May 29, 2019

बुद्ध का प्रथम धम्मोपदेश - अष्टांगिक मार्ग या सम्यक मार्ग


इसके आगे बुद्ध ने उन परिव्राजकों को अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया। बुद्ध ने कहा कि इस मार्ग के आठ अंग हैं। बुद्ध ने सम्मा दिट्ठि (=सम्यक द्रष्टि) की व्याख्या से अपना धम्मोपदेश आरंभ किया, जो अष्टांगिक मार्ग का प्रथम और प्रधान अंग है । सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का महत्त्व समझाने के लिए बुद्ध ने परिव्राजकों से कहा -
  • “हे परिव्राजको! तुम्हें इस का बोध होना चाहिए कि यह संसार एक कारागार है और मनुष्य इस कारागार में एक कारावासी (बंदी) है।
  • “यह कारागार अंधकार से भरा हुआ है। इसमें इतना अधिक अंधकार है कि कैदी को यहां कुछ भी दिखाई नहीं देता है। कैदी को यह तक दिखाई नहीं देता कि वह कारावासी (कैदी) है।
  • “वास्तव में बहुत अधिक लंबे समय तक इस अंधेरे में रहने के कारण मनुष्य न केवल अंधा हो गया है, बल्कि उसे इस बात में भी बहुत संदेह हो गया है कि प्रकाश नाम की ऐसी कोई अनोखी चीज़ भी कहीं अस्तित्व में हो सकती है।
  • “मन ही एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य को प्रकाश की प्राप्ति हो सकती है।
  • लेकिन इस उद्देश्य के लिए इन कारावासियों का मन एक उपयुक्त साधन नहीं है ।
  • “इनका मन थोड़ा-सा प्रकाश ही आने देता है, जो बस केवल इतना ही पर्याप्त है जिससे देखने वाले यह देख सकें कि अंधकार नाम की भी कोई वस्तु है।“
  • “इस प्रकार यह स्वभाव से ही दोषपूर्ण समझ है।“
  • "लेकिन हे परिव्राजको! यह जान लो कि कैदी की स्थिति ऐसी निराशाजनक नहीं है जैसी यह प्रतीत होती है।
  • क्योंकि मनुष्य में एक चीज है जिसे संकल्प शक्ति ( मनोबल ) कहा जाता है। जब मनुष्य के सम्मुख कोई उपयुक्त प्रयोजन का उदय हो जाता है, तो मनोबल को जागृत और क्रियाशील किया जा सकता है ।
  • “किस दिशा में इस मनोबल को लगाया जाए, यह देखने के लिए पर्याप्त प्रकाश मिलने पर मनुष्य उस मनोबल का मार्ग दर्शन कर सकता है और इस प्रकार बंधन मुक्त हो सकता है।
  • “इस प्रकार यद्यपि मनुष्य बंधन में है, तो भी वह स्वतंत्र हो सकता है। वह किसी भी क्षण ऐसा पहला कदम उठा सकता है, जो अंततः उसे स्वतंत्रता प्रदान करेगा।
  • “ऐसा इसलिए है, क्योंकि हम जिस किसी भी दिशा में अपने मन को ले जाना चाहें, हमारे लिए उसे उस दिशा में ले जाना संभव है। यह मन ही है , जो हमें जीवन - रूपी कारागार का कैदी बनाता है और यह मन ही है जो हमें ऐसा बनाए रखता है ।
  • “लेकिन मन ने जो कुछ बनाया है, उसे मन ही नष्ट कर सकता है। यदि इसने मनुष्य को दास बनाया है तो ठीक दिशा दिखाने पर यह मनुष्य को स्वतंत्र भी कर सकता है।
  • “यह है जो सम्यक द्रष्टि कर सकती है । ' '
  • तब परिव्राजकों ने प्रश्न किया, “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अंतिम उद्देश्य क्या है?” बुद्ध ने उत्तर दिया, “ अविद्या का विनाश ही सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का उद्देश्य है। यह मिथ्या-द्रष्टि की विरोधिनी है ।
  • "और अविद्या का अर्थ है चार सत्यों तथा दुख के अस्तित्व एवं दुख के निरोध के उपाय को न समझ पाना।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है, कर्म-कांड के क्रिया-कलाप की प्रभावोत्पादकता में विश्वास न रखना और शास्त्रों की पवित्रता की मिथ्या-धारणा से मुक्त होना ।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है, अंधविश्वास तथा अलौकिकता का त्याग करना।
  • “सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) का अर्थ है ऐसी सभी मिथ्या धारणाओं का त्याग करना, जो कल्पना मात्र हैं और जो यथार्थता अथवा अनुभव पर आधारित नहीं हैं।
  • "सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि) के लिए स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार आवश्यक होते है।
  • " हर मनुष्य के कुछ उद्देश्य, आकांक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं होती हैं। सम्मासंकप्पो (सम्यक संकल्प) यह शिक्षा देता है कि ऐसे उद्देश्य, आकांक्षाएं तथा महत्त्वाकांक्षा उच्च स्तर की एवं सराहनीय हों और निम्न स्तर की एवं अयोग्य न हों।
  • "सम्मावाचा (सम्यक वाणी) में शिक्षा देती है कि (1 ) मनुष्य केवल वही बोले जो सत्य है।(2) मनुष्य असत्य न बोले, (3) मनुष्य दूसरों की बुराई न करे, (4) मनुष्य पर - निंदा से दुर् रहे, ( 5) मनुष्य किसी के लिए भी क्रोध और गाली - गलौज वाली भाषा का प्रयोग न करे, (6) मनुष्य सभी के साथ दया से भरी तथा विनम्र वाणी का व्यवहार करे, (7) किसी मनुष्य को व्यर्थ की, मूर्खतापूर्ण बातों में नहीं पड़ना चाहिए बल्कि उसकी वाणी बुद्धिसंगत और सार्थक होनी चाहिए।
  • जैसा मैंने समझाया है , सम्मावाचा (सम्यक वाणी) का व्यवहार किसी भय अथवा पक्षपात के कारण नहीं होना चाहिए । इसका इससे कुछ भी सम्बंध नहीं होना चाहिए कि कोई ‘श्रेष्ठ मनुष्य’ उसके कार्य के बारे में क्या सोचता है अथवा सम्यक वाणी के व्यवहार के कारण क्या हानि हो सकती है।
  • “सम्मावाचा (सम्यक वाणी) का मापदंड न किसी ‘ऊपर के मनुष्य' की आज्ञा है और न किसी मनुष्य के व्यक्तिगत लाभ के लिए है।
  • “सम्माकम्मन्तो (सम्यक कर्मात) सही व्यवहार की शिक्षा देता है। यह सिखाता है कि हमारे हर कार्य का आधार दूसरों की भावनाओं और अधिकारों का आदर होना चाहिए।
  • “सम्माकम्मन्तो (सम्यक कर्मांत) का मापदंड क्या है? सम्यक कर्मात का मापदंड है आचरण की धारा जो अस्तित्व के आधारभूत नियम के साथ समन्वित होनी चाहिए ।
  • “जब किसी मनुष्य के कार्य इन नियमों से समन्वय रखते हों, तो उन्हें सम्यक कर्म के अनुरूप ही समझना चाहिए।
  • “प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका कमानी ही होती है। लेकिन अपनी जीविका कमाने के कुछ तरीके हैं और उन तरीकों में कुछ बुरे हैं और कुछ अच्छे। बुरे तरीके वे हैं, जो किसी को चोट पहुंचाते हैं अथवा किसी के साथ अन्याय करते हैं। अच्छे तरीके वे हैं जिनसे मनुष्य बिना किसी को हानि पहुंचाए अथवा बिना किसी के साथ अन्याय किए अपनी जीविका कमाता है। यही सम्माआजीवो (सम्यक आजीविका) है।
  • “सम्मावायामी (सम्यक व्यायाम - ठीक प्रयास) अविद्या को नष्ट करने का प्रथम प्रयास है जो उस द्वार तक पहुंचाकर उसे खोलता है, जहां से उस दुखद कारागार से बाहर निकला जा सकता।
  • "सम्मावायामो (सम्यक व्यायाम) के चार उद्देश्य हैं।
  1. “एक है अष्टांगिक मार्ग विरोधी चित्त - प्रवृत्तियों को रोकना।
  1. “दूसरा हैं ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों को दबा देना, जो पहले से उत्पन्न हो गई हों।
  1. “तीसरा है ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों को उत्पन्न करना जो अष्टांगिक मार्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हों।
  1. "चौथा है ऐसी चित्त - प्रवृत्तियों का और अधिक विकास करना और पहले से उत्पन्न चित - प्रवृत्तियों में वृद्धि करना।"
  • सम्मासति (सम्यक स्मृति) जागरूकता और विचारशीलता का आहान करती है। इसका यह मन की सतत जागरूकता बुरी भावनाओं (विचारों) के विरुद्ध चित्त द्वारा निगरानी करना सम्यक स्म्रुति का दूसरा नाम है ।
  • “हे परिव्राजको ! सम्मा दिट्ठि (= सम्यक द्रष्टि), सम्मासंकप्पो (सम्यक संकल्प), सम्मावाचा (= सम्यक वाणी), सम्माकम्मन्तो (= सम्यक कर्मांत), सम्माआजीवो (= सम्यक आजीविका ), सम्मावायामो (= सम्यक व्यायाम), सम्मासति (= सम्यक स्मृति) और सम्मासमाधि (= सम्यक समाधि) प्राप्त करने की चेष्टा करने वाले व्यक्ति के मार्ग में ‘पञ्च - नीवरण’ पांच बंधन अथवा बाधाएं आती हैं । 
  • “ये पांच बाधाएं हैं लोभ, द्वेष, आलस्य, विचिकित्सा (संशय) तथा अनिश्चय। इसलिए इन बाधाओं पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि वे वास्तव में बंधन हैं और इन पर विजय पाने का माध्यम समाधि ही है। लेकिन परिव्राजको ! यह समझ लो कि ‘ सम्मासमाधि ( सम्यक समाधि ) वही नहीं जो समाधि है। यह उससे बिलकुल भिन्न है।
  •  “समाधि तो चित्त की एकाग्रता मात्र है । इसमें संदेह नहीं कि यह ध्यान की अवस्था में ले जाती है , जो स्वयं प्रेरित होती है और पांचों संयोजनों या बंधनों को निलंबित रखती है । 
  • “लेकिन ध्यान की ये अवस्थाएं अस्थायी हैं। परिणामस्वरूप संयोजनों का निलंबन भी अस्थायी है। आवश्यकता है चित्त को स्थायी रूप से एकाग्र करने की । चित्त की ऐसी स्थायी एकाग्रता सम्यक समाधि द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । 
  • “अकेली समाधि एक नकारात्मक स्थिति है , क्योंकि यह केवल संयोजनों को अस्थायी तौर पर निलंबित करती है। इसमें मन के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं है। सम्यक समाधि सकारात्मक है। एकाग्रता के समय यह मन को एकाग्र करने के लिए प्रशिक्षित करती है। और कुशल कर्म के लिए प्रेरित करती है। यह संयोजनोत्पन्न अकुशल कर्मों (अकुशल कार्य और अकुशल विचार) की ओर मन के आकर्षित होने की प्रवृत्ति को ही नष्ट कर देती है। 
  • “सम्मासमाधि ( सम्यक समाधि ) मन को सदा कुशल कर्म के बारे में सोचने के लिए अभ्यस्त करती है। सम्यक समाधि मन को कुशल कर्म करने के लिए अपेक्षित शक्ति देती है।”
संदर्भ ः बाबासाहब डो. भीमराव आंबेड्कर लिखित "बुद्ध और उनका धम्म"

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