात के पटेलों और हरियाणा के जाटों पर गोली चलवाना हो। महाराष्ट के मराठाओं को सत्ता से हटाना और उनकी आरक्षण की मांग को दरकिनार करना हो। उत्तर प्रदेश और बिहार से मुलायम और लालू राज को समाप्त करना या जातिगत जनगणना में पिछड़ी जातियों के आंकड़ों को छुपाना। एक के बाद एक उनके इन सारे दमन ने उनकी पूरी हिंदुत्ववादी विचारधारा की पोल खोल कर रख दी है। RSS ने अब यह ज़मीन तैयार कर दी है जिससे देश की पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के बीच सामाजिक और राजनीतिक एकता बन सके। लेकिन अनुसूचित जातियों के बहुत सारे अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों और चिंतकों के अपने आप को "दलित" पहचान से जोड़ने का कारण, इसमें लगातार देर होती जा रही है। 

समय की मांग है कि SC जातियों का बुद्धिजीवी वर्ग, जिसमें फूले-शाहू-अम्बेडकर विचारधारा के प्रति लगाव और जागरूकता पिछड़ी जातियों से कहीं ज़्यादा है; आगे बढ़कर पिछड़ी जातियों से अपने संबंधों को मज़बूत करें। इससे न सिर्फ इनमें आपस में भाईचारा बनेगा बल्कि ब्राह्मणवादी ताक़तों को भी सत्ता से उखाड़ फेंकने में कामयाबी हासिल होगी। 

हाल ही में हुई भीमा-कोरेगाँव हिंसा में ब्राह्मणवादी संगठनों और मीडिया ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी कि इसे पहले "दलित" बनाम "मराठा" और फिर "महार" बनाम "मराठा" बनाया जा सके। लेकिन यह एक ऐतिहासिक घटना है कि इस सबके बावजूद उन्हें इस बार मुंह की खानी पड़ी और खुद मराठा नेताओं और संगठनों ने आगे आकर कहा कि यह हमला ब्राह्मणवादी ताक़तों द्वारा करवाया गया है। पर इस सबके बीच हम इस बात से इंकार भी नहीं कर सकते कि अगर SC और OBC में भाईचारा नहीं बना और यह जातियां अपने को "बहुजन" विचारधारा से नहीं जोड़ पायी, तो आगे जाकर यह एक बहुत बड़ा खतरा भी बन सकता है। 

अपने एक भाषण में साहब कांशीराम ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि आखिर वो क्या कारण थे कि बाबासाहब अम्बेडकर ने पहले ILP, फिर SCF बनाई, लेकिन अंत में उन्होंने RPI का विचार बनाया ? उनका मानना था कि बाबासाहब अपने आप को सिर्फ दलितों के नेता नहीं बल्कि पूरी शोषित जातियों के नेता के रूप में स्थापित करना चाहते थे। जिससे पिछड़ी जातियों के साथ एक बड़ा ब्राह्मणवाद विरोधी मोर्चा बन सके। लेकिन उनके जाने के बाद दुश्मनों को कुछ ज़्यादा करने की ज़रूरत नहीं पड़ी, खुद उनके अपने ही लोगों ने उन्हें सिर्फ दलितों का नेता और उसमे भी सिर्फ महारों के नेता के तौर पर स्थापित कर दिया। 

आज एक ओर तो पिछड़ी जातियों में लगातार महात्मा जोतीराव फुले, छत्रपति शाहू जी महाराज, पेरियार, ललई सिंह यादव, राम स्वरूप वर्मा, बाबू जगदेव प्रसाद जैसे अपने महापुरषों के बारे में जागरूकता बढ़ रही है। उन सबसे प्रभावित हो कर वो अनुसूचित जातियों के साथ एक संवाद बनाना चाह रहे हैं। वहीं, अनुसूचित जातियों के बुद्धिजीवियों द्वारा बार-बार अपने आपको "दलित" के रुप में पेश करने से उनमें निराशा पायी जा रही है। जबकि अनुसूचित जाती में जन्में दो बड़े नेताओं बाबासाहब आंबेडकर और फिर साहब कांशी राम ने खुल कर OBC, SC, ST की एकता पर बल दिया और "दलित" शब्द को सिरे से ही नकार दिया। इस सबके बावजूद "दलित" शब्द का प्रयोग खुद अनुसूचित जातियों द्वारा लगातार इस्तेमाल करने से यह असमंजस बना हुआ है कि क्या यह कोई ब्राह्मणवादी साजिश है या फिर अनजाने में की जाने वाली भूल? 

अब यह इस देश के अनुसूचित जाती के बुद्धिजीवियों और चिंतकों को तय करना होगा कि क्या वो अपने आप को "दलित" रख कर पिछड़ी जातियों से दूर रखते हुए RSS-BJP को और मज़बूत होने देते हैं ? या अपने महापुरषों की विचारधारा पर चलकर "बहुजन" को ओर बढ़ते हैं, जिससे 6000 जातियों वाला एक बड़ा समाज तैयार हो सके, जिससे देश में फूले-शाहू-अम्बेडकर का बोलबाला हो। 

हमें साहब कांशीराम के इस नारे को जो उनके नेतृत्व में पुरे भारत में गूंजा था कभी नहीं भूलना चाहिए कि "जो बहुजन की बात करेगा, वो दिल्ली पर राज करेगा।"

- सतविंदर कुमार मदारा

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