September 20, 2017

अपने अनुयायियो को बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर का अंतिम संदेश..

थोड़ी देर शांत रहने के बाद अपने आंसू पोंछते हुए अपना हाथ ऊपर उठाकर उन्होंने कहा, "नानकचंद, मेरे लोगो को बता देना की जो कुछ मैंने किया है, वह अपने विरोधियो से जीवनभर संघर्ष करते हुए और कुचलकर रख देने वाली कठिनाइयों और कभी न ख़त्म होने वाली बाधाओं से गुजरकर ही कर पाया हूँ।"

‘‘मैं बहुत मुश्किल से इस कारवां को इस स्थिति तक लाया हूं, जहां यह आज दिखाई दे रहा है। इस कारवां को आगे बढ़ने ही देना है, चाहे कितनी ही बाधाएं, रुकावटें या परेशानियां इसके रास्ते में क्यों न आएं। यदि मेरे लोग, मेरे सेनापति इस कारवां को आगे नहीं ले जा सकें, तो उन्हें इसे यहीं, इसी दशा में छोड़ देना चाहिए, पर किसी भी हालत में कारवां को पीछे मोड़ने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए।’’


उन्होंने कहा, ‘‘यही मेरा संदेश है और संभवतः अपने लोगों के लिए अंतिम संदेश है, जिसे मैं पूरी गंभीरता से दे रहा हूं और मैं निश्चिंत हूं कि इसकी अनसुनी नहीं होगी। जाओ और उन्हें बता दो, जाओ और उन्हें बता दो, जाओ और उन्हें बता दो।’’ उन्होंने तीन बार दुहराया।


ऐसा कहते हुए वह सुबकने लगे और उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। वह गहन निराशा में डूबे हुए थे और स्पष्टतया हिल गए थे। उनके चेहरे पर इतनी असहनीय वेदना उभर आई कि मैं उसे शब्दों में प्रकट नहीं कर सकता। मुझे हृदय दहला देने वाला उनका संदेश उनके लोगों तक पहुंचाने का मन नहीं कर रहा था, क्योंकि यह संदेश दीर्घ श्वासों, सुबकियों व आंसुओं के बीच दब गया था। मुझे इसका तनिक भी अनुमान न था कि यही संदेश वास्तव में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर का अंतिम संदेश होगा। ऐसा लगता है कि अपने तीव्र गति से गिरते स्वास्थ्य और आंखों की रोशनी से उन्हें पूर्वानुमान हो गया था कि उनका अंत तेजी से निकट आ रहा है। उन्हें तसल्ली देने के लिए मुझमें जरा भी साहस न था, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता था कि इससे उनके दुखी मन पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा। मैं इतना अभिभूत हो गया था कि मुश्किल से खुद को संभाल पा रहा था। मैं सादर उनके सामने झुक गया, हाथ जोड़े और उनके पैर छुए।


मैंने कहा, ‘‘सर, आपका जीवन कहीं ज्यादा मूल्यवान है। मेरी तो इच्छा है कि यदि संभव हो, तो मैं अपनी जिंदगी के 8-10 वर्ष आपको अर्पित कर दूं, ताकि आप अपने जीवन का मिशन पूरा कर सकें। विशाल संख्या में अशिक्षित ग्रामीणों को मुक्ति दिला सकें, जो अभी भी आर्थिक दुर्दशा झेल रहे हैं और उच्च वर्ग के लोगों द्वारा प्रताड़ित और उनके दुर्व्यवहार के शिकार बन रहे हैं। इससे मुझे अत्यधिक संतोष मिलेगा कि मैंने एक ऐसे महान की सेवा की, जिसने अपना पूरा जीवन, दबे-कुचलों, दलितों व हताश लोगों की मुक्ति के लिए समर्पित कर दिया। उन्हें भारतीय समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए कठोर संघर्ष किया।’’

मुझे पेरशानहाल व रोते देखकर उन्होंने अपना कमजोर पर प्रेम-भरा हाथ, पितातुल्य स्नेह सहित मेरी पीठ पर फेरा और सारगर्भित व स्नेहल निगाहों से मुझे देखा। इस तरह अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अपने दलित भाइयों तक पहुंचाने के लिए संदेश देने की उनमें एक दूरदृष्टि थी।

इसके आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा, पर उनका संदेश मेरे कानों में गूंज रहा था। जो कुछ उन्होंने कहा, उससे मैं बुरी तरह हिल गया था। मुझे अपराध-बोध हो रहा था और मैं स्वयं को कोस रहा था कि बेकार ही मैंने ऐसा विषय छेड़ दिया, जिससे उनके दिल को अत्यधिक कष्ट पहुंचा। मैं उनके सिर-पैर व टांगों की मालिश करने लगा और उनके हताश चेहरे को निहारता रहा। धीरे-धीरे वह सो गए। बत्ती बुझाकर, भारी हृदय से मैं बाहर आ गया। रसोइया सुदामा जो चाय ला रहा था, रोता हुआ वापस चला गया, जब मैंने उसे बताया कि बाबा साहेब कितने अप्रसन्न थे और रो रहे थे। उन तनावपूर्ण क्षणों को भूल पाना कठिन है और उसका वर्णन करते हुए मैं दुख से भर उठता हूं और रो पड़ता हूं।

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सन्दर्भ पुस्तक: डॉ. आम्बेडकर के अंतिम कुछ वर्ष (पृष्ठ : 101-102)
लेखक: नानकचन्द रत्तू (बाबासाहब डॉ आंबेडकर के निजी सचिव)

September 12, 2017

राजनैतिक क्रांति के सन्दर्भ में बाबासाहब के विचार..

लाहौर जातपांत तोडक मंडल १९३६ के वार्षिक सम्मलेन की अध्यक्षता करने के लिए बाबासाहब डॉ आम्बेडकर को आमंत्रित किया गया था, उसके लिए बाबासाहब डॉ भीमराव आम्बेडकर ने भाषण तैयार किया था.. सम्मलेन रद किये जाने की वजह से यह भाषण पढ़ा नहीं जा सका, लेकिन यह एक बहोत ही महत्वपूर्ण और वैचारिक दस्तावेज है, जो जातिभेद का नाश करने के लिए और स्वतंत्रता समानता बंधुता से परिपूर्ण समाज की रचना में बहोत ही सहायक हो शकता है.. 

बाबासाहब लिखते है की, “इतिहास सामान्यतः इस प्रस्ताव को बल देता है की, राजनितिक क्रांतिया हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांतियो के बाद हुई है..” इस बात के समर्थन में बाबासाहब ने कुछ द्रष्टान्त दिए है, जो की विश्व में बहोत थी मशहूर है.. 




१) लूथर द्वारा आरम्भ किया गया धार्मिक सुधर यूरोप के लोगो की राजनितिक मुक्ति का अग्रदूत था.. 
२) इंग्लेंड में प्युरिटनवाद के कारण राजनितिक स्वतंत्रता की स्थापना हुए.. प्युरिटनवाद ने नए विश्व की स्थापना की.. प्युरिटनवाद ने ही अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम को जीता.. प्युरिटनवाद एक धार्मिक आन्दोलन था..
३) अरबो के राजनितिक सत्ता बनने से पहले वे पैगम्बर मुहम्मद साहब द्वारा आरम्भ सम्पूर्ण धार्मिक क्रांति से गुजरे थे.. 

यहाँ तक की भारतीय इतिहास भी इसी निष्कर्ष का समर्थन करता है..
४) चन्द्रगुप्त द्वारा संचालित राजनितिक क्रांति से पहले गौतम बुद्ध की धार्मिक और सामाजिक क्रांति हुई थी.. 
५) शिवाजी के नेतृत्व में राजनितिक क्रांति भी महारास्ट्र के संतो द्वारा किए गए धार्मिक और सामाजिक सुधारो के बाद ही हुई थी.. 
६) सीखो की राजनितिक क्रांति से पहले गुरु नानक द्वारा की धार्मिक और सामाजिक क्रांति हुई थी.. 

इन उदाहारण से यह बात प्रकट होती है की, “जनता के राजनीतिक विस्तार के लिए मन और चेतना की मुक्ति आवश्यक व् प्रारंभिक है..”

यह बात बाबासाहब ने १९३६ में लिखी थी, और यह ग्रन्थ आज “ANNIHILATION OF CASTE” यानि “जातिभेद का बिजनाश” के नाम से प्रसिद्ध है.. अपने पुरे जीवनकाल में बाबासाहब ने इस जातिभेद का नाश कर एक समतामूलक समाज की रचना के लिए कार्य किया.. २ वर्ष ११ महीने और १८ दिवस के अथाग परिश्रम के बाद बाबासाहब ने विश्व का सबसे बड़ा लोकशाही बंधारण लिखा, जिसमे इस जातिविहीन राष्ट्र की संकल्पना समाविष्ट की उन्होंने.. 

१९५६ में बाबासाहब के परिनिर्वाण के बाद उनका ये कारवां कुछ रुक सा गया था, जिसे बहुजन नायक मान्यवर साहब कांशीराम ने आगे बढाया.. मैने ऐसा कई लोगो से सुना है की, बहुजन नायक मान्यवर साहब कांशीराम ने अपने पुरे जीवन काल में “जातिभेद का बिजनाश” पुस्तक का अध्ययन कई बार किया था, और जब पहली बार उनके एक साथी ने उन्हें यह किताब दी थी तब, एक ही रात में उन्होंने इस किताब को सात से आठ बार पढ़ा था.. 

इसी ग्रन्थ को पढ़कर बहुजन नायक मान्यवर साहब कांशीराम ने, अपने साथियों के साथ मिलकर १९७८ में बामसेफ (BAMCHEF - All India Backward and Minority Communities Employee’s Federation) की स्थापना की, जो की एक सम्पूर्ण बिनराजकीय संगठन था, जिसके तहत उन्होंने गैरराजनीतिक और सामाजिक जड़े मजबूत करने का कार्य किया.. उसके बाद उन्होंने DS4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) और १९८४ में बसपा (बहुजन समाज पार्टी) की स्थापना की, जो की एक राजकीय संगठन था, और आज भारत देश की तीसरे नम्बर की सबसे बड़ी राजकीय पार्टी है.. 

बामसेफ के माध्यम से बुद्ध, फुले, बिरसा, शाहू, आम्बेडकर, कांशीराम की मानवतावादी बहुजन विचारधारा के माध्यम से सामाजिक जड़ें मजबूत करने के बाद ही, साहब कांशीराम ने राजनीती में कदम रखा, और बसपा से माध्यम से बहुजनो को सत्ता तक पहुँचाया, जिसके लिए बाबासाहब कहा करते थे की, “जाओ और जाकर, अपने घर की दीवारों पर लिख दो की, मुझे इस देश की शासक जमात बनना है..”, “Political Power is the Master Key..”

साहब कांशीराम कहते थे की, “जिस समाज की गैरराजनीतिक जड़े मजबूत नहीं होती, वो समाज राजनीती में कभी सफल नहीं हो शकता..” एक तरफ से देखा जाये तो यह बाबासाहब के कथन, “राजनितिक क्रांतिया हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांतियो के बाद हुई है..” का पूर्ण समर्थन करता है..

September 7, 2017

भारत की पहली महिला शिक्षिका - माता सावित्रीबाई फुले

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 - 10 मार्च 1897), भारत में जाति और अन्य सामाजिक बुराइयों के अधिनायकवाद के खिलाफ लड़ने वाले सर्वोच्च नामों में से एक.. वह नायगांव में पैदा हुई थी (ठाणे खंडाला, जिला सतारा) उनके पिता का नाम खांदोजी नेवस था और मां का नाम लक्ष्मी था।

इतिहासकार, जो डर, ईमानदार, खुले दिमाग, खुले दिल से, सच्चाई से मुक्त होना चाहिए और किसी भी कीमत पर सत्य दिखाने का साहस भी होना चाहिए। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतिहासकारों ने विकृत चित्र दिखाया है और लोगों को सच्चाई नहीं दिखाया है। इसके परिणामस्वरूप, लगभग सभी लोग इतिहास को भ्रम और इतिहासकारों को भ्रमित करते हैं, जिसने लोगों को अंधे, बहरे और गूंगा बना दिया है और लोगों को तर्कसंगत रूप से सोचने से अक्षम कर दिया है। मुझे हमेशा आश्चर्य है कि 'शिक्षक दिवस' क्यों, भारत में सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन पर नहीं मनाया जाता है, जिस महिला ने दलितों के लिए पहले स्कूल शुरू किया था और भारत में पहली महिला शिक्षक थे?

महात्मा जोतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले उन लोगों में सबसे पहले थे, जिन्होंने जातिवाद और ब्राह्मण-जातिवादी संस्कृति के खिलाफ युद्ध की घोषणा की थी। महाराष्ट्रीयन अग्रणी युगल ने ब्राह्मणवादी मूल्यों और सोच के खिलाफ दलित वर्ग को एकजुट करने के जन आंदोलन का नेतृत्व किया। सावित्रीबाई फुले ने गरीबों और उत्पीड़न वाले लोगों को उत्थान करने के मिशन में एक समान साझेदार के रूप में काम किया..

हालांकि वह पहले अशिक्षित थी, लेकिन उन्हें महात्मा जोतिबा फुले द्वारा अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। बाद में, वह अपने पति द्वारा शुरू किए गए स्कूल में भारत की पहली महिला शिक्षक बन गईं.. सावित्रीबाई फुले का जीवन उस समय स्कूल में एक शिक्षक के रूप में आसान नहीं था, जब ऊपरी जाति के रूढ़िवादी लोग निचा दिखाते थे, कई बार वे पत्थर लगाते थे और उन पर गोबर फेंकते थे।

इस युवा जोड़े ने लगभग सभी वर्गों से गंभीर विरोध का सामना किया। सावित्रीबाई हर दिन गहन उत्पीड़न के अधीन थी, जब वह स्कुल जाती थी.. पत्थरों, कीचड़ और गंदगी उनके उपर फेंकी जाती थी, जब वह वहां से निकलती थी, लेकिन सावित्रीबाई फुले ने सभी को साहसपूर्वक सामना किया। सावित्रीबाई फुले पहली पछात महिला थी, वास्तव में वह पहली महिला थी जिसकी कविताओ को ब्रिटिश शासन में ध्यान पे लिया गया.. सावित्रीबाई फुले आधुनिक कविता की जननी थीं, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से अंग्रेजी और शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया.. उनका पहला काव्य संग्रह – “काव्य फुले”, 1854 में प्रकाशित हुआ..

जाओ, शिक्षा प्राप्त करो
आत्मनिर्भर बनो, मेहनती बनो
काम करो, ज्ञान और धनवान इकट्ठा करो,
ज्ञान के बिना सब खो जाता है
ज्ञान के बिना हम पशु बन जाते हैं, 
अब और खली मत बैठो, जाओ और शिक्षा लो 
अत्याचार और त्याग किए जाने के दुःख का अंत करो, 
आपको सीखने का सुनहरा मौका मिला है 
इसलिए सीखो और जाति की जंजीरों को तोड़ दो, 
ब्राह्मण के ग्रंथों को तेजी से फेंक दो. 


एक समय था जब अस्पृश्य की छाया भी अशुद्ध मानी जाती थी, जब लोग प्यासे अस्पृश्यों को पानी देने के लिए तैयार नहीं थे, सावित्रीबाई फुले और महात्मा जोतिबा फुले ने अस्पृश्यों के इस्तेमाल के लिए अपने घर में कुवे को खोला.. ब्राह्मणों में अछूतों के प्रति उनकी मानसिकता बदलने के लिए यह एक चुनौती थी.. (लेकिन लगभग 200 वर्षों के बाद भी, दलित (अस्पृश्य) अभी भी पानी के अधिकारों का प्रयास करते हैं..)

उन्होंने दलितों को शिक्षा देने के लिए, यह सोचकर पहल की कि सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की बहाली के लिए शिक्षा आवश्यक है.. सावित्रीबाई फुले ने 1852 में महिला सेवा मंडल की स्थापना की, जो अपने मानवाधिकार, जीवन की गरिमा और अन्य सामाजिक मुद्दों के बारे में महिलाओं की चेतना बढ़ाने के लिए काम करती थी.. उन्होंने विधवाओं के सिर के मुंडन के प्रचलित अभ्यास के खिलाफ मुंबई और पुणे में एक सफल नस्ल हड़ताल आयोजित करने के लिए चली गई.. उन्हों ने सत्यशोधक समाज आंदोलन की शरुवत में में महात्मा जोतिबा फुले के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी..

1876 से 1898 के अकाल के दौरान, सावित्रीबाई फुले ने अपने पति के साथ साहसपूर्वक काम किया और कठिन समय पर काबू पाने के कई नए तरीके सुझाए.. उन्होंने कई स्थानों पर मुफ्त भोजन वितरण शुरू कर दिया.. प्लेग प्रभावित लोगों की सेवा करते समय संक्रमित हो गई, क्योंकि एक प्लेग प्रभावित बच्चे की सेवा कर रही थीं..

तर्कसंगत रूप से लोगों को निश्चित रूप से सवाल उठाना चाहिए की, यह कैसे संभव हो सकता है कि इस तरह के एक महान पात्र (सावित्रीबाई फुले) का नाम इतिहास पुस्तकों से छोड़ा गया, जब झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम और गांधी - नेहरू परिवार के पत्नियों और लड़कियों-मित्रों के नामों को इतिहास की पुस्तकों में दिया गया है?

भारतीय समाज की महिलाएं सावित्रीबाई फुले की महानता से अवगत नहीं हैं, जिन्होंने “अंधकार युग” में शिक्षण के महान पेशे को थामने की हिम्मत की.. वह समय था जब महिलाएं केवल उपयोग करने वाली वस्तुए थीं, महिलाओं के लिए शिक्षा दंडनीय अपराध से कम नहीं थी; वहा उन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं पर लगाई गई अपारनीय सीमाओं के खिलाफ बोलने की हिम्मत व्यक्त की, उसने लाखों लोगों को प्रज्वलित किया, जिसके लिए आज की महिलाएं और हर किसी को उनका आभारी होना चाहिए। सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन पर 'शिक्षक दिवस' का जश्न मनाने के लिए क्या यह पर्याप्त नहीं है? सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन पर 'शिक्षक दिवस' का जश्न महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए सरकार के हिस्से पर एक अच्छा प्रयास होगा या कम से कम इसे महिलाओं की सामाजिक स्थिति के लिए चिंता का विषय दिखाएगा..

ब्रज रंजन मणि लिखते हैं:
"सावित्रीबाई फुले (1831- 97), अपने क्रांतिकारी पति के साथ एक समान मापदंड के साथ संघर्ष और सामना किया, लेकिन जातिवाद और लैंगिक लापरवाही के कारण उसे अस्पष्ट बना दिया गया.. जोतिराव फुले की पत्नी के रूप में अपनी पहचान के अलावा, आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षक, सामूहिक और महिला शिक्षा का एक कट्टरपंथी, महिलाओं की मुक्ति का चैंपियन, लगे कविता की अग्रणी, एक साहसी जननेता, के रूप में निश्चित रूप से उनकी स्वतंत्र पहचान और योगदान था.. यह वास्तव में संभ्रांत-नियंत्रित ज्ञान-उत्पादन की क्रूरता का एक उपाय है, जो कि सावित्रीबाई फुले के महत्वपूर्ण रूप में एक आंकड़ा आधुनिक भारत के इतिहास में कोई भी उल्लेख नहीं करता है। उनके जीवन और संघर्ष को एक व्यापक स्पेक्ट्रम की सराहना की योग्यता है, और गैर-मराठी लोगों को अच्छी तरह से ज्ञात किया गया है..”