May 20, 2019

धम्म और धर्म का भेद

धर्म एक अनिश्चित शब्द है जिसका कोई स्थिर अर्थ नही है, किन्तु इसके अर्थ अनेक है.. इसका कारण है धर्म बहुत सी अवस्थाओं से होकर गुजरा है। हर अवस्था मे हम उस मान्यता विशेष को धर्म ही कहते रहे है। निसन्देह हर एक समय कि मान्यता अपने से पूर्व की मान्यताओ से भिन्न रही है। धर्म की कल्पना भी कभी स्थिर नही रही है यह. हर समय बदलती चली आयी है..

एक समय था जब बिजली वर्षा और बाढ की घटनाये आम आदमी की समझ से सर्वथा परे की बात थी, इन सब पर काबू पाने के लिये जो भी कुछ टोना टुटका किया जाता था, उस समय धर्म और जादू एक ही चीज के दो नाम थे। धर्म के विकाश मे दूसरा समय आया,  इस समय धर्म का मतलब था आदमी के विश्वास, धार्मिक कर्मकाण्ड, रीति रिवाज, प्रार्थनाये और बलियो वाले यज्ञ.. 

लेकिन धर्म का स्वरुप व्युत्पन्न है। धर्म का केन्द्रबिन्दु इस विश्वास पर निर्भर करता है कि कोई शक्ति विशेष है जिनके कारण ये सभी घटनाये घटती है और जो आदमी की समझ से परे की बात है। अब इस अवस्था मे पहुँच कर जादू का प्रभाव जाता रहा। आरंभ मे यह शक्ति शैतान के रुप मे थी किन्तु बाद मे यह माना जाने लगा कि शिव( कल्याण) रुप हो सकती है । तरह- तरह के विश्वास, कर्मकाण्ड. शिव स्वरुप शक्ति को प्रसन्न करने के लिये एवं क्रोध रुपी शक्ति को सन्तुष्ट रखने के लिये आवश्यक थे आगे चलकर वही शक्ति ईश्वर, परमात्मा या दुनिया को बनाने वाली कहलाई।

तब धर्म की मान्यता ने तीसरी शक्ल ग्रहण की तब यह माने जाने लगा कि इस एक ही शक्ति ने आदमी और दुनिया बनाया है, यानि दोनो को पैदा किया है। इसके बाद धर्म की मान्यता मे एक बात और भी शामिल हो गयी कि हर आदमी के शरीर मे एक आत्मा है और आदमी जो भी भला और बुरा काम करता है, उस आत्मा को ईश्वर के प्रति उत्तरदायी रहना पडता है.. यही धर्म की मान्यता के विकास का इतिहास है। अब धर्म का यही अर्थ हो गया है या धर्म से यही भावार्थ ग्रहण किया जाता है कि ईश्वर मे विश्वास, आत्मा मे विश्वास, ईस्वर की पूजा, आत्मा मे सुधार, प्रार्थना आदि करके ईस्वर को प्रसन्न रखना।

तथागत गौतम बुद्ध जिसे धम्म कहते है वह धर्म से सर्वथा भिन्न है.. कहा जाता है कि धर्म या रिलिजन व्यक्तिगत चीज है और आदमी को अपने तक सिमित रखना चाहिये। इसे सार्वजनिक जीवन मे बिल्कुल दखल नही देना चाहिये जबकि धम्म एक सामाजिक वस्तु है धम्म का मतलब है सदाचरण। जिसका मतलब है जीवन के सभी क्षेत्रों मे एक आदमी का दुसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार। इससे स्पष्ट होता है कि यदि कही एक आदमी अकेला ही हो तो उसे किसी धम्म की आवश्यकता नही लेकिन कही दो आदमी एक साथ रहते हो तो वो चाहे या ना चाहे धम्म के लिये जगह बनानी ही होगी। दोनो मे से कोई एक बचकर नही जा सकता। दूसरे शब्दो मे धम्म के बिना समाज का काम नही चल सकता।

तथागत के अनुशार धम्म के दो प्रधान तत्व है प्रज्ञा और करुणा। प्रज्ञा का मतलब है बुद्धि (निर्मल बुद्धि).. बुद्ध ने प्रज्ञा को सर्वप्रथम इसलिये माना है क्योंकि वे नही चाहते थे कि मिथ्या विश्वासों के लिये कही कोई गुन्जाईश बची रहे.. दूसरा करुणा जिसका मतलब है दया, मैत्री, प्रेम इसके बिना न समाज रह सकता है न समाज की उन्नति हो सकती है  तथागत की धम्म देशना का यही उद्देश्य है कि जो धम्म के अनुसार आचरण करेगा वह अपने दु:ख का नाश करेगा.. 

जबकि धर्म का सरोकार ईश्वर और सृष्टि से है और धम्म का इन सब वातो से कोई सरोकार नही..  उनका कहना है कि ईश्वर कहाँ है ,सन्सार असीम है आत्मा और शरीर एक है, इन प्रश्नो के उत्तर मे जाने से किसी को कोई लाभ होने वाला नही है.. इनका धम्म से कोई भी सम्बन्ध नही है, इनसे आदमी का आचरण सुधारने मे कुछ भी सहायता नही मिलती, इनसे विराग नही बढता, इनसे राग द्वेष से मुक्ति लाभ नही मिलता, इससे विद्या ( ज्ञान) प्राप्त नही होता।

तथागत ने बताया कि दु:ख क्या है ,दु:ख का मूल कारण क्या है, दु:ख को रोकने का मार्ग क्या है, इनसे लोगो को लाभ है, इनसे आदमी को अपना आचरण सुधारने मे सहायता मिलती है, राग द्वेष से मुक्ति मिलती है, इसे शान्ति मिलती है विद्या प्राप्त होती है और ये निर्वाण ( मोक्ष ) की ओर अग्रसर होते है।

नैतिकता का धर्म और रेलिजिन मे कोई स्थान नही है। नैतिकता धर्म का मूलाधार नही है यह एक रेल के उस डिब्बे के समान है कि जब चाहे इन्जन मे जोड दिया जाये और जब चाहे पृथक कर दिया जाये अर्थात धर्म मे नैतिकता का स्थान आकस्मिक है ताकि व्यवस्था और शान्ति मे उपयोगी सिद्ध हो सके।
जबकि धम्म मे नैतिकता का स्थान है दुसरे शब्दो मे धम्म ही नैतिकता है अथवा नैतिकता ही धम्म है । यद्यपि धम्म मे ईश्वर के लिये कोई स्थान नही है तो भी धम्म मे नैतिकता का वही स्थान है जो धर्म मे ईश्वर का। धम्म मे जो नैतिकता है उसका सीधा मूल श्रोत आदमी को आदमी से मैत्री करने की जो आवश्यकता है वही है.. अपने भले के लिये अथवा दुसरे के भले के लिये यह आवश्यक है कि वह धम्म का आचरण कर मैत्री करे।

हर कोई जानता है कि मानव समाज का जो विकाश हुआ है वह जीवन सन्घर्ष के कारण हुआ क्योकि आरम्भिक युग मे भोजन ,सामग्री बडी सिमित मात्रा मे थी जिससे भयानक सन्घर्ष रहा और योग्यतम/ श्रेष्ठतम ही बचा रहा। मानव की मूल अवस्था ऎसी ही रही। किन्तु क्या योग्यतम( सबसे अधिक शक्ति सम्पन्न) ही श्रेष्ठतम माना जाना चाहिये, क्या जो निर्बलतम है उसे भी सरक्षण देकर यदि बचाया जाये तो क्या यह आगे चलकर समाज के हित की दृष्टि से अच्छा सिद्ध नही होगा ?


अप्प दिपो भव..
भवतु सब्ब मङ्गलम्..

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