May 4, 2018

डेढ़ रुपये की टूटी चप्पल और फटी हुई पेंट कमीज़ पहनने वाले शक्श ने समाज में कैसे परिवर्तन लाया??

बात 1977-78 की है जब साहब कांशीराम दिल्ली में सरगर्म थे.. पर दिल्ली में कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं था।क्योंकि दिल्ली का हर शख्स अपने आप को दादा समझता था।

साहब कांशीराम दिल्ली से निकल कर उत्तर प्रदेश में अपनी विचारधारा शिफ्ट करना चाहते थे, पर उसके लिए उनको कोई स्रोत नहीं मिल रहा था।

एक दिन दिल्ली के दरियापुर गांव में साहब को 8-10 लोग बैठे नज़र आए। जब साहब ने उनके साथ कुछ बात करने की कोशिश की तो उनमें से कुंवर सिंह नाम के शख्स ने कहा कि,"आपकी बातें हमें समझ में नहीं आ रहीं पर आप पालका बाजार में जै भगवान जाटव नाम के एक आदमी के पास चले जाओ।

उसका इंदिरा गाँधी से लेकर, संजय गांधी, जोगिंदर मकवाना, ज्ञानी जैल सिंह और वी पी सिंह जैसों के साथ उठना बैठना है, वो आपकी हर तरह की मदद कर सकता है और वो है भी आपकी चमार जाति का ही।

साहब ने बस पकड़ी और जै भगवान के पास पहुंच गए। साहब ने उसको कहा कि "मैं देश की व्यवस्था को बदलना चाहता हूँ और इस व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहता हूँ। इसी वजह से मैंने शादी नहीं की और नौकरी छोड़ कर घर ना जाने का फैंसला किया है!!"


"मैं दबे कुचले समाज को ज़िल्लत भरी जिंदगी से निकाल कर मान सम्मान वाली ज़िंदगी देकर उसको अपने पैरों पर खड़ा देखना चाहता हूँ।"

साहब  के शब्द सुनकर जै भगवान जाटव ने कहा, "जिस शख्स के पैरों में डेढ़ रुपए की टूटी हुई प्लास्टिक की चप्पल हो, कमीज फटी हो और पेंट की मोहरी के चीथड़े उड़े हुए हों, वो शख्स समाज में खाक परिवर्तन लाएगा!!"

जब साहब ने कहा कि मैं समाज को बदलने के दृढ़ इरादे से चला हूँ, उसके लिए चाहे मुझे अपनी ज़िंदगी की बाज़ी लगानी पड़ जाए.. तो साहब के इन स्वाभिमानी शब्दों को सुनकर भगवान जाटव मानसिक तौर पर थोड़ा हिल सा गया। क्योंकि राजनीति में चाहे उसके संबंध उच्च कोटि के नेताओं के साथ रहे हों, पर इस तरह का शख्स उसने पहली बार उसके सामने खड़ा देखा था, जिसके शब्दों में सदियों से पीड़ित समाज के लिए सच्चा दर्द झलक रहा था। इसके बाद भगवान जाटव ने साहब को अपने तजरबे के आधार पर कहा कि, "अगर आप दबे कुचले समाज के लिए कुछ करना चाहते हो तो दिल्ली छोड़ कर उत्तर प्रदेश पर ध्यान केंद्रित करो क्योंकि दिल्ली का हर बंदा अपने आप को दादा समझता है और वो आपकी बात सुनने को तैयार नहीं होगा, अगर सुन भी लेगा तो पीठ पीछे आपका मजाक उड़ाएगा। दूसरा उत्तर प्रदेश में मेरी काफी पहचान है और वहां मैं आपकी मीटिंगों वगैरा का इंतज़ाम भी कर सकता हूँ।"

साहब ने कहा ठीक है, एक तो मेरी मीटिंगें बंद कमरों में होंनी चाहिए और दूसरा मेरी मीटिंगों में सिर्फ 30 या 35 साल तक के नौजवान ही शामिल होने चाहिए, क्योंकि इस से ज़्यादा उम्र के लोग ना तो खुद कुछ करते हैं ना मुझे करने देंगें। ये बात सुनकर भगवान जाटव ने साहब की हर तरह की मदद करने का भरोसा दिया।

सबसे पहले उन्होंने साहब के करोल बाग के ऑफिस को अपनी जेब से 2200 रुपए का फर्नीचर और कुछ और सामान लेकर दिया और उसके बाद उत्तर प्रदेश में अपने खास लोगों को चिट्ठी पत्र लिखने का काम शुरू किया। जिस में लिखा होता था कि, "मेरा खास दोस्त कांशीराम तुम्हारी मीटिंगें लेने आ रहा है और तुम उसके साथ हर तरह का सहयोग करो।" इस तरह साहब ने छोटी छोटी मीटिंगों को संबोधन करना शुरू किया।साहब जिस मीटिंग को संबोधन करते उसमें अपनी सारी बात रखने के बाद नौजवानों को एक बात कहनी नहीं भूलते थे कि,"अपना काम भी करो, परिवार का ख्याल भी रखो, बस दिन में एक बार साईकल के हैंडल पर नीला झंडा बांध कर 15-20 किलोमीटर जाना है और वापिस आना है।" जब नौजवान ऐसा हर रोज़ करने लगे तो सत्ता के गलियारों में इतनी हाहाकार मच गई की उत्तर प्रदेश की हर गली, हर चूल्हे, हर मोहल्ले में साहब कांशीराम की विचारधारा का डंका बजने लगा।

(मेरी छप रही किताब "मैं कांशीराम बोल रहा हूँ" में से)

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