इसका कारण बताते हुए उन्होंने लिखा,
“ मैं हिंदुओं और हिंदू धर्म से इसलिए घृणा करता हूं, उसे तिरस्कृत करता हूं क्योंकि मैं आश्स्वस्त हूं कि वह गलत आदर्शों को पोषित करता है, और गलत सामाजिक जीवन जीता है। मेरा हिंदुओं और हिंदू धर्म से मतभेद उनके सामाजिक आचार में केवल कमियों को लेकर नहीं हैं। झगड़ा ज्यादातर सिद्धांतों को लेकर, आदर्शों को लेकर है।”
( भीमराव आंबेडकर, जातिभेद का उच्छेद पृ. 112 )
“हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदेशों और प्रतिबंधों की भीड़ है। हिंदू-धर्म वेदों व स्मृतियों, यज्ञ-कर्म, सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों का खिचड़ी मात्र है। हिंदुओं का धर्म बस आदेशों व निषेधों की संहिता के रूप में ही मिलता है, और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिक सिद्धांतों का विवेचन हो, जो वास्तव में सर्वजनीन और विश्व के सभी समुदायों के लिए हर काम में उपयोगी हो, हिंदुओं में पाया ही नहीं जाता, यदि थोड़े से सिद्धांत पाए भी जाते हैं तो हिंदुओं के जीवन में उनकी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं पाई जाती है। हिंदुओं का धर्म ''आदेशों और निषेधों का ही धर्म है, यह बात वेद और स्मृतियों में 'धर्म शब्द के प्रयोग तथा व्याख्याकारों द्वारा उसकी व्याख्या से स्पष्ट है।”
(भीमराव आंबेडकर, जातिभेद का उच्छेद पृ.75 )
आंबेडकर जैसा लोकतांत्रिक और सहिष्णु व्यक्तित्व वेदों और शास्त्रों को बारूद से उड़ाने की बात करता है। उन्होंने इसी किताब में लिखा,
“आपको तर्क न मानने वाले और नैतिकता को नकारने वाले वेदों व शास्त्रों को बारूद से उड़ा देना होगा। श्रुति और स्मृति के धर्म को खत्म करना होगा” ( वही पृष्ठ-74)
मनुस्मृति का उनके द्वार दहन इसी दिशा में उठाया गया एक कदम था। हिंदू धर्म से उन्हें कितनी नफरत थी, इसे उनकी उस प्रतिज्ञा से समझा जा सकता है, जो उन्होंने 1935 में ली थी। जिसमें उन्होंने कहा था कि, “हालांकि मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ था, लेकिन हिंदू धर्म में मरूगां नहीं”।
हिंदू राष्ट्र को महाविपत्ति और भयानक खतरे के रूप में देखते थे, उन्होंने लिखा कि
"पर अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है, तो निस्संदेह इस देश के लिए एक भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदूत्व स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के लिए एक खतरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।"
(पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, पृ. 365, डॉ.अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय )
आंबेडकर ने हिंदू धर्म की विचारधारा को ब्राह्मणवाद नाम दिया। उन्होंने ब्राह्मणवाद की परिभाषा इस प्रकार दी-
“मेरी मान्यतानुसार ‘ब्राह्मणवाद यानि स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का नकार।” लेकिन वे ब्राह्मणवाद को किसी जाति विशेष तक सीमित नहीं मानते थे, उनका कहना है कि यह पूर हिंदू समाज में फैला हुई विचारधारा है। उन्होंने लिखा “वह सिर्फ ब्राह्मण जाति तक सीमित नहीं है, हालांकि वे इसके निर्माता हैं। ब्राह्मणवाद सभी जगह फैला हुआ है और वह अपने कार्यकलापों से समग्र समाज के विचार और कार्य पर नियंत्रण करता है।”
(आंबेडकर के भाषण- श्रृंखला-2 पृ53 )
"ब्राह्मणवाद के जहर ने हिंदू समाज को बर्बाद कर दिया। "
( जाति का उच्छेद-पृ.78)
वर्ण, जाति और स्त्री की दासता इसी ब्राह्मणवादी विचारधारा की देन है। हिंदू धर्म का मतलब ब्राह्मणवाद है। हिंदू धर्म के सभी ईश्वर और शास्त्र इसका समर्थन करते हैं। ब्राह्मा ने तो स्वयं अपने शरीर के विभिन्न अंगों से जाति पैदा किया। राम का अवतार ही वर्णाश्रण धर्म की रक्षा के लिए हुुआ है, इसकी रक्षा के लिए उन्होंने शंबूक का बध किया। कृष्ण गीता में कहते हैं कि वर्णों की रचना उन्होेेंने किया है।
हिंदू धर्म, हिदू धर्मशास्त्र, हिंदू देवी देवताओं और हिंदुओं के परंपराओं-संस्कारों से पूरी तरह मुक्त हुए बिना भारतीय समाज को समता,स्वतंत्रता, बंधुता पर आधारित समाज नहीं बनाया जा सकता, न ही न्याय और सच्चे लोकतंत्र की स्थापना ही की जा सकती है।
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