May 29, 2019

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - धम्मचक्क पवत्त्तन


"क्या व्यक्तिगत निर्मलता ही संसार में सच्चाई की आधारशिला नहीं है?" उनका उतर था, "हां, यह ऐसा ही है जैसा कि आप कहते हैं।"

  • और बुद्ध ने फिर पूछा, ''क्या इर्ष्या, राग, अविद्या, हिंसा, चोरी, व्यभिचार और असत्य व्यक्तिगत निर्मलता को दुर्बल नहीं बनाते हैं? क्या व्यक्तिगत निर्मलता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि अपेक्षित चारित्रिक बल को उत्पन्न किया जाए ताकि इन बुराइयों पर नियंत्रण रखा जा सके? यदि किसी मनुष्य में व्यक्तिगत निर्मलता ही नहीं है, तो वह जन-कल्याण में कैसे सहायक हो सकता है?" उन्होंने उत्तर दिया, "हां, यह ऐसा ही है, जैसा कि आप कहते हैं।
  • "और तब लोग क्यों दूसरों को अपना गुलाम बनाने और उनको अपने अधीन रखने में संकोच नहीं करते हैं? क्यों लोग दूसरों के जीवन को दुखी बनाने में संकोच नहीं करते हैं? क्या यह इसलिए नहीं है क्योंकि लोग दूसरों के प्रति अपने आचरण में शुद्ध नहीं होते?" उन्होंने "हा" कहकर उत्तर दिया।
  • "तो क्या आष्टांगिक मार्ग सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक आजीविका, सम्यक कमात, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि का अभ्यास-संक्षेप में सधम्म के मार्ग का यदि प्रत्येक व्यक्ति अनुसरण करे, तो क्या वह मनुष्य अपने अन्यायपूर्ण और अमानवीय व्यवहार का त्याग नहीं कर सकता?" उनका उत्तर था, "हां, यह ऐसा ही है।"
  • सद्गुणों का उल्लेख करते हुए उन्होंने पूछा, "क्या अभावग्रस्तों तथा दरिद्रों का दुख दूर करने के लिए और सामान्य जन-कल्याण करने के लिए दान आवश्यक नहीं है? क्या जहां दरिद्रता और कष्ट हैं, वहां सहायता प्रदान करने के लिए करुणा की आवश्यकता नहीं है? क्या निस्वार्थ-भाव से काम करने के लिए नेक्खम (नैष्काम्य) की आवश्यकता नहीं है? क्या व्यक्तिगत नाम न होने पर भी सतत प्रयत्न में लगे रहने के लिए उपेक्खा (उपेक्षा) की आवश्यकता नहीं है?"
  • "क्या मनुष्य के लिए प्रेम आवश्यक नहीं है?" उनका उत्तर था, "हा''।
  • मैं और आगे कहता हूं, "प्रेम करना पर्याप्त नहीं है, जिस की आवश्यकता है, वह मेत्ता (मेत्री) है; प्रेम की अपेक्षा यह अधिक व्यापक है। इसका अर्थ है न केवल साथ के लोगों के प्रति मेला (मैत्री), बल्कि समस्त प्राणी मात्र के प्रति मेत्ता (मैत्री)। यह मानव तक ही सीमित नहीं है। क्या ऐसी मेत्ता (मैत्री) अपेक्षित (जरूरी) नहीं है? इसके अलावा दूसरी कौन सी चीज़ है, जो सभी मानवों को वह सुख प्रदान कर सके, जो सुख व्यक्ति स्वयं चाहता है, ताकि चित पक्षपातरहित रहे, सभी के लिए समान रहे, उसमें सभी के प्रति प्रेम रहे और किसी के प्रति भी घृणा नहीं रहे?"
  • उन सब ने कहा, ''हा''।
  • “लेकिन इन सद्गुणों के आचरण के साथ-साथ पज्जा (प्रज्ञा) अर्थात पुर्ण ज्ञान भी होना चाहिए।
  • "क्या पज्जा(प्रज्ञा) आवश्यक नहीं है? परिव्राजक मौन रहे। उन्हें अपने प्रश्न का उतर देने के लिए प्रेरित करने के लिए तथागत ने आगे कहा, अच्छे मनुष्य के गुण है-कोई बुराइ न करे, बुरी बात न सोचे, बुरे तरीके से अपनी जीविका न कमाए और न ही मुन्ह से कोई ऐसी बात निकाले जिससे किसी को ठेस पहुंचे। परिव्राजक बोले, ''हां, यह ऐसा ही है।''
  • बुद्ध ने पूछा, "लेकिन क्या अच्छे कर्मों को बिना सोचे-समझे आंख बंद करके करना ठीक है? मैं कहता हूं 'नहीं' यह पर्याप्त नहीं है।'' बुद्ध ने परिव्राजको से कहा, "यदि यह प्यार होता, तो हम एक छोटे बच्चे के बारे में घोषित कर सकते थे कि वह हमेशा अच्छा करता है। क्योंकि अभी तक एक छोटा बच्चा यह भी नहीं जानता कि शरीर क्या होता है। वह लात चलाते रह्ने के अतिरिक्त और शरीर से कर ही क्या सकता है। वह यह भी नहीं जानता कि वाणी क्या है। वह चिल्लाने के अतिरिक्त और क्या बुरी बात कर सकता है? वह यह भी नहीं जानता कि विचार क्या होता है। वह केवल प्रसन्नता के मारे कलकारी ही मार सकता है। वह यह भी नहीं जानता जीविकावर्जन क्या होता है। वह अपनी मां के स्तन से दुध पीने के अतिरिक्त क्या बुरे तरीके से जीवन चला सकता है?
  • "इसलिए सदूगण के पथ की जांच पज्जा (प्रज्ञा) से होनी चाहिये, जो समज़ और बुद्धि का दुसरा नाम है.
  • एक और कारण से भी पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता इतनी महत्वपूर्ण और इतनी आवश्यक है। दान अवश्य होना चाहिए। किंतु बिना पज्जा (प्रज्ञा) के दान भी संप्रातिपूर्ण प्रभाव पैदा कर सकता है। करुणा होनी ही चाहिए। किंतु बिना पज्जा (प्रज्ञा) के करुणा भी बुराई की समर्थक बन सकती है। पारमिता की प्रत्येक क्रिया पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता की कसौटी पर खरी उतरनी चाहिए। निर्मल बुद्धि का ही दूसरा नाम पज्जा (प्रज्ञा) पारमिता है।
  • "मेरी स्थापना है कि इस बात का ज्ञान और बोध होना चाहिए कि अकुशल आचरण क्या है और इसकी उत्पत्ति कैसे होती है,; इसी प्रकार इस बात का भी ज्ञान और बोध होना चाहिए कि कुशल कर्म तथा अकुशल कर्म क्या है? इस प्रकार के ज्ञान के बिना वास्तविक अच्छाई (कुशल कर्म) नहीं हो सकती, चाहे क्रिया अच्छी ही क्यों न हो। इसीलिए मैं कहता हु कि पज्जा (प्रज्ञा) एक आवश्यक सद्गुण है।'"
  • तब बुद्ध ने परिव्राजकों को इस प्रकार की चेतावनी देते हुए अपना धम्मोपदेश समाप्त किया।
  • ''हो सकता है कि तुम मेरे धम्म को निराशावादी धम्म कहो, क्योंकि यह मानव-जाति का ध्यान दुख के अस्तित्व की ओर दिलाता है। मेरा तुमसे बस यही कहना है कि मेरे धम्म के बारे में ऐसी धारणा का होना गलत होगा।
  • ''निस्संदेह मेरा धम्म दुख के अस्तित्व को स्वीकार करता है, किंतु यह न भूलो कि यह इतना ही जोर उस दुख के दूर करने पर भी देता है।
  • “मेर धम्म में आशा और उद्देश्य दोनों ही निहित हैं।"
  • "इसका उद्देश्य है अविद्या का नाश, जिससे मेरा अभिप्राय है दुख के अस्तित्व के सम्बंध में अग्यान (अविध्या) का होना।
  • ''इसमें आशा विद्यमान है क्योंकि यह मानवीय दूख के नाश का मार्ग बताता है।"

  • "तुम इससे सहमत हो कि नही?" परिव्राजको ने कहा, "हा, हम सहमत है.."
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

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