June 29, 2018

महात्मा ज्योतिबा फुले और बाल गंगाधर तिलक के बीच कड़ा संघर्ष क्यों…?

राष्ट्रपिता जोतीराव फुले (11 अप्रैल 1827,मृत्यु – 28 नवम्बर 1890) और चितपावन ब्राहमण बाल गंगाधर तिलक (23 जुलाई 1856 – 1 अगस्त 1920) के बीच तीखा संघर्ष क्यों होता रहा ?

दोनों के बीच संघर्ष के कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे :


मुद्दा नंबर 1-

तिलक का मानना था कि जाति पर भारतीय समाज की बुनियाद टिकी है, जाति की समाप्ति का अर्थ है, भारतीय समाज की बुनियाद को तोड़ देना, साथ ही राष्ट्र और राष्ट्रीयता को तोड़ना है। इसके बरक्स फुले जाति को असमानता की बुनियाद मानते थे और इसे समाप्त करने का संघर्ष कर रहे थे। तिलक ने फुले को राष्ट्रद्रोही कहा, क्योंकि वो राष्ट्र की बुनियाद जाति व्यवस्था को तोड़ना चाहते थे. (मराठा, 24 अगस्त 1884, पृ.1, संपादक-तिलक)

मुद्दा नंबर – 2

तिलक ने प्राथमिक शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य बनाने के फुले के प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा कि कुनबी ( शूद्र) समाज के बच्चों को इतिहास, भूगोल और गणित पढ़ने की क्या जरूरत है, उन्हें अपने परंपरागत जातीय पेशे को अपनाना चाहिए। आधुनिक शिक्षा उच्च जातियों के लिए ही उचित है। (मराठा, पृ. 2-3)

मुद्दा नंबर – 3

तिलक का कहना था कि सार्वजनिक धन से नगरपालिका को सबको शिक्षा देने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि यह धन करदाताओं का है, और शूद्र-अतिशूद्र कर नहीं देते हैं। (मराठा, 1881, पृ.1)

मुद्दा नंबर – 4

तिलक ने महार और मातंग जैसी अछूत जातियों के स्कूलों में प्रवेश का सख्त विरोध किया और कहा कि केवल उन जातियों का स्कूलों में प्रवेश होना चाहिए, जिन्हें प्रकृति ने इस लायक बनाया है यानी उच्च जातियां। (Bhattacharya, Educating the Nation, Document no. 49, p. 125.)

मुद्दा नंबर – 5

तिलक ने लड़कियों को शिक्षित करने का तीखा प्रतिरोध और प्रतिवाद किया और लड़कियों के लिए स्कूल की स्थापना के विरोध में संघर्ष चलाया। (“Educating Women and Non-Brahmins as ‘Loss of Nationality’: Bal Gangadhar Tilak and the Nationalist Agenda in Maharashtra”).

मुद्दा नंबर – 6

जब फुले के प्रस्ताव और निरंतर संघर्ष के बाद ब्रिटिश सरकार किसानों को थोड़ी राहत देने के लिए सूदखोरों के ब्याज और जमींदारों के लगान में थोड़ी कटौती कर दी, तो तिलक ने इसका तीखा विरोध किया। हम सभी जानते हैं कि फुले ने 1848 में अछूत बच्चों के लिए स्कूल खोल दिया था और 3 जुलाई 1857 को लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोला। 



लोकमान्य कहे जाने वाले बाल गंगाधर तिलक से जोतिराव फुले एवं शाहू जी का संघर्ष और महात्मा कहे जाने वाले गांधी से डॉ. आंबेडकर के संघर्ष का इतिहास वास्तव मे उच्च जातीय वर्चस्व आधारित राष्ट्रवाद के खिलाफ शूद्रों-अतिशूद्रों का जातिविहीन समता आधारित समाज का संघर्ष है।

-सिद्धार्थ रामु


सामाजिक क्रांति के महान योद्धा - छत्रपति शाहूजी महाराज

छत्रपति शाहूजी महाराज का जन्म 26 जुलाई 1874 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीमंत जयसिंह राव आबासाहब घाटगे था। छत्रपति साहू महाराज का बचपन का नाम ‘यशवंतराव’ था। छत्रपति शिवाजी महाराज (प्रथम) के दूसरे पुत्र के वंशज शिवाजी चतुर्थ कोलाहपुर में राज्य करते थे। ब्रिटिश षडयंत्र और अपने ब्राहमण दीवान की गद्दारी की वजह से जब शिवाजी चतुर्थ का कत्ल हुआ तो उनकी विधवा आनंदीबाई ने अपने जागीरदार जयसिंह राव आबासाहेब घाटगे के पुत्र यशवंतराव को मार्च 1984 ई. में गोद ले लिया। बाल्य-अवस्था में ही यशवंतराव को साहू महाराज की हैसियत से कोल्हापुर रियासत की राजगद्दी को सम्भालना पड़ा।

छत्रपति साहू महाराज ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने राजा होते हुए भी बहुजन और शोषित वर्ग के कष्ट को समझा और सदा उनसे निकटता बनाए रखी। उन्होंने बहुजन वर्ग के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा प्रदान करने की प्रक्रिया शुरू की थी। ग़रीब छात्रों के छात्रावास स्थापित किये और बाहरी छात्रों को शरण प्रदान करने के आदेश दिए। साहू महाराज के शासन के दौरान “बाल विवाह” पर ईमानदारी से प्रतिबंधित लगाया गया। उन्होंने अंतरजातीय विवाह और विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में समर्थन की आवाज़ उठाई थी। इन गतिविधियों के लिए महाराज साहू को कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। साहू महाराज ज्योतिबा फुले से प्रभावित थे और लंबे समय तक ‘सत्य शोधक समाज’, फुले द्वारा गठित संस्था के संरक्षण भी रहे।

छत्रपति साहू महाराज का सरदार खानवीकर की बेटी “लक्ष्मीबाई” से हुआ था। साहू महाराज की शिक्षा राजकोट के ‘राजकुमार महाविद्यालय’ और धारवाड़ में हुई थी। वो 1894 ई. में कोल्हपुर रियासत के राजा बने। उन्होंने देखा कि जातिवाद के कारण समाज का एक वर्ग पिस रहा है। अतः उन्होंने बहुजनों के उद्धार के लिए योजना बनाई और उस पर अमल आरंभ किया। छत्रपति साहू महाराज ने बहुजनों के लिए विद्यालय खोले और छात्रावास बनवाए। इससे उनमें शिक्षा का प्रचार हुआ और सामाजिक स्थिति बदलने लगी। परन्तु उच्च वर्ग के लोगों ने इसका विरोध किया। वे छत्रपति साहू महाराज को अपना शत्रु समझने लगे। उनके पुरोहित तक ने यह कह दिया कि- “आप शुद्र हैं और शूद्र को वेद के मंत्र सुनने का अधिकार नहीं है। छत्रपति साहू महाराज ने इन सारे विरोध का डट कर सामना किया।

शाहूजी महाराज का स्पष्ट रूप से मानना था की, "अश्पृश्यता को कभी भी नहीं चला लिया जायेगा. उच्चवर्गीय लोगो को दलितों के साथ मानवीय व्यव्हार करना ही पड़ेगा. जब तक मनुष्य को मनुष्य नहीं समझा जायेगा, तब तक मानव समाज का सर्वांगी विकास शक्य ही नहीं है."




आरक्षण की व्यवस्था :


सन 1902 के मध्य में साहू महाराज इंग्लैणड गए हुए थे। उन्होंने वहीं से एक आदेश जारी कर कोल्हपुर के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50 प्रतिशत पद पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिये। महाराज के इस आदेश से कोल्हापुर के ब्राह्मणों पर जैसे गाज गिर गयी। उल्लेखनीय है कि सन 1894 में, जब साहू महाराज ने राज्य की बागडोर सम्भाली थी, उस समय कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन में कुल 71 पदों में से 60 पर ब्रहाम्ण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार लिपिकीय पद के 500 पदों में से मात्र 10 पर गैर-ब्राह्मण थे। साहू महाराज द्वारा बहुजनों को अवसर उपलब्ध कराने के कारण सन 1912 में 95 पदों में से ब्राह्मण अधिकारियों की संख्या अब 35 रह गई थी। सन1903में साहू महाराज ने कोल्हापुर स्थित शंकराचार्य मठ की सम्पत्ति जप्त करने का आदेश।


स्कूलों व छात्रावासों की स्थापना :
मंत्री ब्राह्मण हो और राजा भी ब्राह्मण या क्षत्रिय हो तो किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन राजा की कुर्सी पर वैश्य या फिर शुद्र शख्स बैठा हो तो दिक्कत होती थी। छत्रपति साहू महाराज क्षत्रिय नहीं, शूद्र मानी गयी जातियों में आते थे। कोल्हापुर रियासत के शासन-प्रशासन में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नि:संदेह उनकी अभिनव पहल थी। छत्रपति साहू महाराज ने सिर्फ यही नहीं किया, अपितु उन्होंने पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों मराठा, महार, ब्राह्मण, क्षत्रीय वैश्य, ईसाई, मुस्लिम, और जैन सभी के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएं खोलने की पहल की। साहू महाराज ने उनके लिए स्कूल और छात्रावास खोलने के आदेश जारी किये।

बाबासाहब डॉ भीमराव अम्बेडकर के मददगार :
ये छत्रपति साहू महाराज ही थे, जिन्होंने ‘भारतीय समविधान’ के निर्माण में महत्त्वपूर्व भूमिका निभाने वाले भीमराव अम्बेडकर को उच्च शिक्षा के लिए विलायत भेजने में अहम भूमिका अदा की। महाराजाधिराज को बालक भीमराव की तीक्ष्ण बुद्धि के बारे में पता चला तो वे खुद बालक भीमराव का पता लगाकर मुम्बई की सीमेंट परेल चाल में उनसे मिलने गए, ताकि उन्हें किसी सहायता की आवश्यकता हो तो दी जा सके। साहू महाराज ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर के ‘मूकनायक’ समाचार पत्र के प्रकाशन में भी सहायता की। महाराजा के राज्य में कोल्हापुर के अन्दर ही बहुजन-पिछड़ी जातियों के दर्जनों समाचार पत्र और पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं। सदियों से जिन लोगों को अपनी बात कहने का हक नहीं था, महाराजा के शासन-प्रशासन ने उन्हें बोलने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी थी।


1920 को कोल्हापुर रियासत के माण गांव (कागल) में शाहूजी महाराज ने अस्पृश्यों का विशाल सम्मेलन कराया, जिसमें छत्रपति शाहूजी ने कहा – “मेरा विश्वास है कि डॉ. अंबेडकर के रूप में आपको अपना मुक्तिदाता मिल गया है। वह आपकी बेड़ियाँ (दासता की) अवश्य ही तोड़ डालेंगे। यही नहीं, मेरा अन्त:करण कहता है कि एक समय आएगा जब डॉ. अंबेडकर अखिल भारतीय प्रसिद्धि और प्रभाव वाले एक अग्रणी स्तर के नेता के रूप में चमकेंगे।”


निधन :


छत्रपति साहूजी महाराज का निधन 10 मई,1922 मुम्बई में हुआ। महाराज ने पुनर्विवाह को क़ानूनी मान्यता दी थी। उनका समाज के किसी भी वर्ग से किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं था। साहू महाराज के मन में बहुजनों के प्रति गहरा लगाव था। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जो क्रन्तिकारी उपाय किये थे, वह इतिहास में याद रखे जायेंगे।


साहब कांशीराम कहते थे की, छत्रपति शाहू जी महाराज ने सबसे ज़्यादा सहयोग किया था बाबासाहब अम्बेडकर को.. वीडियो में सुने!! 




शाहूजी महाराज के जीवन व कार्यो को वीडियो के रूप में देखे.. 


शाहूजी महाराज के जीवन व्को कार्यो को संक्षेप में वर्णन करती किताबे: 

June 28, 2018

मुझे भी आफिस के लिए एक आदमी चाहिए.. - मान्यवर साहब कांशीराम

साहब कांशीराम जनजागरण अभियान के तहत भारत के कोने-कोने में डॉ आंबेडकर मूवमेंट को पहुंचा रहे थे.. इस समय BAMCEF का दौर था तथा आम आदमी साहब द्वारा किए गए कार्यों को समझ चुके थे.. इसी दौरान दलित पैंथर के कुछ लोग साहब कांशीराम जी से मिले और दलित पैंथर की योजनाओं के बारे में साहब को बताया और अंत मे कहा कि, "साहब हमें एक आदमी की जरूरत है जो दलित पैंथर के कार्यालय की देख-रेख कर सके और कार्यालय का इंचार्ज बन सके, हम इसके बदले में उसे दो हजार महीना तनख्वाह भी देंगे.."

उनकी इस बात पर साहब बोले कि, "आप लोगों को कार्यालय का कार्यभार संभालने के लिए एक आदमी की जरूरत है, तो आप किसी भी आदमी को लगा सकते हैं.. इसके लिए मेरे पास आने की क्या जरूरत थी!! आपको मैं बताना चाहता हूं, जिस प्रकार आप लोगो को कार्यभार संभालने के लिए एक आदमी की जरूरत है उसी प्रकार मुझे भी कार्यालय के लिए आदमी की जरूरत है, लेकिन बदले में कार्यालय संभालने वाले को दो हजार रूपया नही दूंगा, उल्टा वह आदमी मुझे दो हजार रूपया देगा.. अगर इस तरह का आदमी आप लोगों को नजर आ जाए तो आप उसे मेरे पास भेजना ताकि मैं भी अपना काम जल्दी पूरा कर सकूं.."


इस बात पर दलित पैंथर के लोग अचंभित हुए कि ऐसा आदमी कहां मिलेगा जो कार्यालय को भी देख सके और बदले मे दो हजार रूपये भी दे सके!! ये बात उनके सिर के ऊपर से जा रही थी.. लेकिन साहब के लिए आम बात थी कि लोगों से मूवमेंट के लिए काम भी लिया जाए तथा सहयोग भी लिया जाए.. देखने में आया साहब कांशीराम जी को कार्यालय में काम करने के लिए एक नहीं हजारों कार्यकर्ता मिले जो एक भी पैसा नही लेते तथा बदले में मूवमेंट को चलाने के लिए स्वयं पैसा देते थे.. 

साभार - मां मुझे सेहरा नहीं कफन चाहिए (किताब पढने व् डाऊनलोड करने के लिए उपर किताब के नाम पर क्लिक करे )

June 25, 2018

भारत देश को आज़ाद करवाने में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर का योगदान..

भारत को आझाद करवाने में महत्व का योगदान बाबासाहब डॉ. आम्बेडकर का है ।

बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर पहली बार 9 दिसंबर 1946 को बंगाल से चुनकर आए. इसके तुरंत बाद भारत का विभाजन हो गया, जिसके बाद बाबासाहेब जिस संविधान परिषद की सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उसे पाकिस्तान को दे दिया गया. इस तरह बाबासाहेब का निर्वाचन रद्द हो गया. यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि विभाजन के वक्त जिस तरह डॉ. आंबेडकर के प्रतिनिधित्व वाले हिस्से को पाकिस्तान को दे दिया गया, उसे भी तमाम जानकारों ने कांग्रेस की साजिश करार दिया है. यह इसलिए किया गया ताकि डॉ. आंबेडकर संविधान सभा में नहीं रह पाएं. हालांकि इन साजिशों को दरकिनार करते हुए बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर दुबारा 14 जुलाई 1947 को चुन कर आएं. यहां बाबासाहेब के दुबारा संविधान सभा में चुने जाने को लेकर लोगों में यह भ्रम है कि कांग्रेस ने उन्हें सपोर्ट किया. ऐसा कह कर सालों से लोगों को गुमराह किया जा रहा है जबकि हकीकत कुछ और है.

इतिहास और सच्चाई यह है कि अगर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर संविधान सभा (Constituent Assembly) में नहीं होते तो भारत का संविधान नहीं बन पाता. मान्यवर कांशी राम साहब ने भी इस बात को कहा है. दूसरी बात, डॉ. आंबेडकर जब 14 जुलाई 1947 को दुबारा चुन कर के आएं, उसके बाद ही यह घोषणा हुई कि 15 अगस्त को अंग्रेज भारत को सत्ता का हस्तानांतरण करेंगे. असल में डॉ. आंबेडकर जब पहली बार संविधान सभा में चुन कर आएं और विभाजन के बाद अपने निर्वाचन क्षेत्र के पाकिस्तान में चले जाने के कारण संविधान सभा का हिस्सा नहीं रहे, उस वक्त यूनाइटेड किंगडम (यूके) की पार्लियामेंट में इंडियन कांस्टीटूएंट असेंबली का बहुत कड़ा विरोध हुआ और विरोध को दबाने के लिए नेहरू को यूके के नेताओं को समझाने के लिए ब्रिटेन जाना पड़ा था. इस विरोध की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि कद्दावर नेता चर्चिल ने यहां तक कह दिया कि, "भारतीय लोग संविधान बनाने के लायक नहीं हैं. इन लोगों को आजादी देना ठीक नहीं होगा." दूसरी बात, ब्रिटिशर्स अल्पसंख्यकों के हितों को लेकर काफी गंभीर थे. तात्कालिक स्थिति में यूके पार्लियामेंट का कहना था कि अगर भारत में कंस्टीट्यूशनल सेटेलमेंट होता है तो इसमें अल्पसंख्यकों के हितों की गारंटी नहीं होगी. क्योंकि बाबासाहेब का कहना था कि शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब हिन्दू नहीं हैं. खासतौर पर अछूत हिन्दू नहीं है. बाबासाहेब ने इसको साबित करते हुए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए सेपरेट सेफगार्ड ( अलग विशेषाधिकार) की बात कही थी. बाबासाहेब की इस बात पर यूके के पार्लियामेंट में बहुत लंबी बहस हुई थी. इस बहस से यह स्थिति पैदा हो गई थी कि अगर भारत में अधिकार के आधार पर, बराबरी के अधिकार पर अल्पसंख्यकों (इसमें एससी, एसटी भी थे) के अधिकारों का सेटेलमेंट नहीं होगा तो भारत का संविधान नहीं बन पाएगा और इसे वैद्यता नहीं मिलेगी और अगर संविधान नहीं बनेगा तो फिर भारत को आजादी (तथाकथित) नहीं मिलेगी. ऐसी स्थिति में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को बाम्बे से चुनकर लाना कांग्रेस और पूरे देश की मजबूरी हो गई थी. यहां एक तथ्य यह भी कहा जाता है कि बैरिस्टर जयकर ने डॉ. आंबेडकर के लिए अपना त्यागपत्र दिया था. जबकि ऐसा नहीं है, बल्कि कांग्रेस के कुछ अगड़े नेताओं के साथ मतभेद होने के कारण जयकर ने इन सारी बातों से पहले ही अपना इस्तीफा दे दिया था.

यानि बाबासाहेब को दुबारा चुनकर लाना पूरे देश की मजबूरी हो गई थी. क्योंकि अगर बाबासाहेब को चुनकर नहीं लाया जाता तो देश का संविधान नहीं बन पाता और ऐसी स्थिति में भारत को आजादी मिलने में और वक्त लग सकता था. हालांकि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास संविधान लिखने वाला कोई दूसरा नहीं था. बल्कि इसमें तथ्य यह है कि अगर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर कांस्टीट्यूशनल असेंबली में नहीं होते तो भारत के अछूतों के अधिकारों का संवैधानिक सेटेलमेंट होने की बात नहीं मानी जाती और इससे भारत के संविधान को मान्यता नहीं मिलती. भारत को बड़े लोकतंत्र के तौर पर भी दर्जा नहीं मिल पाता. क्योंकि तब यह माना जाता कि संविधान में भारत के बड़े वर्ग (एससी/एसटी) के अधिकारों और स्वतंत्रता की बात संविधान में नहीं है.



इस देश को किसी भूखे-नंगे ने आझादी नहीं दिलवाई है, यह देश बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के ज्ञान, महेनत और प्रयासों से आझाद हुआ है।

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June 23, 2018

मेरा जीवन तीन गुरुओं और तीन उपास्यों से बना है- बाबासाहब डॉ आम्बेडकर

25 अक्टूबर 1954 के दिन बाबासाहब डॉ अम्बेडकर का हीरक महोत्सव मुंबई के पुरंदरे स्टेडियम में मनाया गया था। वहीं पर बाबासाहब ने अपने भाषण में कहा था कि..

मेरे तीन उपास्य (देवता) है।
मेरे प्रथम देवता ज्ञान है,
मेरा दूसरा देवता स्वाभिमान है, और
मेरा तीसरा देवता शील है। 

वहीं आगे बाबासाहब कहते हैं कि, हर मनुष्य के गुरु होते हैं, उसी तरह मेरे भी गुरु (प्रेरणास्रोत) है।

मेरे प्रथम और श्रेष्ठ गुरु बुद्ध है,
मेरे दुसरे गुरु कबीर है, और
मेरे तीसरे गुरु जोतिबा फुले है।

यही मेरे तीन गुरु हैं, इनकी शिक्षाओं से ही मेरा जीवन बना है।


जोतिबा फुले के बारे में बोलते हुए बाबासाहब कहते हैं कि,


“ब्राह्मणेतर समाज के सच्चे गुरु वही है। उन्होंने ही हमें मानवता का पाठ पढ़ाया और कहा आगे राजनीती में हम जोतिबा के मार्ग का ही अनुसरण करेंगे। कोई कहीं भी जाए लेकिन हम जोतिबा के रास्ते पर ही चलेंगे। 
साथ में कार्ल मार्क्स या किसी दुसरे को साथ मे ले लेंगे मगर जोतिबा का रास्ता नहीं छोड़ेंगे।

यहाँ सबसे अहम् सवाल यह है कि डॉ आंबेडकर ने जोतिराव फुले को अपने गुरु का दर्जा क्यो दिया था? जरा पढ़ लीजिये यह बात हमारे मित्र सिद्धार्थ रामू की कलम से…

फुले की किताब गुलामगिरी 1873 में प्रकाशित हुई। आधुनिक भारत की यह पहली किताब थी, जिसने यह बताया कि भारत के बहुलांश लोगों के दुख और अपमानजक जिंदगी की मूल वजह वर्ण-जाति की व्यवस्था और इसको स्थापित करने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा है। मार्क्स का कहना था कि, अब तक इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है, तो भारत में भी वर्ग संघर्ष हुआ होगा।

फुले की किताब गुलामगिरी यह बताती है कि, कैसे भारत में ब्राह्मणवादियों और शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच हजारों वर्षों तक संघर्ष चलता रहा। कितनी बार शूद्रों-अतिशूद्रों ने आर्य-ब्राह्मणवादियों को पराजित किया। लेकिन इस देश और बहुतांश आबादी का दुर्भाग्य था कि अंत में ब्राह्मणवादियों की विजय हुई। और शूद्रों-अतिशूद्रों एवं महिलाओं को विभिन्न जातियों में बांटकर उनके बीच फूट डालकर उन्हें हमेशा के लिए गुलाम बना लिया गया।

फुले ने गुलामगिरी में विष्णु के विभिन्न अवतारों का वर्णन किया है। गुलामगिरी के सोलह परिच्छेदों में यह बताया है कि विष्णु के मत्स्य, कच्छ, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम और अन्य अवतार और कुछ नहीं हैं, बल्कि छली, कपटी, हिंसक और धूर्त आर्य-ब्राह्मणों के अगुवा हैं, जिन्होंने यहां की अनार्य समाज और उसकी संस्कृति के संरक्षक राजाओं पर हमला बोला। उन्होंने धोखे से बलिराज और हिराकश्यपु जैसे राजाओं की हत्या की।

गुलामगिरी की प्रस्तावना में लिखा है कि कैसे ब्राह्मण पुरोहितों ने शूद्रों-अतिशूद्रों पर सदा के लिए अपना वर्चस्व और नियंत्रण कायम करने के लिए झूठे ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथो के बारे में फुले लिखते हैं कि "इन नकली ग्रंथों में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि उन्हें विशेष अधिकार प्राप्त हैं और वे ईश्वर द्वारा प्राप्त है।" इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच मानसिक गुलामी के बीज बोये गये।

फुले ने अपनी किताब गुलामगिरी में इन झूठी किताबों और इन गढ़े गये भगवानों की असलियत को उजागर किया है। आधुनिक भारत में फुले पहले विचारक थे, जिन्होंने यह बताया कि इस देश की मूल समस्या वर्ण-जाति की व्यवस्था और उसके स्थापित करने वाली एवं बनाये रखने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा है। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति की अलख जगाई।

उनका निरंतर संघर्ष चितपावन ब्राह्मण तिलक से चलता रहा, जो ब्राह्मणवाद के हिमायती थे, शूद्रों-अतिशूद्रों एवं महिलाओं की मुक्ति के हर कदम का विरोध करते थे। इस तरह फुले आधुनिक भारत मे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने समझा और समझाया कि सारी समस्याओं का मूल कारण ब्राह्मणवाद है।

फुले को आंबेडकर द्वारा गुरु मानने का मूल कारण यही था कि उन्होंने सबसे पहले यह बताया कि वर्ण-जाति व्यवस्था और इस पोषक ब्राह्मणवादी विचारधारा के समूल नाश के बिना इस देश और बहुसंख्यक जन की मुक्ति नहीं हो सकती। जोतिराव फुले की गुलामगिरी करीब 100 पृष्ठों की ही किताब है, इसे प्रत्येक भारतीय व्यक्ति को जरूर पढ़ना चाहिए।

-DR. JD Chandrapal

Original post source : http://www.nationalindianews.in/india/dr-br-ambedkar/

गुलामगिरी किताब पढने के लिए निचे की लिंक पर क्लिक करे: गुलामगिरी





तथागत गौतम बुद्ध का वैज्ञानिक धम्म और धम्म की शिक्षा का सार ..

बुद्ध ने ऐसे धम्मं को जन्म दिया, जिसमे ईश्वर की कोई जगह नहीं है। जिसमे परमात्मा को कोई स्थान नहीं है। बुध्द ने संदेह से शुरू की यात्रा और शून्य पर पूर्ण की। संदेह और शून्य के बीच में बुद्ध का सारा बोध है। संदेह को धम्मं का आधार बनाया और शून्य को धम्मं की उपलब्धि। बाकी सब धर्म विश्वास को आधार बनाते है और पूर्ण को उपलब्धि। बुद्ध धम्मं को समझने के लिए जिज्ञासा चाहिए।

बुद्ध कहते है, मानने से नहीं चलेगा। गहरी खोज करनी पड़ेगी। 

दूसरे धर्म कहते है की, पहला कदम बस तुम्हारे भरोसे की बात है, उठा लो, इससे ज्यादा आपको कुछ करने की जरुरत नहीं है। लेकिन बुद्ध का धम्मं तो तुमसे पहले कदम पर पहुचने के लिए भी बड़ी लंबी यात्रा की मांग करता है। वह कहता है, संदेह की प्रगाढ़ अग्नि में जलना होगा, क्योकि तुम जो भरोसा करोगे वह तुम्हारे बुद्धी पर का भरोसा होगा। अगर बुद्धी में ही रोग है तो उस रोग से जन्मा हुवा विश्वास भी बिमार होगा।

मंदिर अंधेरे मे ही नहीं पड़े है वे अँधेरे के सुरक्षा स्थल है। आस्था के नाम सब तरह के पाप वहां चलते है। विश्वास के नीचे सब तरह का झूठ चलता है। धर्म पाखण्ड है क्योकि शुरुवात में ही चूक हो जाती है। क्योकि पहले कदम पर ही तुम कमजोर पड जाते हो। तुम्हारा विश्वास तुम्हे पार न ले जा सकेगा. इसीलिए बुद्ध ने कहा,तोडो विश्वास, छोडो विश्वास. सब धारणाए गिरा देनी है। संदेह की अग्नि में उतरना है। दुस्साहसी चाहिए, खोजी चाहिए, अन्वेषक चाहिए, चुनौती स्वीकार करने का साहस निर्माण होना चाहिए.

बुद्ध कहते है, आश्वासन कोई भी नहीं है । क्योकि कोन तुम्हे आश्वासन देगा? यहाँ कोई भी नहीं है जो तुम्हारा हाथ पकडे। अकेले ही जाना है मरते वक्त तक। 


बुध्द ने कहा 'अत्त दीप भव' ! अपने ही दीए बनो। मै मरा तो रोना मत। मै कोन हू? मै आपको ज्यादा से ज्यादा दिशा दे सकता हू। चलना तुम्हे है। मै रहू तो भी चलना तुम्हे है, अगर न रहू तो भी चलना तुम्हे है। झुको मत, सहारा लेना मत, क्योकि सब सहारे अंत:ता लंगड़ा बना देते है। सब सहारे तुम्हे अंधा बना देते है। सहारे धीर धीरे तुम्हे कमजोर कर देते है। बैसाखिया धीर धीरे तुम्हारे पैरों की परिपूर्ति कर देती है। फिरतुम पैरों की फ़िक्र ही छोड़ देते हो।







बुद्ध कहते है, संदेह करो, बुद्ध का धम्मं वैज्ञानिक है।

संदेह विज्ञान प्राथमिक चरण है। इसीलिए भविष्य में जैसे जैसे लोक मानस वैज्ञानिक होता जाएगा, वैसे वैसे समय बुद्ध के अनुकूल होता जाएगा। जैसे जैसे लोग सोचने और विचार करने की गहनता में उतरेंगे और उधार और बासे विश्वास न करेंगे, हर किसी बात को मान लेने को राजी न होंगे, बगावत बढ़ेगी, लोग हिम्मती होंगे, विद्रोही होंगे, वैसे वैसे बुद्ध की बात लोगो के करीब आने लगेगी।

जगत में बुध्द का आदर बढ़ रहा है। जो भी विचारक है, चिन्तक है, वैज्ञानिक है, उनके मन में बुद्ध का आदर रोज बढ़ रहा है। बुद्ध बिना लड़े जित रहे है। क्योकि,


बुद्ध कहते है, हम तुमसे मानने को नहीं कहते, खोजने को कहते है। जब खोज लोंगे तो मानेंगे, बिना खोजे कैसे मान लोंगे!! 
यहविज्ञान का सूत्र है।

सत्य इतना सस्ता नहीं है, की वह बिना खोजे मिल जाए। सत्य कोई संपति नहीं है, जैसे पिता की वसीयत मरने के बाद पुत्र को मिल जाती है। 
बुद्ध कहते है, सत्य को खोजना पड़ेगा भ्रम जाल तथा माया को भुलाकर उसे ढूंढना होगा और तुम्हारे भीतर भी कमजोरिया बहुत है। थक जाते तो कही भी भरोसा करके रुक सकते हो, किसी भी मंदिर के सामने, थके हारे सर झुका सकते हो, बस इसीलिए नहीं की तुम्हे कोई जगह मिल गयी, जहा सर झुकाने का मुकाम आ गया था, बस सिर्फ इसीलिए की अब तुम थक गए, अब और नहीं खोजा जाता बुद्ध तुम्हे कोई जगह नहीं देते, तुम्हारे कमजोरी के लिए वहा कोई जगह नहीं होती। 


बुद्ध कहते है, ज्ञान तो मिलता है, आत्म परिष्कार से, शास्त्र से नहीं, सत्य कोई धारना नहीं है। सत्य कोई सिध्दांत नहीं है। सत्य तो जीवन का निखार है। सत्य तो ऐसा है, जैसे सोने को कोई आग में डालता है तो निखरता है, जलता है, पिघलता है, तड़पता है। जो व्यर्थ है जल जाता है, सार्थक बचता है। सत्य तो तुममे है, कूड़े करकट में दबा है और जबतक तुम आग से न गुजरो,तुम उस सत्य को कैसे खोज पाओगे.?

बुद्ध कहते है, जल्दी मत करना भरोसे करने की, भरोसा तभी करना जब संदेह करने की जगह ही न रह जाए, लेकिन दूसरे धर्म संदेह के विपरीत केवल भरोसा करनेकी सलाह देते है। संदेह के विपरीत श्रध्दा करनेकी सलाह देते है। लेकिन बुद्ध संदेह करने की पूरी छूट देते है। 


इतना संदेह करो की,आखिर में तुम्हारा संदेह नष्ट हो जाए और केवल परिणाम बच जाए, जिसे तुम ढूढ रहे हो। बुद्ध कहते है, दबे हुए सड़े को बाहर निकालो, उससे छुटकारा पाने का एक ही उपाय है, उसे रोशनी में लाओ।

बुद्ध ने संदेह को जन्म दिया है। बुद्ध का युग कभी भी बुद्धिवादी नहीं था। केवल बुद्ध ही बुध्दिवादी थे। उन्होंने लंबे और कठिन मार्ग से यात्रा की थी। शार्टकट मार्ग की कोइ गुंजाइश नहीं थी। तुम जिसे श्रध्दा मानते हो, वह शार्टकट का रास्ता है। तुम बिना गए, बिना कही पहुचे, बिना कुछ किये श्रध्दा कर लेते हो। ऐसी श्रध्दा नपुंसकता के सिवा कुछ नहीं है। तुम्हारे शास्त्र लिखते है, नास्तिको की बाते मत सुनना, नास्तिक कुछ कहे तो कान में उंगलिया डाल देना। यह तो भयभितता है। डरपोकता के सिवा कुछ नहीं है। ऐसे धर्म के शास्त्र कमजोरी सिखाते है, जो आस्था इतनी डरपोक है की नास्तिक की बात सुनाने से कांपती हो। इससे तो नास्तिक बेहतर है, कम से कम उनके शास्त्र में कही नहीं लिखा की आस्तिक की बात सुनने से डरना है। नास्तिक कभी डरता नहीं है,लेकिन आस्तिक हमेशा डरते है।

बुद्ध ने संदेह को जन्म दिया है, संदेह करते करते तूम संदेह से मुक्ति पा लेते हो। जहॉ संदेह खत्म होता है वहा सूरज उगता है। परमात्मा असहाय्य अवस्था है, इसकी पुकार होती है। जिसको तुमने झुकना समझा है, वह कही तुम्हारे कांपते और भयभीत पैरों की कमजोरी तो नहीं है। जिसको तुमने समर्पण समझा है, वह तुम्हारी कायरता तो नहीं?

बुद्ध ने तुमसे परमात्मा नहीं छिना, उन्होंने तुमसे तुम्हारी बेचारगी छिनी है। बुद्ध ने तुमसे मंदिर नहीं छीने, तुम्हारे कमजोरी के शरणस्थल छीने है। बुद्ध ने कहा, तुम्हे खुद ही चलना है, बुद्ध ने तुम्हारे पैरों को सदियों सदियों के बाद फिर से खून दिया है। तुम्हे अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत दी है। 


बुद्ध उसी को सदधर्म कहते है, जो तुम्हे तुम्हारे भीतर छिपे हुए सत्य से परिचित कराए। झूठी आस्थाओं में नहीं, धारणाओं में नहीं, शास्त्रों में नहीं, व्यर्थ के शब्दजालों में नहीं।

बुद्ध ने आत्मा के स्वरूप को शून्य कहा है। उन्होंने आत्मा शब्द में खतरा देखा, क्योकि उन्हें लगा तुम किसी चीज के तलाश में हो, जो भीतर रखी है। जब तुम कहते हो तुम्हारे भीतर आत्मा है, जैसे की तुम्हारे घर में कुर्सी रखी हो, तुम्हारे भीतर आत्मा रखी है, आत्मा कोई वस्तु है की गए भीतर और पा गए। बुद्ध ने आत्मा शब्द का शब्दप्रयोग नहीं किया क्योकि आत्मा से जडता का पता लगता है। आत्मा शब्द का मतलब यह हुआ की कुछ तुम्हारे भीतर ठहरा हुआ है, रुका हुआ है, कुछ तुम्हारे भीतर मौजूद है। तो जो मौजूद ही ही है, वह वस्तुतः जड है।

बुद्ध ने कहा था, तुम ही तुम्हारे शास्ता हो, तूम ही तुम्हारे गुरु हो, तुम ही तुम्हारे शास्त्र हो और तुम्हारे चैतन्य के सिवाय तुम मे और कोई नहीं है।

बुद्धिज़्म को सही मायने में जानने व् समझने के लिए बाबासाहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर की निम्न लिखित किताबे डाऊनलोड करे व् पढ़े.. किताब को डाऊनलोड करने के लिए उसके नाम पर क्लिक करे

June 12, 2018

हमे हुकुमरान क्यों बनना है?? - मान्यवर साहब कांशीराम

मान्यवर कांशीराम साहब का दिसम्बर 1985 में नागपुर में दिया गया ऐतिहासिक भाषण :

में जब भी हमारे बहुजन समाज के लोगो से मिलता हु तब उन्हें हुकुमरान बनने के लिए कहता हु.. 

हजारो सालो से अत्याचार और जुल्म सहने वाले हमारे बहुजन समाज के लोग हुकूमरान बनना नहीं चाहते बल्कि मनुवादी लोगो के चमचे/दलाल बनना ज्यादा पसंद करते है और मुझसे सवाल करते है की, 

"हमे हुकुमरान क्यों बनना है..?
तब मै उनसे कहेता हु की, 
हुकुमरान समाज की बहेन-बेटियो की इज्जत नहीं लूटी जाती है..
हुकुमरान समाज पर कभी कोई अत्याचार नहीं कर सकता है..
हुकुमरान समाज के साथ के साथ कोई किसी भी प्रकार का अन्याय नहीं कर सकता.."

मैंने हुकुमरान समाजो को देखा है.. मुग़ल, पठान, और इस देश के 15% कहलाते उच्च जाती के लोग सदियो से हुकुमरान रहे है..  मुघलो, पठानों और 15% कहलाती उच्च जाती के लोगो की बहेन-बेटियो की इज्जत नहीं लूटी जाती.. और ना ही कोई उनसे अन्याय कर सकता है, क्योंकि वो इस देश के हुकुमरान बने रहे है.. 

डो. आंबेडकर साहब ने भी चिल्ला चिल्ला कर कहा, और मै भी कह रहा हु, 
"हुकुमरान बनो.. हुकुमरान बनो.."
"हुकुमरान बनोगे तब तुम लेने वाले नहीं देने वाले बनोगे.. तभी तुममे आत्म-सन्मान और स्वाभिमान की भावना पनपेगी.. तभी तुम्हारी समस्याओ का समाधान होगा.. "

अगर मनुवादी समाज की चमचागिरी/दलाली करते रहोगे तो आर्थिक लाभ तो होगा पर तुम्हारी गुलामी और लाचारी कभी ख़त्म नहीं होगी.. 




डो. बाबासाहब के कारवां को उस गति से आगे बढ़ाओ की हमारे समाज में चमचो की पैदावारी ही ख़त्म हो जाए और हमारे समाज लोगो को चमचा बनने की कभी नौबत ही न आये.. बल्कि 15% कहलाते उच्च जाती के लोग आपके चमचे बनने को लाइन लगा दे.. 

ये मत सोचो की तुम्हारे पास धन नहीं है, इसलिए तुम हुकुमरान नहीं बन सकते.. तुम जरूर हुकुमरान बन सकते हो.. हुकुमरान बन्ने के लिए धन की नहीं वोट की ताकत चाहिए, जो तुम्हारे पास भारी मात्रा में पड़ी है.. पर तुम्हारी इस ताकत को समाज के चमचे बहा ले जाते है, और फिर वही हश्र, गुलामी /लाचारी का सिलसला चालु रहता है..

इस लीऐ सोचो.. सोचो.. अपने दीमाग पर जोर दो..  चमचो का खात्मा उनको handle करने वाले हाथो के खात्मे से ही होगा.. चमचो को handle करने वाले हाथो को अपनी वोट की ताकत से तोड़ दो.. चमचो का खात्मा अपने आप हो जाएगा.. 

अगर अपनी आनेवाली पिढ़ी को गुलामी/लाचारी मुकत स्वाभिमान भरा जीवन देना चाहते हो, तो
हुकुमरान बनो..
हुकुमरान बनो..
हुकुमरान बनो..

June 1, 2018

"गुलामगीरी" पुस्तक पढ़े बिना सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई का योद्धा अधूरा है !

राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले ने आजके दिन 1873 में ये पुस्तिका प्रसिद्ध की थी। शिक्षा और सामाजिक क्रांति के प्रणेता के रूप में ज्योतिबा को हम जानते है। वैसे ही वो उत्कृष्ठ लेखक और साहित्यकार भी थे। उसका उदाहरण है ये गुलामगिरी और कई ओर पुस्तके।

ये ग्रंथ एक महत्वपूर्ण दस्तावेज भी है की ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए कैसे अंग्रेजो के शासन में भी शुद्रो-अतिशूद्रों का शोषण किया और आज का आर्यभट (ब्राह्मण) इस देश का मूलनिवासी नहीं है किंतु विदेशी है और कैसे यहाँ के मूलनिवासियो को गुलाम बना के रखा है। 

145 साल पहले लिखे गए इस ग्रंथ में शुद्रो के शोषण का जो वर्णन बताया है उसमे आज भी कोई ज्यादा सुधार नहीं दिख रहा । गुलामगीरी ग्रंथ सही रूप में एक विस्फोटक ग्रंथ है। इस ग्रंथ ने उस समय जो विस्फोट किया था उसकी तीव्रता आज भी कम नहीं हुई है। इस ग्रंथ से राष्ट्रपिता फुले की  मौलिक विचार धारा औऱ उनके आंदोलन के लक्ष्य के बारे में जानकारी मिलती है। हमारे ज्यादातर  पढ़े लिखे लोग आज भी ब्राह्मणवाद की चंगुल में फसे हुए है। या तो वे अपना इतिहास नहीं जानते या वो भयभीत है  - ईश्वर से, आत्मा से, पुनर्जन्म से, भाग्य से,स्वर्ग नरक की फिक्र से। मतलब इन सारे  काल्पनिक भय से वे हिंदु धर्म से मुक्त नहीं हो रहे । 

दिनांक - 01/06/2018,
राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले लिखित पुस्तक "गुलामगिरी" प्रकाशन दिवस..
अगर वे इस ग्रंथ गुलामगिरी पढ़ ले तो उनकी समझ मे आ जायेगा कि बाबा साहब ने बौद्ध धम्म को अंगीकार करते समय 22 प्रतिज्ञाए क्यों दी थी ? 

इस ग्रंथ से पता लगेगा कि ब्रह्मा,विष्णु,नरसिंह,मत्स्य, वराह,वामन ये कोई ईश्वर नही थे बल्कि आक्रमणकारी आर्यो के सरदार थे जिन्हों ने हमारे मूलनिवासी राजाओ जैसे की हिरण्य कश्यप, बली राजा,बाणासुर ,महिषासुर जैसे कई प्रतापी राजाओ की षड्यंत्रपूर्वक हत्या कर के भारत के मूलनिवासियो को गुलाम बनाया था । 

बुद्ध को पढ़ ने से पता चलेगा कि ईश्वर,आत्मा,ब्रह्म, अवतार,स्वर्ग-नरक आदि सब भ्रम है और ब्राह्मणों के वर्चस्व बनाये रखने की केवल एक अमानवीय व्यवस्था है । हमारे लोगो को ब्राह्मण धर्म से मुक्ति चाहिए तो गुलामगिरी पढ़ना आवश्यक है वरना जो गुलामगिरी आज भी कर रहे है उन से मुक्ति नही मिलेगी । हमारी ये अज्ञानता होगी कि आज भी हम बाबा साहब के बताए विचारो पर संदेह कर रहे है ।  

- अनित्य बौद्ध

"गुलामगिरी" पुस्तक पढने के लिए व् डाऊनलोड करने के लिए निचे दिए गई लिंक पर क्लिक करे : गुलामगिरी

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