November 26, 2017

भारतीय संविधान स्वीकार दिवस - २६ नवम्बर

२६ नवम्बर १९४९ को संविधान सभा के डॉ राजेंद्र प्रसाद को संविधान देते हुए, भारतरत्न बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर

भारत देश आज़ाद होने के बाद सबसे महत्वपूर्ण और मुश्किल कार्य था देश के लिए एक संविधान का निर्माण करना, जो देश के व्यवस्था संचालन के कार्य को आसान कर सके.. इसके लिए कुछ सदस्यों की एक कमिटी की रचना की गई, जिसके हर सदस्य कोई न कोई वजह से अपना योगदान ना दे शके और संविधान बनाने की पूरी जवाबदारी सिर्फ अकेले बाबासाहब डॉ आम्बेडकर पर आ गई.. २ वर्ष ११ महीने और १८ दिवस के गहन अध्ययन और परिश्रम के बाद, २६ नवम्बर १९४९ के दिन बाबासाहब डॉ आंबेडकर ने संविधान सभा में भारतीय संविधान पेश किया.. 

विश्वरत्न बाबासाहेब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर जी द्वारा 25 नवम्बर 1949 को संविधानसभा में दिए गए अंतिम भाषण में कहा था कि, "26 जनवरी 1950 को हम दोहरी जिंदगी में प्रवेश कर रहे होंगे,  जहाँ एक और राजनीतिक क्षेत्र में समानता होगी लेकिन दूसरी और सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में असमानता.. हमें जल्दी से जल्दी सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र की असमानता को दूर करना होगा.."

"मैं समझता हूँ कि संविधान चाहे जितना भी अच्छा हो यदि उसे कार्यान्वित करने वाले लोग बुरे हैं, तो वह निसंदेह बुरा ही साबित होगा.."

उतरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित डॉ आम्बेडकर पार्क में स्थित प्रतिमा,  संविधान निर्माता बाबासाहब डॉ आम्बेडकर, डॉ राजेंद्र प्रसाद को भारतीय संविधान सोपते हुए..

संविधानसभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 26 नवम्बर 1949 को संविधान को पढने के बाद विदाई भाषण करते हुए संविधान और संविधानसभा के कार्यों के बारे में कहा कि,

"इस कुर्सी पर बैठे - बैठे दिन प्रतिदिन की कार्रवाई देखते हुए मैंने जो अनुभव किया है, वह कोई भी अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता कि मसौदा समिति के सदस्यों ने और अपना स्वास्थ्य खराब होने पर भी उसके सभापति डॉ. अम्बेडकर ने कितने उत्साह और लगन के साथ कार्य किया है.. हम कोई ऐसा विनिश्चय नहीं कर सकते थे जो कभी भी इतना ठीक हो सकता था जितना कि वह जब हुआ जबकि हमने डाॅ.भीमराव अम्बेडकर को मसौदा समिति में सम्मिलित किया और उसका सभापति बनाया.. उन्होंने अपने चुनाव को ही न्याययुक्त सिध्द नहीं किया वरन जो कार्य उन्होंने किया है उसमें चार चांद लगा दिए हैं।"

इस संविधान को २६ जनवरी १९५० के दिन से देश में लागू किया गया, और उसी के साथ भारत देश प्रजासत्ताक बना.. भारत देश का संविधान हमें स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, और न्याय का सन्देश देता है.. भारतीय संविधान की शरुवात "We the people of INDIA" यानी की "हम भारत के लोग" से होती है और संविधान के पहले आर्टिकल में ही लिखा हुआ है की, "INDIA that is BHARAT"


संविधान के आमुख की ओरिजिनल कोपी

भारतीय संविधान का आमुख, जिसकी शरुवात "हम भारत के लोग" से हुई है..

भारतीय संविधान के बारे में कुछ रोचक तथ्य : 
  • भारत के संविधान को बनाने में डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.. इसीलिए डॉ अम्बेडकर को संविधान का निर्माता कहा जाता है.
  • भारत का संविधान पूरे विश्व में सबसे लम्बा और बड़ा संविधान है.
  • भारतीय संविधान पूरा हस्त लिखित है इसे श्री श्याम बिहारी रायजादा ने लिखा था.
  • भारतीय संविधान को बहुत ही खूबसूरती से सजाया गया था और इन पन्नों को सजाने का काम शांतिनिकेतन के कलाकारों ने किया था.
  • संविधान की ओरिजनल प्रतियाँ आज भी भारत के संसद में है. जहाँ इसे हीलियम के अंदर डाल कर लाइब्रेरी में रखा हुआ है.
  • भारतीय संविधान को बनने में 2 साल, 11 महीने और 18 दिन का समय लगा.
  • हमारा संविधान 26 नवंबर 1949 को बनकर पूरा तैयार हो गया था लेकिन इसे सरकार ने 26 जनवरी 1950 को लागू करवाया.
  • हमारे देश को विश्व का सबसे बेहतरीन संविधान माना जाता है.
  • भारत के मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 8 अनुसूचियां शामिल थी.
  • जब से हमारा संविधान बना है तब से लेकर अब तक संविधान में सिर्फ 92 संविधान संशोधन हुए है जो हमारे संविधान की मजबूती को दर्शाता है.
  • भारतीय संविधान का पहला संशोधन सन 1951 में हुआ था.
  • संविधान के अनुसार – हमारे देश का अपना कोई धर्म नहीं है. भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है.
  • संविधान के अनुसार – भारत रत्न, पद्म भूषण और कीति चक्र पुरस्कार गणतंत्र दिवस के दिन ही वितरित किये जाते है.
  • संविधान के अनुसार – स्वतंत्रता दिवस पर देश के लिए संबोधन प्रधानमंत्री द्वारा किया जाता है वही गणतंत्र दिवस पर देश के लिए सम्बोधन राष्ट्रपति करता है.
  • भारतीय संविधान द्वारा देश के नागरिको को 6 मौलिक अधिकार दिए गये है.
भारतीय संविधान को पढने के लिए व् डाउनलोड करने के लिए निचे की लिंक पर क्लिक करे :

November 22, 2017

झाँसी के युद्द की वीरांगना - झलकारी बाई कोली


पूरा नाम – झलकारी बाई
जन्म – 22 नवम्बर 1830
जन्मस्थान – भोजला ग्राम
पिता – सदोबा सिंह
माता – जमुना देवी
विवाह – पूरण सिंह

झलकारी बाई का इतिहास / Virangana Jhalkari Bai History :

झलकारी बाई का जन्म एक गरीब कोरी परीवार में हुआ था, वे एक साधारण सैनिक की तरह रानी लक्ष्मीबाई की सेना में शामिल हुई थी. लेकिन बाद में वह रानी लक्ष्मीबाई की विशेष सलाहकार बनी और महत्वपूर्ण निर्णयों में भी भाग लेने लगी.

बगावत के समय, झाँसी के किले पर युद्ध के समय वह अपने आप को झाँसी की रानी कहते हुए लड़ी ताकि रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित रूप से आगे बढ़ सके.बुन्देलखण्ड की याद में सालो तक झलकारीबाई की महानता को याद किया जाता है. उनका जीवन और विशेष रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उनके लड़ने की कला को बुन्देलखण्ड ही नही बल्कि पूरा भारत हमेशा याद रखेगा. दलित के तौर पर उनकी महानता ने उत्तरी भारत में दलितों के जीवन पर काफी प्रभाव डाला. बाद में कुछ समय बाद ब्रिटिशो द्वारा झलकारीबाई को फाँसी दे दी गयी थी.


उनके नाम को दलितों का सम्मान और गर्व बताया जाता है. इसे देखते हुए उनके जीवन पर काफी शोध किये गये और उनके जीवन के बारे में कुछ रोचक तथ्य भी मिले. लेकिन अधिकतर समय झलकारीबाई को बहुजनो की इतिहासिक हीरोइन कहा गया है.

झलकारीबाई की जीवनी – Biography Of Jhalkari Bai : 

झलकारीबाई सदोबा सिंह और जमुना देवी की बेटी थी. उनका जन्म 22 नवम्बर 1830 को झाँसी के नजदीक भोजला ग्राम में हुआ था. उनकी माता के मृत्यु के बाद, जब वह किशोर थी, तब उनके पिता ने उन्हें एक बेटे की तरह बड़ा किया. बचपन से ही वह घुड़सवारी और हथियार चलाने में माहिर थी. लेकिन उस समय की सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए, झलकारीबाई प्रारंभिक शिक्षा नही ले सकी. लेकिन एक योद्धा की तरह झलकारीबाई ने काफी प्रशिक्षण प्राप्त किया था.

झलकारीबाई को रानी लक्ष्मीबाई के समान माना जाता है. उन्होंने एक तोपची सैनिक पूरण सिंह से विवाह किया था, जो रानी लक्ष्मीबाई के ही तोपखाने की रखवाली किया करते थे. पुराण सिंह ने ही झलकारीबाई को रानी लक्ष्मीबाई से मिलवाया था. बाद में झलकारी बाई भी रानी लक्ष्मीबाई की सेना में शामिल हो गयी थी. सेना में शामिल होने के बाद झलकारीबाई ने युद्ध से सम्बंधित अभ्यास ग्रहण किया और एक कुशल सैनिक बनी.

1857 के विद्रोह के समय, जनरल रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया. रानी ने वीरतापूर्वक अपने 5000 के सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया. रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी क्योकि तात्या टोपे जनरल रोज से पराजित हुए थे.

जल्द ही अंग्रेज फ़ौज झाँसी में घुस गयी थी और रानी अपनी झाँसी को बचाने के लिए जी जान से लढ रही थी. तभी झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राणों को बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का फैसला किया, इस तरह झलकारीबाई ने पूरी अंग्रेजी सेना को अपनी तरफ आकर्षित कर रखा था ताकि दूसरी तरफ से रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकाल सके.

इस तरह झलकारीबाई खुद को रानी बताते हुए लडती रही और जनरल रोज की सेना भी झलकारीबाई को ही रानी समझकर उनपर प्रहार करने लगी थी. लेकिन दिन के अंत में उन्हें पता चल गया था की वह रानी नही है.

झलकारीबाई की प्रसिद्धि:

1951 में बी.एल. वर्मा द्वारा रचित उपन्यास झाँसी की रानी में उनका उल्लेख किया गया है, वर्मा ने अपने उपन्यास में झलकारीबाई को विशेष स्थान दिया है. उन्होंने अपने उपन्यास में झलकारीबाई को कोरियन और रानी लक्ष्मीबाई के सैन्य दल की साधारण महिला सैनिक बताया है.

एक और उपन्यास में हमें झलकारीबाई का उल्लेख दिखाई देता है, जो इसी वर्ष राम चन्द्र हेरन द्वारा लिखा गया था, उस उपन्यास का नाम माटी था. हेरन ने झलकारीबाई को “उदात्त और वीर शहीद” कहा है.

झलकारीबाई का पहला आत्मचरित्र 1964 में भवानी शंकर विशारद द्वारा लिखा गया था, भवानी शंकर ने उनका आत्मचरित्र का लेखन वर्मा के उपन्यास और झलकारी बाई के जीवन पर आधारित शोध को देखते हुए किया था.

बाद में कुछ समय बाद महान जानकारो ने झलकारीबाई की तुलना रानी लक्ष्मीबाई के जीवन चरित्र से भी की.

झलकारीबाई की महानता :

कुछ ही वर्षो में भारत में झलकारीबाई की छवि में काफी प्रख्याति आई है. झलकारीबाई की कहानी को सामाजिक और राजनैतिक महत्ता दी गयी. और लोगो में भी उनकी कहानी सुनाई गयी. बहोत से संस्थाओ द्वारा झलकारीबाई के मृत्यु दिन को शहीद दिवस के रूप में भी मनाया जाता है.

झलकारीबाई की महानता को देखते हुए ही उन्हें सम्मानित करने के उद्देश से पृथक बुन्देलखण्ड राज्य बनाने की मांग की गयी थी. भारत सरकार ने झलकारीबाई के नाम का पोस्ट और टेलीग्राम स्टेम्प भी जारी किया है.

भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में, झाँसी के किले में झलकारीबाई का भी उल्लेख किया है.

भारत की सम्पूर्ण आज़ादी के सपने को पूरा करने के लिए प्राणों का बलिदान करने वाली वीरांगना झलकारीबाई का नाम अब इतिहास के काले पन्नो से बाहर आकार पूर्ण चाँद के समान चारो और अपनी आभा बिखेरने लगा है.

झलकारी बाई की बहादुरी को हम निम्न पंक्तियों में देख सकते है-

“जा कर रण में ललकारी थी,

वह तो झाँसी की झलकारी थी,
गोरो से लड़ना सिखा गयी,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी!!”

November 16, 2017

महान क्रांतिकारी आदिवासी - वीर बिरसा मुंडा

अंग्रेजों की शोषणकारी नीति और असह्य परतंत्रता से भारत वर्ष को मुक्त कराने में अनेक महपुरूषों ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार योगदान दिया. इन्हीं में से एक महापुरूष थे बिरसा मुंडा. उन्होंने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ अर्थात हमारे देश में हमारा शासन का नारा दिया.

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को चालकद ग्राम में हुआ. बिरसा मुंडा का पैतृक गांव उलिहातु था. सन् 1886 ई0 से जर्मन ईसाई मिशन द्वारा संचालित चाईबासा के एक उच्च विद्यालय में बिरसा ने शिक्षा ग्रहण की. बिरसा मुंडा को अपनी भूमि और संस्कृति से गहरा लगाव था. बिरसा मुण्डा आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे. वे वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे. पादरी डॉ. नोट्रेट ने कहा कि यदि वे लोग ईसाई बने रहे तो और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो मुंडा सरदारों की छिनी हुई भूमि को वापस करा देंगे. लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बल्कि ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा. उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया. फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए.

बिरसा मुंडा का संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा. अपने जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी. उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि वे मुंडाओं का शासन लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे. बिरसा मुंडा ने न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया. बिरसा ने गांव-गांव घुमकर लोगों को अपना संकल्प बताया. उन्होंने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज (हमारे देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका.



बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ क्रांति का आह्वान किया. वे उग्र हो गये. शोषकों, ठेकेदारों और अंग्रेजी चाटुकारों को मार भगाने का आह्वान किया. पुलिस को भगाने की इस घटना से आदिवासियों का विश्वास बिरसा मुंडा पर होने लगा. बिरसा मुंडा की बढ़ती लोकप्रियता और सक्रियता देखकर 22 अगस्त 1895 अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा मुंडा को किसी भी तरह गिरफ्तार करने का निर्णय लिया. दूसरे दिन सुबह मेयर्स, बाबु जगमोहन सिंह तथा बीस सशस्त्र पुलिस बल के साथ बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने चल पड़े. पुलिस पार्टी 8.30 बजे सुबह बंदगांव से निकली एवं 3 बजे शाम को चालकद पहुंची. बिरसा के घर को उन्होंने चुपके से घेर लिया. एक कमरे में बिरसा मुंडा आराम से सो रहे थे. काफी मशक्कत के बाद बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया गया. उन्हें शाम को 4 बजे रांची में डिप्टी कलेक्टर के सामने पेश किया गया. रास्ते में उनके पीछे भीड़ का सैलाब था. भीड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी. ब्रिटिश अधिकारियों को आशंका थी कि उग्र भीड़ कोई उपद्रव न कर बैठे. लेकिन बिरसा मुंडा ने भीड़ को समझाया. बिरसा मुंडा के खिलाफ मुकदमा चलाया गया. मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदलकर खूंटी कर दिया गया. बिरसा को राजद्रोह के लिए लोगों को उकसाने के आरोप में 50/- रुपये का जुर्माना तथा दो वर्ष सश्रम कारावास की सजा दी गई. उलगुलान की आग जरूर दब गई लेकिन यह चिंगारी बनकर रह गई जो आगे चलकर विस्फोटक रूप धारण किया.

30 नवम्बर 1897 के दिन बिरसा को रांची जले से छोड़ दिया गया. यहां 24 दिसम्बर 1899 को ‘उलगुलान’ पुन: प्रारंभ कर दिया गया. तमाम क्षेत्रों में क्रांति की आग भड़क गई. बिरसा मुंडा इसका नेतृत्व कर रहे थे. अंग्रेजों और बिरसा मुंडा के समर्थकों के बीच लगातार युद्ध होने लगे. 9 जनवरी 1900 को डोम्बारी से कुछ दूर सैकड़ों से करीब तीन मील उत्तर में सईल रैकब पहाड़ी पर विद्रोहियों की सभा हो रही थी. सभा में तीर, धनुष, भाला, टांगी, गुलेलों से लैस बिरसा के अनुयायियों एवं विद्रोहियों के अंदर अंग्रेजों एवं शोषकों के खिलाफ लड़ाई लडऩे का जज्बा अंतिम चरण में था. तभी पुलिस पार्टी ने उस सभा के सामने आकर विद्राहियों को आत्म समर्पण एवं हथियार डालने को कहा. बिरसा के समर्थकों ने मना कर दिया जिसके बाद अंग्रेजी सेना ने भीड़ पर आक्रमण कर दिया.

सईल रकब रकब पहाड़ी पर इस आक्रमण में 40 से लेकर 400 की संख्या में मुंडा लोग लड़ाई में मारे गये. 03 फरवरी 1900 ई को 500/- रुपये के सरकारी ईनाम के लालच में जीराकेल गांवों के सात व्यक्तियों ने बिरसा मुंडा के गुप्त स्थान के बारे में अंग्रेजों को बताकर धोखे से पकड़ लिया गया. बिरसा को पैदल ही खूंटी के रास्ते रांची पहुंचा दिया गया. हजारों की भीड़ ने तथा बिरसा के अनुयायियों ने बिरसा जिस रास्ते से ले जाया गया उनका अभिवादन किया. 1 जून 1900 को डिप्टी कमिश्नर ने ऐलान किया कि बिरसा मुंडा को हैजा हो गया तथा उनके जीवित रहने की कोई संभावना नहीं है. अंतत: 9 जून 1900 को बिरसा ने जेल में अंतिम सांस ली..

Original post : दलित दस्तक - जयंती विशेषः महान क्रांतिकारी थे बिरसा मुंडा

बहुजन समाज पार्टी के शासनकाल में उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में बने आम्बेडकर पार्क में स्थित वीर बिरसा मुंडा की प्रतिमा..
बहुजन समाज पार्टी के शासनकाल में बने दलित प्रेरणा स्थल, नोएडा में स्थित शहीद बिरसा मुंडा की शानदार व सबसे बड़ी प्रतिमा.. 

November 2, 2017

मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर में प्रथम विश्व दलित सम्मेलन में साहब कांशीराम का भाषण..

जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए आपको देश का हुक्मरान बनना होगा :

मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर में प्रथम विश्व दलित सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर, मुख्या वक्त के रूप में मान्यवर कांशी राम जी ने जनता को सम्भोधित करते हुए कहा की सबसे पहले मै आपको जातिविहीन समाज के निर्माण की दिशा में इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन करने के लिए हार्दिक बधाई देना चाहता हुँ.. मुझे दुःख है की पार्टी के कार्यो में अति व्यस्तता के कारण मै इस अवसर पर दिए जाने वाले अपने भाषण को लिख नहीं पाया, इसलिए मै सीधे ही आपसे मुखातिब हो रहा हुँ.

जाती का विनाश :

सन 1936 में लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल ने बाबासाहब अम्बेडकर से जाती विषय पर उनके द्वारा लिखे गए निबंध को मंडल के अधिवेशन में पढ़ने के लिए आमंत्रित किया.. लेकिन उस अधिवेशन में बाबासाहब अम्बेडकर को वह निबंध प्रस्तुत नहीं करने दिया गया, वह निबंध बाद में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया, जिसका शीर्षक था, “एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट” (Annihilation of Caste) “अर्थात जाती का विनाश”. 1962-63 में जब मुझे इस पुस्तक को पढ़ने का मौका मिला, तो मुझे भी ऐसा महसूस हुआ की शायद जाती का विनाश संभव है, लेकिन बाद मै मैंने जाती व्यवस्था और जातीय आचरण का गहराई से अध्यन किया तो मेरी सोच में परिवर्तन आने लगा.. मैंने जाती का अध्यन महज किताबो से नहीं, बल्कि असल जिंदगी से किया है, जो लोग करोडो की संख्या में अपने-अपने गाँव छोड़कर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता तथा अन्य बढे-बढे शहरो में आते है, वे अपने साथ और कुछ नहीं बल्कि अपनी जाती को लाते है.. वे अपने छोटे-छोटे झोपड़े छोटी-छोटी जमीने और मवेशी आदि सब कुछ पीछे गाँव में ही छोड़ आते है और केवल अपनी जाती को साथ लेकर ही शहर की गन्दी बस्तियों, नालो, रेल की पटरियों के किनारे बस जाते है.. अगर लोगो को अपनी जाती इतनी ही प्रिय है, तो हम जाती का विनाश कैसे कर सकते है? इसलिए मैंने जाती के विनाश की दिशा में सोचना बंद कर दिया..

आप लोगो ने जातिविहीन समाज की दिशा में बढ़ने के उद्देश्य से इस सम्मेलन का आयोजन किया है; मेरा उद्देश्य भी एक जाती-विहीन समाज की स्थापना करना है, लेकिन जाती कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे मात्र आपके चाहने भर से नष्ट किया जा सकता है.. जाती को नष्ट करना लगभग असंभव है, तो हमे क्या करना चाहिए ?

जाती के निर्माण के पीछे एक विशेष उद्देश्य है :

जाती का निर्माण बिना किसी उद्देश्य के नहीं किया गया है, इसके पीछे एक गहरा उद्देश्य और स्वार्थ छिपा हुआ है.. जब तक यह उद्देश्य अथवा स्वार्थ जिन्दा रहता है, जाती का विनाश नहीं किया जा सकता.. आप ब्राह्मणो अथवा सवर्ण जातियों को इस प्रकार जातीविहीन समाज की पुनरस्थापना के लिए सम्मेलन, विचार-गोष्ठी आदि आयोजित करते हुए नहीं देखेंगे.. ऐसा इसलिए है, क्योकि जाती का निर्माण इन्ही वर्गों द्वारा अपने नीच स्वार्थो की पूर्ति के लिए किया गया है, जाती के निर्माण के कारण केवल मुट्ठी भर सवर्ण जातियों को ही फायदा हुआ है और 85 प्रतिशत बहुजन समाज को पिछले हज़ारो वर्षो से पीढ़ी-दर-पीढ़ी नुक्सान ही होता रहा है और वे अपमान और शोषण का शिकार बनते रहे है.. अगर जाती के निर्माण से सवर्ण वर्गों को ही फायदा होता रहा है, तो भला वे इसके विनाश के लिए पहल क्यों करेंगे ? इस तरह की कॉन्फ्रेंस(सम्मेलन) केवल हम लोग ही आयोजित कर सकते है, क्योकि हम जाती व्यवस्था के शिकार है.. इसका फायदा पाने वालो को जाती के विनाश में कोई रूचि नहीं हो सकती, बल्कि वे तो जाती व्यवस्था को और अधिक मजबूत देखना चाहते है, ताकि जाती के आधार पर उन्हें मिलने वाली सभी सुविधाये भविष्य में भी जारी रहे..

इस सभाग्रह में जो लोग बैठे है, उनमे से अधिकांश शायद आज स्वयं परोक्ष रूप से जाती के शिकार न हो; लेकिन हम सभी का जन्म ऐसे लोगो अथवा समाज के बीच हुआ, जोकि जाती के शिकार है.. इसलिए हमे जाती के विनाश की दिशा में सोचने की जरुरत है..

लेकिन जब हम जाती के विनाश की बात करते है, तो इसके लिए भी सर्वप्रथम जाती के अस्तित्व को स्वीकारकरना होगा.. जाती की अनदेखी अथवा उपेक्षा करके हम जाती का विनाश नहीं कर सकते है..

हमारे अंदर जातीविहीन समाज का निर्माण करने की भावना हो सकती है, लेकिन इसके साथ यह भी सत्य है की निकट भविष्य में जाती के विनाश की सम्भावना लगभग न के बराबर है.. तो जब तक जाती का पूरी तरह विनाश न हो जाये, तब तक हमे क्या करना चाहिए ? मेरा यह मानना है की जब तक हम जातीविहीन समाज की स्थापना करने में सफल नहीं हो जाते, तब तक जाती का उपयोग करना होगा अगर ब्राह्मण जाती का उपयोग अपने फायदे के लिए कर सकते है, तो मै उसका इस्तेमाल अपने समाज के हित में क्यों नहीं कर सकता ?

दोधारी तलवार :

जाती एक दोधारी तलवार के समान है, जो दोनों तरफ से काटती है.. अगर आप इसे इस तरफ से चलाए(अपने हाथ को दाई तरफ ले जाते हुए), तो यह इस तरफ काटती है; अगर आप इसे दूसरी दिशा मे ले जाए(हाथ को बाई तरफ लहराते हुए),तो यह दूसरी तरफ से काटती है.. तो मैने जाती को दोधारी तलवार की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया की इसका फ़ायदा बहुजन समाज को मिले और उच्च वर्ग को इसका फ़ायदा पहुँचना बंद हो जाए.. बाबासाहब अंबेडकर ने जाती के आधार पर ही अनुसूचित जाती और अनुसूचित जनजाति के लोगो को उनके सामाजिक और राजनैतिक अधिकार दिलाए.. जाती का सहारा लेकर ही उन्होने सन 1931/32 राउंड टेबल कान्फरेन्स मे इन वर्गो के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करवाई.. लेकिन इस मुद्दे पर गाँधीजी के आमरण अनशन के कारण, इन वर्गो को पृथक निर्वाचन का अधिकार खोना पड़ा..

पृथक निर्वाचन :

कई लोग मुझसे अक्सर पूछते है की जिस तरह बाबासाहब अंबेडकर ने पृथक निर्वाचन के लिए संघर्ष किया, उसी प्रकार का संघर्ष आप भी क्यो नही शुरू करते ? आज तक मैने अपना एक भी मिनट पृथक निर्वाचन के मामले मे खराब नही किया है, अगर पृथक निर्वाचन अधिकार बाबासाहब अंबेडकर द्वारा ब्रिटिश शासन के दौरान भी संभव नही हो सका, तो आज यह मेरे लिए किस प्रकार संभव हो सकता है, जब की देश मे मनुवादी समाज के लोगो का राज है.. आज यह एकदम असंभव है..

जाती के विशेषज्ञ :

बाबासाहब अंबेडकर ने अनुसूचित जातियो और अनुसूचित जनजातियो के लोगो को जाती के हथियार का इस्तेमाल करने लायक बनाया था, इसी कारण वे ब्रिटिश हुकूमत से इन वर्गो के लिए कई सुविधाए जुटाने मे सफल रहे.. लेकिन अंग्रेज़ो के भारत छोड़ने के बाद केवल तीन लोग ही ऐसे रहे है, जिन्हे जाती के हथियार को इस्तेमाल करने मे महारत हासिल है, सबसे पहले व्यक्ति जवाहर लाल नेहरू थे, दूसरी श्रीमती इंदिरा गाँधी थी और तीसरा व्यक्ति कांशी राम है.. (तालिया)

नेहरू ने जाती के हथियार को इतनी निपुणता और कामयाबी के साथ इस्तेमाल किया की बाबासाहब अंबेडकर लगभग असहाय से हो गये.. नेहरू जाती के उपयोग एवम् मनुवादी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने की कला मे पारंगत थे, उनके बाद श्रीमती इंदिरा गाँधी भी जाती का हथियार चलाने और ब्राह्माणवादी व्यवस्था को उसका लगातार फ़ायदा पहुँचाने के खेल मे माहिर थी.. लेकिन आज अगर दिल्ली के किसी भी कांग्रेसी से आप पूछे की क्या आपको जाती के इस्तेमाल से कोई फ़ायदा मिल रहा है ? तो वो यही कहेंगे, “नही हमें जाती का कोई लाभ नही मिल रहा है, हमें नही मालूम की किस तरह जाती से फ़ायदा उठाया जा सकता है, यह तो सिर्फ़ कांशीराम को मालूम है की किस तरह जाती का इस्तेमाल अपने हित मे किया जा सकता है”.. (हँसी)

अगर आप ब्राह्मणो को जाती से फ़ायदा उठाने से रोक सकते है, तो वो जाती की इस तलवार का हमारे खिलाफ इस्तेमाल करने से पहले कई बार सोचेंगे.. मैने जाती की दोधारी तलवार का इस्तेमाल अपने समाज के हित मे करना सिख लिया है, जाती जो की अभी हमें अपने लिए एक समस्या नज़र आती है, अगर हम इसका ठीक तरह से उपयोग करना सिख जाए, तो यह हमारे लिए एक फयदेमंद चीज़ बन सकती है.. आज जो हमारी समस्या है, वो कल हमारे लिए अवसर भी बन सकती है, बशर्ते हम उसे ठीक तरह से इस्तेमाल करना सिख जाए..

भारतीय शरणार्थी :

हमें इतिहास से सबक सीखने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए, हमें बाबासाहब अंबेडकर की मूवमेंट बढ़ाने का काम और अधिक तेज़ी से करना होगा.. 1932 मे बाबासाहब अंबेडकर ने दलितो के लोगो के लिए पृथक निर्वाचन की माँग की, दस वर्ष बाद 1942 मे उन्होने दलितो के लिए पृथक बस्तियो की माँग उठायी, क्योकि वे चाहते थे की दलित समुदाय के लोग हिंदूयो पर किसी तरह से निर्भर ना होकर, पूरी तरह स्वंतंत्रता के साथ जीवन-यापन करे.. लेकिन आज स्तिथि क्या है ? आज देश मे 45 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर खेती होती है, हमारे समाज के लोग मेहनत करके फसल पैदा करते है, लेकिन जिन खेतो पर वे काम करते है, उन ज़मीनो पर उनका मालिकाना हक़ नही होता है तथा वे मनुवादी ज़मींदारो के अन्याय और शोषण के शिकार होते रहते है.. इस स्तिथि से तंग आकर वे अपने गाँवो को छोड़कर रोज़गार और सम्मानपूर्वक ज़िंदगी की तलाश मे बढ़े-बढ़े शहरो मे आ जाते है, तथा गंदी बस्तियो, पुलो के नीचे, नालो तथा रेलपटरियो के किनारे और अन्य गंदे स्थानो पर जनवरो से भी ज़्यादा बुरी ज़िंदगी जीने को मजबूर है.. इस संकट-प्रवास के कारण लगभग दस करोड़ लोग अपने-अपने गाँवो, छोटी-छोटी ज़मीनो, घर-झोपड़ो तथा मवेशियो को पीछे छोड़कर शहरो मे आ गये है.. आज से 10 वर्ष पहले देश मे रहने वाली शहरी आबादी 5 करोड़ थी, आज यह संख्या 16 करोड़ है.. ये लोग गंदे स्लमो(झुग्गियों), सड़को आदि स्थलो पर रह रहे है, हम इन्हे भारतीय शरणार्थी कहते है.. इन लोगो की समस्याओ के बारे मे किसे सोचना चाहिए ? भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय तथा शहरी निवास मंत्रालय को इन लोगो की समस्याओ के बारे मे हल ढूढ़ना चाहिए.. भारत की सरकार इन 10 करोड़ लोगो के अतिरिक्त, सभी के विकास के लिए कोई न कोई योजना बनाती है, लेकिन इन 10 करोड़ भारतीय शरणार्थियो की बुरी दशा पर कोई ध्यान नही देता.. हमारे सालाना बजट मे इन लोगो के लिए कोई पैसा नही रखा जाता, इतनी बढ़ी संख्या मे मौजूद लोगो के लिए कोई विशेष विभाग अथवा मंत्रालय नही है.. हमारे यहा 1947 मे पाकिस्तान से आए शरणार्थियो तथा अन्य स्थानो से आए शरणार्थियो के लिए तो अलग-अलग विभाग तथा मंत्रालय की व्यवस्था की गयी है तथा उन पर करोड़ो-अरबो रुपया खर्च किया जाता रहा है, लेकिन अपने ही देश मे शरणार्थी बने इन 10 करोड़ लोगो की ओर किसी भी सरकार का ध्यान नही जाता..

चुकी यह लोग अपनी ज़मीन, घर, मवेशी गाँवो मे ही छोड़कर केवल अपनी जाती को साथ लेकर शहरो की तरफ आए है, इससे मेरा काम बहुत आसान हो गया है.. ये दस करोड़ शरणार्थी भारत के मनुवादी शाशको के लिए एक समस्या है, लेकिन हमारे लिए ये एक बहुत बढ़ी ताक़त है जिस जाती के आधार पर इन करोड़ो लोगो को अपमानित किया गया है , पछाड़ा गया है, उसी जाती का इस्तेमाल हम इन लोगो को अन्याय-शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए कर सकते है.. आगामी नवम्बर मे दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश मे होने वाले विधान सभा चुनाव के बाद हमने इन लोगो की मुक्ति के लिए “भारतीय शरणार्थी आंदोलन” चलाने की योजना बनाई है.. मै मात्र इस उम्मीद पर खाली नही बैठा रहूँगा की जाती एक दिन अपने आप समाप्त हो जाएगी, बल्कि जब तक भारतीय समाज मे जाती जिंदा है, तब तक मै इसको अपने समाज के हीत मे इस्तेमाल करता रहूँगा..

मनुवादी प्रपंच :

आईये अब मै जाती का इस्तेमाल अपने हित मे करते समय होने वाले अनुभवो के बारे मे आपको बताता हुँ, की आज मै जाती के शिकार लोगो को संघठित करके जाती को अपने हित मे इस्तेमाल करने के लिए तैयार कर रहा हुँ.. मै उन्हे बाबासाहब अंबेडकर के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित कर रहा हुँ.. मै अपने समाज को अर्थात जाती का शिकार हुए लोगो को जाती की इस दोधारी तलवार को अपने हित मे इस्तेमाल करने लायक बना रहा हुँ.. आज हरेक मनुवादी पार्टी और नेता मेरे द्वारा जाती का इस्तेमाल किए जाने के कारण घबराए हुए है, इस “कांशी राम चमत्कार” को रोकने के लिए सभी मनुवादी दल कोशिश कर रहे है, पहले राजीव गाँधी ने कोशिश की, फिर वी पी सिंह, नरसिम्हा राव आदि ने कोशिश की, आज वही कोशिश भारतीय जनता पार्टी कर रही है, लेकिन ये सभी लोग अपना खेल खेल रहे है और मै अपना खेल खेल रहा हुँ.. (तालिया)

बहुजन समाज पार्टी को पूरे देश मे मान्यता प्राप्त करनी है : 

जाती से फ़ायदा उठाने वाले मनुवादी लोगो ने इसे बनाया, ताकि इसकी सहायता से वे दूसरो पर निरंतर राज कर सके.. उन्ही लोगो ने इसे बचाए रखा, ताकि उनके एकछत्र राज पर आँच न आने पाए.. किसी व्यवस्था का निर्माण, उसको बनाए रखने के बनिस्बत अधिक कठिन होता है, एक बार यदि आप कोई व्यवस्था बना दे तो उसको चलाना तथा कायम रखना अधिक मुश्किल काम नही है..

अगर आप जाती को नष्ट करना चाहते है, तो आपको मनुवादी समाज को इसका फ़ायदा लेने से रोकना होगा.. जब तक फ़ायदा उठाने वालो को जाती का इस्तेमाल करते रहने की छूट मिलती रहेगी, तब तक जाती के शिकार लोग इससे पीड़ित रहेंगे, इसलिए आपको जाती को अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करना सीखना होगा और मनुवादी व्यवस्था के अधिकारो को इसका लाभ लेने से रोकना होगा.. आपको जाती को अनदेखा नही करना चाहिए, बल्कि इसके अस्तित्व को स्वीकार करना चाहिए जाती का सफलतापूर्वक इस्तेमाल करने के कारण ही बहुजन समाज पार्टी आज देश की चौथी सबसे बढ़ी पार्टी बन गयी है.. देश मे कुल 70 मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल और हम 66 अन्य दलो से आगे है, आज केवल कॉंग्रेस, BJP, और CPI(M) ही हमसे आगे है.. 1984 मे जब हमने पार्टी बनाई थी, उस समय दूसरी पार्टिया हमसे कहती थी की BSP केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहेगी, लेकिन आज BSP केवल उत्तर प्रदेश मे ही नही, बल्कि म्ध्य प्रदेश, पंजाब, जम्मू-कश्मीर तथा हरियाणा मे भी मान्यता प्राप्त पार्टी बन चुकी है.. यह देखकर सभी सवर्ण जातिया(मनुवादी समाज)बहुत दुखी है, और मै भी खुश नही हुँ, वे लोग इसलिए दुखी है क्योकि BSP अन्य राज्यो मे भी मजबूती के साथ आगे बढ़ रही है और मै इसलिए दुखी हुँ, क्योकि BSP देश के सभी प्रदेशो मे मान्यता प्राप्त पार्टी नही बन पायी है.. मै चाहता हुँ की BSP देश के सभी राज्यो मे, यहा तक की महाराष्ट्र मे भी एक मान्यता प्राप्त पार्टी बन सके..

स्वतंत्र भारत मे बहुजन समाज निर्भर क्यो ?

वर्ष 1947 मे भारत के मनुवादी हुक्मरानो ने स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती मनाने का फ़ैसला किया, उनके लिए इस अवसर पर रंगरेलिया मनाने के कई कारण हो सकते थे.. लेकिन देश का 85 फीसदी बहुजन समाज को आज़ादी के 50 वर्ष बाद भी आज तक दूसरो पर निर्भर है, उसके पास इस तरह की रंगरेलिया मनाने का कोई कारण नही है.. आज भी हमारा समाज दूसरो के खेतो पर मज़दूरी करता है, उनके अपने खेत नही है 10 करोड़ लोग अपने-अपने गावो को छोड़कर शहरो मे इसलिए आए है क्योकि वह दूसरो पर निर्भर है.. जब हमने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की, उस समय दलित, पिछड़े वर्गो के लोग दूसरो पर निर्भर थे, टिकट लेने के लिए वे मनुवादी दलों के आगे पीछे भागा करते थे.. राजनैतिक पार्टिया कुछ और नही बल्कि टिकट छापने वाली मशीने है तो हमने सोचा की क्यो न हम भी अपनी एक ऐसी मशीन बनाए, इसलिए 14, अप्रैल,1984 को हमने BSP बनाई..

आज केवल प्लेटफार्म टिकट नही :

मार्च 1985 मे उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावो मे हमने 237 उम्मीदवारो को टिकट दिए, मैने अपने उम्मीदवारो को बोला की हमारे टिकट केवल प्लेटफार्म टिकट है और आप इन टिकटो की सहायता से लखनऊ नही पहुँच सकते है.. उस समय हमारे टिकट पाने के लिए कोई मारा-मारी नही होती थी, लेकिन आज हमारे टिकट की बेहद माँग है, आज उत्तर प्रदेश मे BSP के प्रत्येक उम्मीदवार को एक लाख से अधिक वोट पढ़ते है.. आज हमारे टिकट मात्र प्लेटफार्म टिकट नही रह गये है , बल्कि हमारा टिकट लेकर आप लखनऊ ही नही बल्कि दिल्ली मे भी पहुँच सकते है.. आज हमारे टिकट के लिए इतनी माँग आख़िर किस कारण से है ?

कॉंग्रेस ने BSP को लोकप्रिय बनाया :

1984 के (लोक सभा चुनावो के आधार पर) चुनाव मे कॉंग्रेस ने उत्तर प्रदेश मे 425 मे से 410 सीटे जीती थी.. 1985 के विधान सभा चुनावो मे उन्हे केवल 265 सीटे ही मिल सकी, BSP की उपस्थिति के कारण 145 सीटो से हाथ धोना पड़ा.. इस हानि से निराश और कुंठित होकर उन्होने BSP को चमारो की पार्टी कहकर प्रचारित करना शुरू कर दिया, कॉंग्रेस के इस प्रचार से हमें निश्चित रूप से फ़ायदा हुआ.. हमारी पार्टी उत्तर प्रदेश मे चमारो मे बेहद लोकप्रिय हो गयी 1985 के चुनावो मे हमें केवल 2% वोट मिले थे, 1989 के चुनावो मे हमारा वोट प्रतिशत बढ़कर 9%, 1991 मे 11%, 1993 मे 20.6% हो गया 1996 के लोक सभा चुनावो मे उत्तर प्रदेश मे हमें 29% वोट मिले.. हमने यह सब जाती को अनदेखा करके हासिल नही किया, बल्कि हमने इसके अस्तित्व को स्वीकार करके और इसको अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करके ही उत्तर प्रदेश मे यह सफलता हासिल की.. आज कॉंग्रेस जाती का फ़ायदा उठाने मे असमर्थ है और हमने जाती का इस्तेमाल करके अपनी शक्ति को कई गुना बढ़ाया है और आगे भी बढ़ाएँगे..

महाराष्ट्र का सबक :

आज यहा महाराष्ट्र से आए हुए कई लोग मौजूद है, मैने इन लोगो से काफ़ी कुछ सीखा है.. अंबेडकर मूवमेंट चलाने के लिए आधा सबक मैने बाबा साहब अंबेडकर से सीखा है और बाकी का आधा सबक मैने महाराष्ट्र के महारो से सीखा.. बाबा साहब से मैने यह सीखा की मूवमेंट किस प्रकार चलाया जाना चाहिए, महाराष्ट्र के महारो से मैने यह सीखा की मूवमेंट को किस तरह नही चलाना चाहिए.. किसी मूवमेंट को चलाने के लिए केवल यह जानना ज़रूरी नही है , की उसे किस तरह चलाया जाए, बल्कि यह जानना भी ज़रूरी है , की उसे किस तरह नही चलाया जानाचाहिए.. अगर आपको यह मालूम नही की कोई मूवमेंट किस तरह नही चलाया जाए तो आप यह भी नहीजान पायेंगे की उसे किस तरह चलाया जाना चाहिए..

महारो ने जाती के हथियार को ठीक तरह से इस्तेमाल नही किया, उनका कहना था की अब वे बुद्धिस्ट है और अब वे महार नही रहे, लेकिन इसके साथ-साथ वे महार की हैसियत से रिजर्वेशन के लिए लढ़ते रहे.. उन्होने महार से बौद्ध बने लोगो के लिए भी आरक्षण की माँग की, आप लोगो ने जाती की बदबू को हिंदू धर्म से लेकर बौद्ध धर्म मे भी भर दिया.. जाती हिंदू धर्म की वह सड़ी हुई दुर्गंध है, जिसने पूरे विश्व को प्रदूषित कर दिया है..

आरक्षण के 100 वर्ष : 

26 जुलाई, 1902 को कोल्हापुर के छत्रपति शाहू जी महाराज द्वारा दलितो को शिक्षा संस्थानो और सरकारी नौकरियो मे आरक्षण की सुविधा दी गयी... 26 जुलाई, 2002 को हम आरक्षण के 100 वर्ष पूरे कर लेंगे, आरक्षण लेने के लिए 100 वर्ष काफ़ी है, अब मै यह अपनी ज़िम्मेदारी समझता हुँ, की अपने लोगो को आरक्षण लेने के लिए नही, बल्कि दूसरो को आरक्षण देने के लिए तैयार करू.. हम दूसरो को आरक्षण देने लायक कैसे बन सकते है, यह बात कहना और समझना तो आसान है, लेकिन अमल ले माना मुश्किल काम है..

आरक्षण देने लायक कौन होता है ? केवल हुक्मराण ही दूसरो को आरक्षण दे सकते है यहा तक की खुद अपने समाज को लाभ पहुँचाने और उनके हितो की रक्षा के लिए आपको शाषक-जमात बनना होगा.. इसलिए हमें इस देश का शाषक बनने के लिए अपने आप को तैयार करना चाहिए, हमें शाषक बनना है, केवल यही एक उपाय है.. लेकिन प्रश्न यह है की जाती के शिकार लोग शाषक कैसे बन सकते है ?

एम.पी / एम.एल.ए बनना ज़रूरी है अथवा अंबेडकर मूवमेंट चलाना ?

मैने बाबा साहब अंबेडकर को नही देखा जब वे जिंदा थे और न ही उनको कभी सुना था.. मैने अंबेडकरवाद को महाराष्ट्र के नेताओ से ही सीखा है, श्री बाजीराव कंबले जो आज यहा नीली टोपी पहने मेरे सामने बैठे है, उनमे से एक है, जिन्होने मुझे अंबेडकरवाद की शिक्षा दी.. जब महाराष्ट्र के अंबेडकरवादी नेता टिकट के लिए कांग्रेस के पिछलग्गू बनने लगे, तो मेरी उनसे कई बार झड़प हुई.. उनका कहना था की अगर वो अम्बेडकरवाद से जुड़े रहेंगे, तो कभी MLA/MP नहीं बन सकेंगे.. मैंने उनसे पूछा की ज़्यादा जरुरी क्या है, MLA/MP बनना या बाबा साहबअंबेडकर का मूवमेंट चलाना ? मेरे विचार मे बाबा साहब अंबेडकर का मूवमेंट चलाना ज़्यादा ज़रूरी था, इसलिए मैने मूवमेंट चलाने का फ़ैसला किया.. यह ख्याल मेरे मन मे भी आया था की मूवमेंट को अच्छी तरह से चलाने के लिए, हमें भी MLA/MP बनाने चाहिए; लेकिन ज़रूरी सवाल ये था की कौन सी पार्टी हमें ऐसे MLA/MP देगी जो हमारी (बाबा साहब अंबेडकर) मूवमेंट भी चला सके ? MLA/MP केवल हमारी अपनी पार्टी के ज़रिए ही बन सकते है, इसलिए मै बंबई छोड़कर लखनऊ आ गया..

बाबासाहब का समर्थन किस किस जाती ने किया : 

मैने भारतीय समाज मे जाती की सच्चाई के विषय मे गहन सोच-विचार किया, मैने उन जातियो के बारे मे अध्यन किया, जिन्होने बाबा साहब अंबेडकर का समर्थन किया था.. उनके मूवमेंट को महाराष्ट्र मे महारो ने, परिहा लोगो ने तमिल नाडु मे, माला जाती ने आंध्र प्रदेश मे , जाटवो ने उत्तर प्रदेश मे और चण्डालो ने बंगाल मे समर्थन किया, लेकिन जब बाबा साहब 1952 और 1954 के चुनावो मे खुद ही जीत नही सके तो उनके समर्थको ने सोचा, जब बाबा साहब खुद ही नही जीत पाते है तो हम किस प्रकार चुनाव जीत कर MLA/MP बन सकते है..

उसके बाद मैने बाबा साहब की चुनावी जीत के बारे मे भी विचार किया, सन 1946 मे बाबा साहब बंगाल की जेसोर और खुलना सीट से चुनाव जीते थे, यह कैसे हो पाया ? इन दोनो क्षेत्रो मे चंडाल लोगो की संख्या 52% थी, उन्होने सोचा की संविधान सभा मे किसी और को भेजने की बजाय बाबा साहब को भेजना चाहिए.. बाबा साहब इसलिए जीत पाए क्योकि चण्डालो के पास अधिक वोट थे; महार, परिहा, जॉट्व , माला आदि जातिया चण्डालो की तरह बहुत बड़ी संख्या मे नही थी, इसलिए वे सफल नही हो सके, इसी कारण उन्होने अंबेडकर मूवमेंट को छोड़कर जाना शुरू कर दिया..

बाबा साहब अंबेडकर का संघर्ष जाती की शिकार हुई सभी जातियो के लिए था, लेकिन क्या महार, परिहा, माला आदि जातिया ही जाती का शिकार थी ? क्या मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का शिकार केवल यही जातिया थी ? नही केवल यही जातिया शिकार नही है..

जाती का शिकार 6000 जातिया है : 

मंडल कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 1500 जातिया-अनुसूचित जाती, 1000 जातिया-अनुसूचित जनजाति और 3743 जातिया-अन्य पिछड़े वर्ग के अंतर्गत आती है.. इन जातियो की कुल संख्या 6000 से अधिक है, ये सभी ऐसी जातिया है जोकि मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का शिकार रही है, कोई कम शिकार हुआ है तो कोई ज़्यादा लेकिन शिकार सभी 6000 जातिया हुई है.. तो क्या विषमतावादी-शोषनकारी जाती व्यवस्था का मुकाबला करने के लिए इन सभी जातियो को संघटित नही होना चाहिए ? इनमे से कुछ जातियो की संख्या बल अधिक है तो कुछ जातियो की संख्या बल कम है.. अगर यह सभी जातिया आपस मे टूटी रहती है तो सभी अल्पजन रहती है, लेकिन अगर यह जातिया आपस मे भाईचारा पैदा करके संघटित हो जाती है, तो यह बहुजन बन जाती है.. इन लोगो की इस देश मे जनसंख्या 85% है और यह अपने आपमे देश की सबसे बड़ी शक्ति है..

बहुजन समाज मे आपसी भाईचारा पैदा होना ज़रूरी है :

जिस समय बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की गयी थी (14,अप्रैल,1994), उस समय देश मे बहुजन समाज का निर्माण नही हुआ था.. बहुजन समाज पार्टी तभी सफल हो सकती है, जबकि बहुजन समाज बनाया जाय.. इसलिए हमने जाती का शिकार 6000 जातियो मे आपसी भाईचारा पैदा करके बहुजन समाज बनाने का काम शुरू किया.. पिछले 10 वर्षो मे उसमे से भी विशेषकर पिछले 5 वर्षो मे हम केवल 600 जातियो को ही जोड़ पाये है, जोकि जातियो की कुल संख्या का केवल 10% है.. केवल 600 जातियो को साथ जोड़ने भर से हमारी पार्टी आज देश की चौथी सबसे बड़ी पार्टी बन गयी है.. अगर हम उनमे 400 जातिया और जोड़ ले तो यह संख्या 1000 तक पहुँच जाएगी और अगर हम ऐसा कर पाते है तो बहुजन समाज पार्टी इस देश की पहले नंबर की पार्टी होगी.. मै अधिक बोलना पसंद नही करता हालाकी मुझे बार-बार बोलना पड़ता है! मै स्वय बोलना नही चाहता, बल्कि मै चाहता हुँ, की मेरे द्वारा किए जाने वाला काम तथा उसके द्वारा सामने आने वाले नतीजे खुद बोले! मै अपने उन तमाम साथियो से कहना चाहताहुँ, जो कई मुद्दो पर मुझसे सहमत नही है, की मै शायद ग़लत हो सकता हुँ, लेकिन आप मेरे द्वारा किए गयेकाम के नतीजो का आकलन करे, उनके बारे मे आप क्या कहते है?

इतनी सारी जातियो को जोड़कर एक मंच पर ला पाना एक बेहद मुश्किल काम था, इसलिए जोड़ने का प्रयास करने वाले की बहुत आलोचना भी की गयी और उसे ऐसा संभव काम न करने की सलाह भी दी गयी.. लेकिन जोड़ने वाले ने अपना काम शुरू किया तो कोई भी ताक़त उसे ऐसा करने से रोक नही पायी.. उसने जोड़ने का काम बहुत खूबी के साथ किया, अगर आज तक वो 600 जातियो को जोड़ चुका है, तो भविष्य मे और जातियो को क्यो नही जोड़ सकता है ? अवश्य जोड़ सकता है, जाती का शिकार हुई सभी जातियो को एक साथ जोड़कर हम राजनैतिक सत्ता पर कब्जा कर सकते है और देश के शासक बन सकते है..

मास्टर चाबी पर कब्जा ज़रूरी : 

बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था , “राजनैतिक सत्ता वह मास्टर चाबी है, जिससे आप अपनी तरक्की और सम्मान के सभी दरवाजे खोल सकते है”, महाराष्ट्र के हमारे साथी पिछले लगभग 25 वर्षो से महाराष्ट्र यूनिवर्सिटी का नाम बदल कर बाबा साहब अंबेडकर यूनिवर्सिटी रखने के लिए आंदोलन कर रहे है.. आप लोग इसमे सफल नही हो पाए क्योकि आप महाराष्ट्र मे शाषक नही बन पाये है, आपके पास राजनीति की मास्टर चाबी नही है.. सन् 1989 मे श्री राजीव गाँधी लूखनऊ आये और उन्होने वहा “अंबेडकर यूनिवर्सिटी” की नीव रखी, महाराष्ट्र मे जहा एक ओर कॉंग्रेस पार्टी यूनिवर्सिटी का नाम बदलने से साफ मनाकर रही थी , दूसरी ओर वही कॉंग्रेस पार्टी लूखनऊ मे अंबेडकर यूनिवर्सिटी की नीव रख रही थी , ऐसा क्यो हुआ ? उत्तर प्रदेश के लोगो ने तो कभी भी अंबेडकर यूनिवर्सिटी की माँग नही उठाई थी, यह माँग तो महाराष्ट्र के लोगो की थी, यह उत्तर प्रदेश मे क्यो पूरी की जा रही थी ? कॉंग्रेस यु.पी मे अंबेडकर यूनिवर्सिटी बनाने को इतनी उत्सुक क्यो थी ? ऐसा इसलिए हुआ क्योकि उत्तर प्रदेश के लोग राजनैतिक मास्टर चाबी की तरफ अपना हाथ बढ़ा रहे थे, इसलिए शाषक वर्ग उस मास्टर चाबी को यूनिवर्सिटी की आड़ मे छिपाना चाह रहे थे.. (हँसी)

उत्तर प्रदेश मे सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करके हमने एक नही , कई यूनिवर्सिटीया बनाई, जिसके लिए महाराष्ट्र के लोग कई वर्षो से आंदोलन कर रहे थे.. सन् 1994 मे हमने कानपुर मे शाहू महाराज यूनिवर्सिटी की आधारशिला रखी, 1996 मे हमने महात्मा फूले यूनिवर्सिटी और डा बाबा साहब अंबेडकर यूनिवर्सिटी बनाई, इसके अतिरिक्त दिल्ली के निकट नोएडा मे गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी के लिए 200 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण भी किया.. इसके अतिरिक्त हमने अपने महापुरुषो को सम्मान देने तथा विकास के काम को और तेज करने के लिए यू.पी. मे 17 नये जिलो की भी स्थापना की.. इससे सॉफ जाहिर होता है की आप जाती का अपने हित मे इस्तेमाल करके राजनैतिक सत्ता की मास्टर चाबी को अपने हाथ मे ले सकते है और अपने समाज को आत्मसम्मान तथा तरक्की की ज़िंदगी मुहैया करा सकते है..

हमारे समाज को अपना दलितपन छोड़ना होगा : 

मैने अभी तक जाती के बारे मे विस्तार से बोला है, अब मै दलितो के बारे मे भी कुछ बोलना चाहता हुँ.. मै भारत से बाहर कम ही जाता हुँ, मेरी पार्टी के लोग तथा अन्य लोग यह सोच रहे थे की शायद मै इस सम्मेलन मे शामिल होने के लिए न जा पायु क्योकि मै भारत मे दलितो की दुर्दशा देख कर बहुत अधिक दुखी हुँ.. “दलितपन” दलितो की सबसे बड़ी कमज़ोरी बन गया है, “दलितपन” एक प्रकार का भीकमँगा पन बन गया है, जिस प्रकार कोईभिकारी कभी शासक नही बन सकता है, उसी प्रकार बिना अपना दलितपन छोड़े कोई समाज शासक नहीबन सकता.. माँगने वाले हाथो को (अपनी हथेली को उपर से नीचे की तरफ पलटते हुए) माँगने वाले की बजाए देने वाला बनना होगा, यानी की उन्हे शासन-करता जमात बनना होगा.. अगर आप शाषक नही बन पाते है, तो हमारी समस्याओ का कोई हाल नही हो सकता है, लेकिन दलित अथवा भिकारी रहते हुए आप शाषक कैसे बन सकते है ? इसलिए आपको अपना “दलितपन” छोड़ना होगा, अगर आप शाषक बन जाते है तो आपकी सभी समस्याओ का हाल आप स्वयं कर सकते है..



“मनुवाद” अन्य सभी वादो को नष्ट कर देता है:

हमारे बुद्धिजीवी अक्सर ऐसा सोचते है, की हमारी सभी समस्याओ का हल मार्क्सवाद, समाजवाद, साम्यवाद मे है, मेरा मानना है की जिस देश मे मनुवाद मौजूद है, उस देश मे कोई अन्य वाद सफल नही हो सकता, क्योकि कोई भी अन्य “वाद” जाती की सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नही है.. इसलिए यह बुद्धिजीवियो का फ़र्ज़ है और मेरा भी फ़र्ज़ है , की हम मनुवाद और जाती के अस्तित्व को ध्यान मे रखते हुए अपने लिए स्वयं किसी “वाद” की रचना करे.. मनुवादी समाज के लोग अक्सर बरोजगारी की बात करते है, उन्हे लगभग एक करोड़ बरोजगार उच्च वर्ग के सवर्णो के रोज़गार को लेकर बहुत चिंता रहती है.. लेकिन यह लोग उन 10 करोड़ भारतीय शरणार्थियो के रोज़गार तथा अन्य तकलीफो को लेकर कोई चिंता नही दिखाते जो की अनपढ़ और अकुशल है..

इन 10 करोड़ लोगो के बारे मे कोई भी पार्टी चिंतित दिखाई नही देती, लेकिन ये 10 करोड़ लोग हमारे समाज के लोग है, इसलिए केवल हमारी पार्टी ही उनके बारे मे सोच सकती है, केवल हमारी पार्टी ही उनकी समस्यायो को हल कर सकती है.. हम इस देश के शाषक बनकर बहुजन समाज की सभी समस्यायो का हल आसानी से कर सकते है..

600 जातियो को आपस मे जोड़कर, उनमे भाईचारा पैदा करके आज हम देश की चौथी सबसे बड़ी पार्टी बन चुके है... 1000 जातियो को आपस मे जोड़कर हम इस देश के शाषक बन सकते है, मेरा पक्का विश्वास है की अगले तीन वर्षो मे इस देश की शासन-व्यवस्था की बागडोर हमारे हाथो मे होगी और हम इस देश के हुक्मरान होंगे..

कांशीराम चमत्कार :

मै अपने विचारो को दूसरो पर ज़बरदस्ती थोपने का पक्षधर नही हुँ, मै आपको सिर्फ़ अनुभव बतारहा हुँ, इससे फ़ायदा उठाना या न उठाना आपके अपने उपर निर्भर करता है..

आप शाषक बनकर एक जातिविहिन समाज की स्थापना करने मे सक्षम हो सकते है, आपकी सभी समस्याओ का यही हल मै आपको बता सकता हुँ.. जाती का फ़ायदा उठाने वाले, आख़िर जाती को नष्ट करना क्यो चाहेंगे ? जाती के शिकार हुए लोगो को ही यह काम स्वयं करना होगा, शाषक ही जाती व्यवस्था को समाप्त कर सकने मे सक्षम हो सकते है.. आप यह कह सकते है की मै असंभव सी बात कह रहा हुँ, लेकिन अपनी जिंदगी मे मैने हमेशा ही असंभव सेलगने वाले कामो मे हाथ डाला है और साथ–ही–साथ उनमे सफलता भी हासिल की है.. इसी का नाम “कांशी राम चमत्कार” है, आज “कांशी राम चमत्कार” एक राष्ट्रीय स्वरूप अख्तियार करता जा रहा है..

इसलिए मेरा आपको यही संदेश है, की आप सही सोच रखते हुए एक जातिविहिन समाज के निर्माण की दिशा मे आगे बढ़े.. अंत मे मै आपसे यही कहूँगा की आप शासक बनकर ही एक जातिविहिन समाज की स्थापना कर सकतेहै क्योकि शासक ही एक नये समाज का निर्माण कर सकता है..


October 27, 2017

असली और नकली मिशनरी में भेद.. ~ साहब कांशीराम

आज अगर वर्तमान राजनीती का विश्लेषण किया जाये तो, बहुजन समाज के लोग विभिन्न पार्टियों से जुड़े हुए है, लेकिन उन पार्टियों में वह सिर्फ अनुसूचित जाती-जनजाति मोर्चा तक ही सिमित रह जाते है.. वह लोग बहुजन समाज के लोगो द्वारा दिए गए वोट द्वारा चुने तो जाते है, लेकिन बाद में वह सिर्फ पार्टी के चाकर ही बन कर रह जाते है.. अपने समाज के लोग, उनकी समस्या और उनके प्रश्नों को वह सही तरह से प्रस्तुत करने में व् उनके निराकरण में पुर्णतः असफल दिखाई देते है.. उनकी जवाबदारी व् वफ़ादारी अपने समाज की बजाय पक्ष के प्रति दिखाई देती है.. उन लोगो का इस्तेमाल उनके ही समाज के पक्ष और सच्चे नेता को कमजोर करने के लिए होता है.. इसी बात को मान्यवर साहब कांशीराम ने अपनी किताब चमचायुग में बखूबी दर्शाया है.. 

साहब कांशीराम लिखते है की, "चमचा एक देसी शब्द है, जिसका प्रयोग उस व्यक्ति के लिए होता है जो अपने आप कुछ नहीं कर सकता बल्कि उससे कुछ करवाने के लिए कसी और की जरूरत होती है.. और वः कोई और व्यक्ति, उस चमचे का इस्तेमाल हमेशा अपने निजी फायदे और भलाई के लिए अथवा अपनी जाती की भलाई के लिए करता है, जो चमचे की जाती के लिए हमेशा अहितकारक होता है." चमचो के लिए साहब कांशीराम ने दलाल, पिट्ठू, औजार जैसे और शब्द भी इस्तेमाल किये है.. 

चमचो या दलालों की वजह से बहुजन आन्दोलन को बहोत ही गहरी चोट पहुंची है.. जिस आन्दोलन को बहुजन महापुरुषों ने अपने खून पसीने से सीचा, उस आन्दोलन को चमचो ने अपने स्वार्थ के लिए बेच दिया.. और इसी लिए आज हमारे लिए यह बहोत जरुर बन जाता है की, हम सच्चे मिशनरी और चमचो के बिच का फर्क जाने, ताकि हमे चमचो को पहचानने में आसानी हो.. 

चमचा युग में साहब कांशीराम, असली और नकली मिशनरी के भेद को समजते हुए मान्यवर साहब कांशीराम लिखते है की, 

  • एक सच्चा कार्यकर्ता आज्ञाकारी होता है, वह जी-हजुरी नहीं करता..
  • एक असली कार्यकर्ता अपने नेतृत्व को मजबूत करने के लिए प्रयत्नशील होता है..
  • एक सच्चा मिशनरी, लक्ष्य प्राप्त करने के लिए नेतृत्वकर्ता की सहायता करता है..
  • नकली कार्यकर्ता का इस्तेमाल, असली व् सच्चे नेतृत्व को कमजोर करने के लिए होता है.. 
  • नकली कार्यकर्ता, अपने आप कार्य नही करता.. उसकी बागडोर दुसरो के हाथ में होती है.. असली मिशनरी अपने नेतृत्वकर्ता से प्रेरित होता है..
  • एक सच्चा मिशनरी खुद को बाबासाहब व् अन्य बहुजन महापुरुषों  ऋणी मानता है..
  • एक सच्चा मिशनरी बहुजन समाज को श्क्षित, जागृत करने के लिए व् उसकी भलाई के लिए कार्यरत रहता है..
  • चमचे इसलिए बनाए जाते है ताकि, वास्तविक और सच्चे नेतृत्व का विरोध किया जा शके.. 
  • एक मिशनरी जीवनपर्यंत, अपने सच्चे और वास्तविक नेतृत्व को Time, Tragedy और Talent से सहायक होता है.. 
  • एक असली मिशनरी Single Mind full Devotion से अपने मिशन व् नेतृत्वकर्ता को वफादार रहता है.. 

साहब कांशीराम की लिखी किताब "चमचायुग" हिंदी में डाऊनलोड करने व् पढने के लिए निचे की लिंक पर क्लिक करे :  

October 16, 2017

हमारे जीवन आदर्श, उनके विचार, त्याग, संघर्ष, और बलिदान

बहुजन समाज का आन्दोलन सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन का आन्दोलन है.. परिवर्तन तभी शक्य होता है, जब जरूरियात (Need), इच्छा (Desire) और मजबूती (Strength) का सही समन्वय होता है.. 

समानता का यह आन्दोलन आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व महा कारुणिक तथागत गौतम बुद्ध ने शुरू किया था, जिसे संत रोहिदास, संत कबीर, राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले, राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, रामासामी पेरियार, नारायणा गुरु, विश्वरत्न राष्ट्रनिर्माता बाबासाहब डॉ भीमराव आम्बेडकर, माता रमाबाई आम्बेडकर और बहुजन नायक मान्यवर साहब कांशीराम जैसे महानायकों ने अथाग परिश्रम, त्याग, बलिदान और संघर्ष से आगे बढाया.. आज इस कारवां को हम जिस जगह देख रहे है, वह सेंकडो बहुजन महापुरुषों, माताओं और युवाओ के त्याग और संघर्ष का फल है.. 

बहुजन समाज के इस व्यवस्था परिवर्तन के मिशन के साथ जुड़ा हुआ हर एक व्यक्ति, किसी ना किसी बहुजन महापुरुष को अपने आदर्श के रूप में अनुसरता है.. यह आदर्श तथागत गौतम बुद्ध, महात्मा ज्योतिबा फुले, माता सावित्रीबाई फुले, बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर, माता रमाबाई आम्बेडकर, मान्यवर साहब कांशीराम या और कोई भी सकता है.. 

यहाँ बात है आदर्श की, अपने आदर्शो के विचारो के अनुसरण की.. "जब कोई व्यक्ति किसी को अपना आदर्श मानता है और उनके जीवन के गुणों को अपने जीवन में उतारने का प्रयाश करता है, तब ही वह उसका अनुयायी कहलाता है.."

ऐसी ही एक किताब भंते डॉ करुणाशील राहुल जी ने लिखी है, बहुजन मिशन के सन्दर्भ में.. जिसमे बहुजन समाज में जन्मे माताओं और महापुरुषों के विचारो और उनके गुणों को कैसे अपने जीवन में उतारे और बहुजन आन्दोलन को आगे बढाने में कैसे अपना सहयोग दे, उसके बारे में समझाया गया है.. किताब को पढने के लिए, निचे दी गई लिंक पर क्लिक करे, खुद भी पढ़े और दुसरो को भी पढाये.. जय भीम.. 

October 14, 2017

तुम्हे जाना कहां था, कहां पहुँच गई? - आज की नारी के लिए बाबासाहब का आर्तनाद

तुम्हे जाना कहां था, कहां पहुँच गई? - आज की नारी का मार्ग - उनके मुक्तिदाता बाबासाहब की नजर से 

बोधिसत्व बाबासाहब डॉ आंबेडकर ने ज्ञान के शिखरों को सर कर, आजीवन संघर्ष द्वारा समग्र दबे, कुचले, शोषित व् पीड़ित समाज को सुख और शांति का कवच प्रदान किया.. समाज का महत्त्व का और अभिन्न अंग ऐसी स्त्री, जो हजारो सालो से पुरुषो की गुलामी की जंजीरों से बंधी हुई थी, उसे भी हिन्दू कोड बिल के माध्यम से मुक्त कराकर पुरुषो के समान बनाया.. लेकिन, आज ब्राह्मणवाद और ईश्वरवाद की चुंगल में फंसकर वो गुमराह हो रही है, तब बाबासाहब के आर्तनाद को वर्णन करता भंते डॉ करुणाशील राहुल जी का यह लेख स्त्रिओ को जगाने व् झंझोड़ने के लिए प्रेरणादायक साबित होगा.. 

लेख को पढने के लिए निचे दी गई लिंक पर क्लिक करे.. खुद भी पढ़े और दुसरो को भी पढाये.. 

१४ अक्टूबर १९५६ को बौद्ध धम्म दीक्षा समारोह में बाबासाहब का ऐतिहासिक भाषण

आधुनिक भारत के निर्माता, विश्वरत्न बोधिसत्व बाबासाहब डॉ भीमराव आम्बेडकर ने १३ अक्टूबर १९३५ को येवला, नासिक में लाखो लोगो के समक्ष प्रतिज्ञा की थी की, "मैं हिन्दू अछूत के रूप में पैदा हुआ यह मेरे वश की बात नहीं थी, किन्तु मैं हिन्दू अछूत के रूप में मरूँगा नहीं.." और उसी महान प्रतिज्ञा को पूरी करते हुए, १४ अक्टूबर १९५६ को अशोक विजयादसमी के दिन, अपने लाखो अनुयायियो के साथ असमानता, भेदभाव, ऊँचनीच और जातिवाद से ग्रस्त हिन्दू धर्म को त्याग कर प्रेम, मैत्री, दया, करुणा और बंधुता से पूर्ण मानवतावादी बौद्ध धम्म की दीक्षा ग्रहण की.. जो तथागत बुद्ध के बाद सबसे बड़ी धम्मक्रांति थी.. इस अवसर पर उन्होंने एक ऐतिहासिक भाषण दिया था, जिसे पुस्तक के रूप में संगृहीत किया गया है.. उसे पढने के लिए निचे दी गई लिंक पर क्लिक करे, और पूरा भाषण पढ़े..


















October 8, 2017

बहुजन मूवमेंट के सजग प्रहरी - बहुजन नायक मान्यवर साहब कांशीराम

आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व तथागत गौतम बुद्ध द्वारा असमानता, जातिवाद और भेदभाव से युक्त सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ शुरू किया गया सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन चक्रवर्ती सम्राट अशोक से लेकर, संत रोहिदास, कबीर, वीर मेघमाया से होते हुए छत्रपति शाहूजी महाराज, राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले, माता सावित्रीबाई फुले, भारतरत्न बाबासाहब डॉ आंबेडकर तक आ पहुंचा.. इन सभी महापुरुषों और माताओं ने अपने अपने समयकाल में सेंकडो कठिनाइयों का सामना करते हुए, अथाग संघर्ष, त्याग और बलिदान इस कारवा तक पहोंचाया था.. 

अपने समय में बाबासाहब डॉ आम्बेडकर ने मनुवादियों से अकेले संघर्ष कर सदियों से दबे - कुचले, पिछड़े समाज को लिखित संवैधानिक अधिकार दिलाये.. बाबासाहब बहुजन समाज को इस देश का शासक वर्ग बनते देखना चाहते थे, और वो भारत देश को बौद्ध्मय बनाना चाहते थे, लेकिन उनके जीते-जी यह स्वप्न पुरे नहो सके.. बाबासाहब का अपने अनुयायियो को अंतिम संदेश था की, ‘‘मैं बहुत मुश्किल से इस कारवां को इस स्थिति तक लाया हूं, जहां यह आज दिखाई दे रहा है। इस कारवां को आगे बढ़ने ही देना है, चाहे कितनी ही बाधाएं, रुकावटें या परेशानियां इसके रास्ते में क्यों न आएं। यदि मेरे लोग, मेरे सेनापति इस कारवां को आगे नहीं ले जा सकें, तो उन्हें इसे यहीं, इसी दशा में छोड़ देना चाहिए, पर किसी भी हालत में कारवां को पीछे मोड़ने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए..’’ 

बाबासाहब के महा-परिनिर्वाण के बाद उनका ये कारवां कुछ रुक सा गया था.. इस मिशन को कोई मार्गदर्शक न मिला, जो इसे आगे बढ़ा शके और मंजिल तक ले जा सके.. लगभग 10-12 साल तक बहुजन समाज में स्वाभिमानी नेतृत्व उभर कर नहीं आया, अगर कोई उभर कर आया तो, वह कोंग्रेसियो की चौखट पर उनके तलवे चाटने चला गया.. अब बहुजनो के हको की बागडोर चमचे और भडवे लोगो के हाथो चली गई, ये चमचे अपना तो पेट भरते रहे लेकिन अछूतों को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया.. 

बाबासाहब डॉ अम्बेडकर की मूवमेंट को नेतृत्व प्रदान करने के लिए, २०वीं व् २१वीं सदी की राजनीती की धुरी बनकर आने वाले व्यक्तित्व का नाम था कांशीराम, जिनको बाबासाहब के अनुयायी "मान्यवर साहब" कहकर पुकारने लगे.. १५ मार्च १९३४ को पंजाब राज्य के रोपड़ जिले के पिरथिपुर बूंगा में मान्यवर साहब का जन्म हुआ था.. बचपन से ही साहब कांशीराम पढाई में बहोत होशियार थे.. 

कांशीरामजी DRDO में अधिकारी बनने तक बाबा साहब अम्बेडकर के मिशन से अनभिज्ञ थे, लेकिन जब उनको बाबा साहब के त्याग समर्पण और जीवन दर्शन का ज्ञान हुआ तो उन्हें महसूस हुआ कि मेरा समाज तो खूंटे से भूखा ही बंधा हुआ है और मैं अधिकारी बनकर मौज उड़ा रहा हूँ एवं उस पशु की भाँति अकेला ही पेट भरने में लगा हुआ हूँ, धिक्कार है मुझे अपने आप पर.. 

एक घटना जिसने मान्यवर साहब के जीवन को बदल दिया उसे पढने के लिए निचे की लिंक पर क्लिक करे : घटना जिसने मान्यवर साहब का जीवन बदल दिया

इस घटना के बाद साहब कांसीराम जी ने उसी दिन अधिकारी की नौकरी छोड़ दी एवं घर परिवार सभी छोड़ कर निकल पड़े बहुजन समाज (obc/sc/st और इन्हीं में से धर्मपरिवर्तित minority) को पशु रूपी जीवन से मुक्ति दिलाने के लिए पूरे जीवन भर जातियों में बंटे हुए समाज को संगठित कर बहुजन समाज बनाने के कार्य में लगे रहे.. 






नौकरी छोड़ने के बाद मान्यवर साहब ने एक संकल्प लिया, जिसने बहुजन मूवमेंट को एक नया मोड़ दिया.. कांशीराम साहब ने संकल्प लिया की, 
१. मै आजीवन शादी नहीं करूँगा.. 
२. आज के बाद में अपने परिवार के सुख और दुःख में घर नहीं जाऊंगा और आज के बाद मेरे परिवार से मेरा किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है.. 
३. मरते डीएम तक एक भी रूपया और एक इंच भी जमीं मेरे नाम नहीं होगी, जो भी पैसा और जमीं होगी वह बहुजन समाज की धरोहर होगी.. अगर में इसका व्यक्तिगत उपयोग करूंगा तो मै अपने आपको समाज का गुनेहगार मानूंगा..
४. समाज जैसा खाने को देगा तथा जैसा पहनने को देगा, उसे सहर्ष स्वीकार करूँगा.. 
५. मै आजीवन नौकरी नहीं करूँगा..

अपने साथियों के साथ मिलकर मान्यवर साहब ने पहले बामसेफ (BAMCHEF - The All India Backward (SC, ST, OBC) And Minority Communities Employees Federation) की रचना की, जो भारत का सबसे बड़ा सरकारी कर्मचारियों का संगठन था.. उसके बाद DS4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) और अंत में BSP (बहुजन समाज पार्टी) की रचना की, जो आज भारत की तीसरे नम्बर की सबसे बड़ी राजनितिक पार्टी है.. 

साहब कांशीराम का कहना था की, बहुजन समाज आर्थिक रूप से कमजोर है, आज बहुजन समाज के पास बड़े साधन उपलब्ध नहीं है.. जो साधन उपलब्ध है उपयोग और प्रयोग करना सिख जाए तो हम अपने मिशन में कामयाब हो सकते है.. इस प्रकार साहब ने १९८१ में DS4 के माध्यम से कन्याकुमारी से कारगिल और कोहिमा से पोरबंदर तक अखिल भारतीय साईकिल मार्च शुरू किया जिसे सौ दिन की यात्रा के बाद दिल्ली समाप्त किया.. इस यात्रा के समापन में तिन लाख लोगो ने भाग लिया..

साहब के लिए हमेशा एक लाईन बोली जाती है की,

मै अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर
लोग साथ जुड़ते गए और कारवां बनता गया..


अपने कठिन त्याग, संघर्ष और अथाग परिश्रम से शून्य पर खड़ी बहुजन राजनीती को मान्यवर साहब ने सत्ता के उस सर्वोच्य मुकाम तक पहोंचाया जिसके लिए बाबासाहब डॉ आम्बेडकर कहा करते थे के, "Political Power is the Master Key.." सदियों से ६००० से भी ज्यादा जातियो में बंटे समाज को जोड़कर बहुजन समाज बनाया और देश के सबसे बड़े सूबे उतरप्रदेश में चार बार बहुजनो की सरकार बनाई.. 

मान्यवर साहब कहा करते थे की, "अगर हमें कभी न बिकने वाला नेता चाहिए तो, हमें कभी न बिकने वाला समाज बनाना पड़ेगा.. क्योंकि, लोगो को वैसा ही नेता मिलता है, जैसे लोग होते है.." 

बहुजन महापुरुषों के सदीओ से चले आ रहे व्यवस्था परिवर्तन के इस सामाजिक आन्दोलन के बारे में मान्यवर साहब कहा करते थे की, 
राजनीती चले न चले, सरकार बने न बने, 
लेकिन सामाजिक परिवर्तन की गति 
किसी भी कीमत पर नहीं रुकनी चाहिए..

अपनी लिखी किताब चमचायुग में साहब कांशीराम ने पूना करार के दुश्परिणामो को दर्शाते हुए, उससे पैदा हुए चमचो के कारण बहुजन मूवमेंट को होनेवाली हानि, चमचो के प्रकार, और चमचो से कैसे लड़ा जाये उसको बखूबी निरूपा है.. 

मान्यवर साहब कांशीराम की लिखी किताब, चमचायुग (The Chamcha Age by Sahab Kanshiram) जो की वर्तमान बहुजन राजनीती का बखूबी निरूपण करती है, उसे यहाँ से पढ़े..


जिन बहुजन महापुरुषों और माताओ के त्याग, बलिदान और संघर्ष से आज हम इस मुकाम पर पहुंचे है, उनके हमारे ऊपर रहे ऋण को चुकाने के बारे में मान्यवर साहब कहते है की, "हम अपने समाज को अपना मनी, माइंड, टाइम शेयर करे और समाज के ऋण से उऋण हो.."


बाबासाहब के परिनिर्वाण के बाद रुक से गए उनके कारवां को साहब कांशीराम ने संभाला और उसे एक मुकाम तक पहुँचाया.. बहुजन मूवमेंट के सजग प्रहरी, बाबासाहब के सच्चे वारिस, बहुजन नायक मान्यवर साहब का ९ अक्तूबर २००६ को परिनिर्वाण हुआ.. 

सच ही कहते है लोग की, "बाबासाहब का दूसरा नाम, कांशीराम कांशीराम.."